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शुक्र ग्रह कवच


॥ शुक्र ग्रह कवच ॥ अथ शुक्रकवचम् अस्य श्रीशुक्रकवचस्तोत्रमंत्रस्य भारद्वाज ऋषिः  । अनुष्टुप् छन्दः  । शुक्रो देवता  । शुक्रप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥ मृणालकुन्देन्दुषयोजसुप्रभं पीतांबरं प्रस्रुतमक्षमालिनम्  । समस्तशास्त्रार्थनिधिं महांतं ध्यायेत्कविं वांछितमर्थसिद्धये ॥ १ ॥ ॐ शिरो मे भार्गवः पातु भालं पातु ग्रहाधिपः  ।  नेत्रे द... Read More

॥ शुक्र ग्रह कवच ॥

अथ शुक्रकवचम्

अस्य श्रीशुक्रकवचस्तोत्रमंत्रस्य भारद्वाज ऋषिः  ।

अनुष्टुप् छन्दः  । शुक्रो देवता  ।

शुक्रप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥

मृणालकुन्देन्दुषयोजसुप्रभं पीतांबरं प्रस्रुतमक्षमालिनम्  ।

समस्तशास्त्रार्थनिधिं महांतं ध्यायेत्कविं वांछितमर्थसिद्धये ॥ १ ॥

ॐ शिरो मे भार्गवः पातु भालं पातु ग्रहाधिपः  ।

 नेत्रे दैत्यगुरुः पातु श्रोत्रे मे चन्दनदयुतिः ॥ २ ॥

पातु मे नासिकां काव्यो वदनं दैत्यवन्दितः  ।

जिह्वा मे चोशनाः पातु कंठं श्रीकंठभक्तिमान् ॥ ३ ॥

भुजौ तेजोनिधिः पातु कुक्षिं पातु मनोव्रजः  ।

नाभिं भृगुसुतः पातु मध्यं पातु महीप्रियः॥ ४ ॥

कटिं मे पातु विश्वात्मा ऊरु मे सुरपूजितः  ।

जानू जाड्यहरः पातु जंघे ज्ञानवतां वरः ॥ ५ ॥

गुल्फ़ौ गुणनिधिः पातु पातु पादौ वरांबरः  ।

सर्वाण्यङ्गानि मे पातु स्वर्णमालापरिष्कृतः ॥ ६ ॥

य इदं कवचं दिव्यं पठति श्रद्धयान्वितः  ।

 न तस्य जायते पीडा भार्गवस्य प्रसादतः ॥ ७ ॥

 ॥ इति श्रीब्रह्मांडपुराणे शुक्रकवचं संपूर्णं 


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श्री नरसिंह कवच


॥ श्री नरसिंह कवच॥ नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच ​​है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है। भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है। नरसिंह कवच बुरी आत्माओं से सुरक्षा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ भक्ति और शांति में वृद्धि के लिए मंत्र है। भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है। नरसिंह कव... Read More

॥ श्री नरसिंह कवच॥

नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच ​​है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है।

भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है।

नरसिंह कवच बुरी आत्माओं से सुरक्षा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ भक्ति और शांति में वृद्धि के लिए मंत्र है।

भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का यह कवच अत्यंत चमत्कारी प्रभाव देने वाला है।

नरसिंह कवच संरक्षण पाने के लिए बहुत शक्तिशाली कवच ​​है। नरसिंह कवच एक सुरक्षा कवच या आध्यात्मिक कवच है। नरसिंह कवच बुरी आत्माओं से सुरक्षा और भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ भक्ति और शांति में वृद्धि के लिए मंत्र है।

नरसिंह कवच का जप एक व्यक्ति की व्यक्तिगत कुंडली के अंदर की नकारात्मक ऊर्जा और कर्म संरचनाओं को शुद्ध करता है और सभी प्रकार की शुभता को प्रकट करता है।

नरसिंह कवच सबसे पवित्र हैं, सभी प्रकार की बाधाओं को खत्म कर देते हैं और सभी को सुरक्षा प्रदान करते हैं।

जो व्यक्ति इसका नियमित जप करता है, वह काले जादू, तंत्र, भूत, आत्माओं, नकारात्मक विचारों, व्यसनों और अन्य हानिकारक चीजों से छुटकारा पाता है।

नरसिंह कवच, ब्रह्मानंद पुराण का एक शक्तिशाली मंत्र है, जिसे महाराजा प्रह्लाद महाराज द्वारा कृत किया गया था।

ऐसा कहा जाता है कि जो इस मंत्र का जाप करता है, उसे सभी प्रकार के गुणों से युक्त किया जाता है और उसे स्वर्ग के ग्रहों से ऊपर का स्थान मिलता है !

नरसिंह कवच सभी मंत्रों (मंत्र-राज) का राजा है। इस कवच के उच्चारण से ही अति शुभ और अति शीग्र फल मिलता है !

 

विनयोग-

ॐ अस्य श्रीलक्ष्मीनृसिंह कवच महामंत्रस्य

ब्रह्माऋिषः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीनृसिंहोदेवता, ॐ

क्षौ बीजम्, ॐ रौं शक्तिः, ॐ ऐं क्लीं कीलकम्

मम सर्वरोग, शत्रु, चौर, पन्नग,

व्याघ्र, वृश्चिक, भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी-

शाकिनी, यन्त्र मंत्रादि, सर्व विघ्न निवाराणार्थे

श्री नृसिहं कवचमहामंत्र जपे विनयोगः।।

एक आचमन जल छोड़ दें।

अथ ऋष्यादिन्यास –

ॐ ब्रह्माऋषये नमः शिरसि।

ॐ अनुष्टुप् छन्दसे नमो मुखे।

ॐ श्रीलक्ष्मी नृसिंह देवताये नमो हृदये।

ॐ क्षौं बीजाय नमोनाभ्याम्।

ॐ शक्तये नमः कटिदेशे।

ॐ ऐं क्लीं कीलकाय नमः पादयोः।

ॐ श्रीनृसिंह कवचमहामंत्र जपे विनयोगाय नमः सर्वाङ्गे॥

अथ करन्यास –

ॐ क्षौं अगुष्ठाभ्यां नमः।

ॐ प्रौं तर्जनीभ्यां नमः।

ॐ ह्रौं मध्यमाभयां नमः।

ॐ रौं अनामिकाभ्यां नमः।

ॐ ब्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।

ॐ जौं करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।

अथ हृदयादिन्यास –

ॐ क्षौ हृदयाय नमः।

ॐ प्रौं शिरसे स्वाहा।

ॐ ह्रौं शिखायै वषट्।

ॐ रौं कवचाय हुम्।

ॐ ब्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।

ॐ जौं अस्त्राय फट्।

नृसिंह ध्यान –

ॐ सत्यं ज्ञान सुखस्वरूप ममलं क्षीराब्धि मध्ये स्थित्।

योगारूढमति प्रसन्नवदनं भूषा सहस्रोज्वलम्।

तीक्ष्णं चक्र पीनाक शायकवरान् विभ्राणमर्कच्छवि।

छत्रि भूतफणिन्द्रमिन्दुधवलं लक्ष्मी नृसिंह भजे॥

कवच पाठ –

ॐ नमोनृसिंहाय सर्व दुष्ट विनाशनाय सर्वंजन मोहनाय सर्वराज्यवश्यं कुरु कुरु स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय नृसिंहराजाय नरकेशाय नमो नमस्ते।

ॐ नमः कालाय काल द्रष्ट्राय कराल वदनाय च।

ॐ उग्राय उग्र वीराय उग्र विकटाय उग्र वज्राय वज्र देहिने रुद्राय रुद्र घोराय भद्राय भद्रकारिणे ॐ ज्रीं ह्रीं नृसिंहाय नमः स्वाहा !!

ॐ नमो नृसिंहाय कपिलाय कपिल जटाय अमोघवाचाय सत्यं सत्यं व्रतं महोग्र प्रचण्ड रुपाय।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं ॐ ह्रुं ह्रुं ह्रुं ॐ क्ष्रां क्ष्रीं क्ष्रौं फट् स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय कपिल जटाय ममः सर्व रोगान् बन्ध बन्ध, सर्व ग्रहान बन्ध बन्ध, सर्व दोषादीनां बन्ध बन्ध, सर्व वृश्चिकादिनां विषं बन्ध बन्ध, सर्व भूत प्रेत, पिशाच, डाकिनी शाकिनी, यंत्र मंत्रादीन् बन्ध बन्ध, कीलय कीलय चूर्णय चूर्णय, मर्दय मर्दय, ऐं ऐं एहि एहि, मम येये विरोधिन्स्तान् सर्वान् सर्वतो हन हन, दह दह, मथ मथ, पच पच, चक्रेण, गदा, वज्रेण भष्मी कुरु कुरु स्वाहा।

ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं ह्रीं क्ष्रीं क्ष्रीं क्ष्रौं नृसिंहाय नमः स्वाहा।

ॐ आं ह्रीं क्ष्रौं क्रौं ह्रुं फट्।

ॐ नमो भगवते सुदर्शन नृसिंहाय मम विजय रुपे कार्ये ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यमेनकार्य शीघ्रं साधय साधय एनं सर्व प्रतिबन्धकेभ्यः सर्वतो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।

ॐ क्षौं नमो भगवते नृसिंहाय एतद्दोषं प्रचण्ड चक्रेण जहि जहि स्वाहा।

ॐ नमो भगवते महानृसिंहाय कराल वदन दंष्ट्राय मम विघ्नान् पच पच स्वाहा।

ॐ नमो नृसिंहाय हिरण्यकश्यप वक्षस्थल विदारणाय त्रिभुवन व्यापकाय भूत-प्रेत पिशाच डाकिनी-शाकिनी कालनोन्मूलनाय मम शरीरं स्तम्भोद्भव समस्त दोषान् हन हन, शर शर, चल चल, कम्पय कम्पय, मथ मथ, हुं फट् ठः ठः।

ॐ नमो भगवते भो भो सुदर्शन नृसिंह ॐ आं ह्रीं क्रौं क्ष्रौं हुं फट्।

ॐ सहस्त्रार मम अंग वर्तमान ममुक रोगं दारय दारय दुरितं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु ह्रां ह्रीं ह्रुं ह्रैं ह्रौं ह्रुं ह्रुं फट् मम शत्रु हन हन द्विष द्विष तद पचयं कुरु कुरु मम सर्वार्थं साधय साधय।

ॐ नमो भगवते नृसिंहाय ॐ क्ष्रौं क्रौं आं ह्रीं क्लीं श्रीं रां स्फ्रें ब्लुं यं रं लं वं षं स्त्रां हुं फट् स्वाहा।

ॐ नमः भगवते नृसिंहाय नमस्तेजस्तेजसे अविराभिर्भव वज्रनख वज्रदंष्ट्र कर्माशयान् रंधय रंधय तमो ग्रस ग्रस ॐ स्वाहा।

अभयमभयात्मनि भूयिष्ठाः ॐ क्षौम्।

ॐ नमो भगवते तुभ्य पुरुषाय महात्मने हरिंऽद्भुत सिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने।

ॐ उग्रं उग्रं महाविष्णुं सकलाधारं सर्वतोमुखम्।

नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युं मृत्युं नमाम्यहम्।

                                                                                           नरसिंह कवच मंत्र के फायदे

नरसिंह कवच दुनिया में बुराई और अत्याचार के खिलाफ अंतिम सुरक्षा है। इस नरसिंह कवच को स्मरण करने से भक्तों को किसी भी नुकसान से बचा जा सकता है और एक सुरक्षित,स्वस्थ और शांत और सामान्य जीवन प्रदान करता है।

नरसिंह कवच मंत्र भक्तों के कल्याण की रक्षा के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।

यह एक सर्व अपारदर्शिता पर आधारित है और स्वर्गीय ग्रहों या मुक्ति के लिए या जीवन के उत्थान के लिए सहायक है । इसका जाप करते हुए ब्रह्मांड के भगवान नरसिंह का ध्यान करना चाहिए, जो एक स्वर्ण सिंहासन पर बैठा है।

वह विजयी हो जाता है जो जीत की इच्छा रखता है, और वास्तव में एक विजेता बन जाता है। यह कवच सभी ग्रहों के उलटे प्रभाव को खत्म करता है और समाज में प्रतिष्ठा दिलवाता है !

यह नागों और बिच्छुओं के जहरीले प्रभाव के लिए सर्वोच्च उपाय है, इसके पाठ करने से भूत प्रेत और यमराज भी दूर चले जाते है।

जो नियमित रूप से इस प्रार्थना का जप करता है, चाहे एक या तीन बार (दैनिक), वह विजयी हो जाता है चाहे वह राक्षसों,दुश्मनों या मनुष्यों के बीच हो। हर प्रकार से रक्षा करता है !

वह व्यक्ति, जो इस मंत्र का पाठ करता है, भगवान नरसिंह देव का ध्यान करता है, उसके पेट के रोग सहित उसके सभी रोग समाप्त हो जाते हैं।


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माँ बगलामुखी कवच


|| माँ बगलामुखी कवच || ॥ अथ बगलामुखी कवचं प्रारभ्यते ॥ श्रुत्वा च बगला पूजां  स्तोत्रं  चापि महेश्वर। इदानीं  श्रोतुमिच्छामि  कवचं  वद मे प्रभो। वैरिनाशकरं   दिव्यं  सर्वाऽशुभ विनाशकम्। शुभदं स्मरणात्पुण्यं त्राहि मां दु:ख-नाशनम्॥ ॥ श्री भैरव उवाच ॥ कवच श्रृणु  वक्ष्यामि  भैरवि।  प्राणवल्लभम्। पठित्वा-धारयित्वा तु  त्रैलोक्ये विजयी भवेत्॥... Read More

|| माँ बगलामुखी कवच ||

॥ अथ बगलामुखी कवचं प्रारभ्यते ॥

श्रुत्वा च बगला पूजां  स्तोत्रं  चापि महेश्वर।

इदानीं  श्रोतुमिच्छामि  कवचं  वद मे प्रभो।

वैरिनाशकरं   दिव्यं  सर्वाऽशुभ विनाशकम्।

शुभदं स्मरणात्पुण्यं त्राहि मां दु:ख-नाशनम्॥

॥ श्री भैरव उवाच ॥

कवच श्रृणु  वक्ष्यामि  भैरवि।  प्राणवल्लभम्।

पठित्वा-धारयित्वा तु  त्रैलोक्ये विजयी भवेत्॥

 विनियोग करें : 

ॐ अस्य श्री बगलामुखीकवचस्य नारद ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: श्रीबगलामुखी देवता।

ह्लीं बीजम्। ऐं कीलकम्।

पुरुषार्थचतुष्टयसिद्धये जपे विनियोग:॥

॥ अथ कवचम् ॥

शिरो मे बागला पातु ह्रदयैकक्षरी परा।

ॐ ह्रीं ॐ मे ललाटे च बगला वैरिनाशिनी॥

गदाहस्ता सदा पातु मुखं मे मोक्षदायिनी।

वैरि जिह्राधरा पातु कण्ठं मे बगलामुखी॥

उदरं नाभिदेंश च पातु नित्यं परात्परा।

परात्परतरा पातु मम गुह्रं सुरेश्वरी

हस्तौ चैव तथा पादौ पार्वती परिपातु मे।

विवादे विषमे घोरे संग्रामे रिपुसंकटे॥

पीताम्बरधरा पातु सर्वांगं शिवंनर्तकी।

श्रीविद्या समयं पातु मातंगी पूरिता शिवा॥

पातु पुत्रीं सूतञचैव कलत्रं कलिका मम।

पातु नित्यं भ्रातरं मे पितरं शूलिनी सदा॥

रंध्रं हि बगलादेव्या: कवचं सन्मुखोदितम्।

न वै देयममुख्याय सर्वसिद्धि प्रदायकम्॥

पठनाद्धारणादस्य पूजनादवांछितं लभेत्।

इंद कवचमज्ञात्वा यो जपेद् बगलामुखीय॥

पिबन्ति शोणितं तस्य योगिन्य: प्राप्य सादरा:।

वश्ये चाकर्षणे चैव मारणे मोहने तथा॥

महाभये विपतौ च पठेद्वरा पाठयेतु य:।

तस्य सर्वार्थसिद्धि:। स्याद् भक्तियुक्तस्य पार्वति॥

 


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शिव कवच


|| शिव कवच || वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम्। सहस्रकरमत्युग्रं वन्दे शंभुमुमापतिम् ॥१॥ अथो परं सर्वपुराणगुह्यं निश्शेषपापौघहरं पवित्रम्। जयप्रदं सर्वविपद्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥२॥ नमस्कृत्वा महादेवं सर्वव्यापिनमीश्वरं। वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥३॥ शुचौ देशे समासीनो  यथावत्कल्पितासनः। जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयेच्छिवमव्ययम् ॥४॥ हृत्पुण्डरीकान... Read More

|| शिव कवच ||

वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम्।

सहस्रकरमत्युग्रं वन्दे शंभुमुमापतिम् ॥१॥

अथो परं सर्वपुराणगुह्यं निश्शेषपापौघहरं पवित्रम्।

जयप्रदं सर्वविपद्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥२॥

नमस्कृत्वा महादेवं सर्वव्यापिनमीश्वरं।

वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥३॥

शुचौ देशे समासीनो  यथावत्कल्पितासनः।

जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयेच्छिवमव्ययम् ॥४॥

हृत्पुण्डरीकान्तरसन्निविष्टं स्वतेजसाव्याप्तनभोवकाशम्।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायेत्परानन्दमयं महेशम् ॥५॥

ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध-श्चिरं चिदानन्दनिमग्नचेताः।

षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥६॥

मां पातु देवोऽखिलदेवतात्मा संसारकूपे पतितं गभीरे।

तन्नामदिव्यं परमन्त्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम्॥७॥

सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति-र्ज्योतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा।

अणॊरणीयानुतशक्तिरेकः स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥८॥

यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्तिः।

योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥९॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः।

स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्ने-र्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ।१०॥

प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणिः।

चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम्॥११॥

कुठारवेदाङ्कुशपाशशूल-कपालढक्काक्षगुणान् दधानः।

चतुर्मुखो नीलरुचिस्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥१२॥

कुन्देन्दुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमालावरदाभयांकः ।

त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्योधिजातोऽवतु मां प्रतीच्यां ॥१३॥

वराक्षमालाऽभयटङ्कहस्तः सरोजकिञ्जल्कसमानवर्णः।

त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्यां दिशि वामदेवः॥१४॥

वेदाभयेष्टांकुशपाशट्ङ्क-कपालढक्काक्षकशूलपाणिः।

सितद्युतिः पञ्चमुखोऽवता-दीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥१५॥

मूर्धानमव्यान्ममचन्द्रमौलिः फालं ममाव्यादथ फालनेत्रः।

नेत्रे ममाव्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥१६॥

पायाच्छ्रुतिर्मे श्रुतिगीतकीर्तिः कपोलमव्यात्सततं कपाली।

वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्वः ॥१७॥

कण्ठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठः पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः

दोर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहु-र्वक्षःस्थलं दक्षमखान्तकोऽव्यात्॥१८॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनान्तकारी।

हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्ज्जटिरीश्वरो मे ॥१९॥

ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात्

जंघायुगं पुंगवकेतुरव्यात् पादौ ममाव्यात् सुरवन्द्यपादः ॥२०॥

महेश्वरः पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेवः।

त्रिलोचनः पातु तृतीययामे वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामे ॥२१॥

पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां नीशीथे ।

गौरीपतिः पातु निशावसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥२२॥

अन्तःस्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणुः सदा पातु बहिः स्थितं माम् ।

तदन्तरे पातु पतिः पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥२३॥

तिष्ठन्तमव्यात् भुवनैकनाथः पायाद्व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः।

वेदान्तवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥२४॥

मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादि दुर्गेषु पुरत्रयारिः।

अरण्यवासादि महाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥२५॥

कल्पान्तकाटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलिताण्डकोशः।

घोरारिसेनार्णव दुर्निवार-महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥२६॥

पत्त्यश्वमातंगघटावरूथ-सहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम्।

अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिन्ध्यान्मृडो घोरकुठारधारया ॥२७॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानलार्चि-र्ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य।

शार्दूलसिंहर्क्षवृकादि हिंस्रान् सन्त्रासयत्वीशधनुः पिनाकः ॥२८॥

दुःस्वप्न दुश्शकुन दुर्गति दौर्मनस्य-दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुस्सहदुर्यशांसि।

उत्पाततापविषभीतिमसद्ग्रहार्ति-व्याधींश्च नाशयतु जगतामधीशः ॥२९॥

 ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय,

सर्वमन्त्रस्वरूपाय सर्वतत्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे,

नीलकण्ठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय,

सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्धूलितविग्रहाय,

महामणिमकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय,

सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय,

महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय,

तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय,

षडाश्रयाय वेदान्तसाराय त्रिवर्गसाधनाय,

अनन्तकॊटिब्रह्माण्डनायकाय अनन्त-वासुकि-,

तक्षक-कार्कोटक-शंख-कुलिक-पद्म-महापद्मेत्यष्ट,

महानागकुलभूषणाय प्रणवस्वरूपाय,

चिदाकाशायाकाशदिक्स्वरूपाय,

ग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलरहिताय,

सकललोकैककर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे,

सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे,

सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय,

सकलवेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय,

सकललोकैकशंकराय शशाङ्कशेखराय,

शाश्वतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय,

निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्चिन्ताय,

निरहंकाराय निरङ्कुशाय निष्कलङ्काय,

निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय,

निरवद्याय निरन्तराय निष्कारणाय,

निरातङ्काय निष्प्रपञ्चाय निस्संगाय,

निर्द्वन्दाय निराधाराय निरागाय,

निष्क्रोधाय निर्मूलाय निष्पापाय निर्भयाय,

निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियाय,

निस्तुलाय निस्संशयाय निरञ्जनाय,

निरुपमविभवाय नित्य-शुद्ध-बुद्धि-,

परिपूर्णसच्चिदानन्दाद्वयाय,

परमशान्तस्वरूपाय तेजोरूपाय,

तेजोमयाय जयजयरुद्रमहारौद्र-,

भद्रावतारमहाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव,

कपालमालाधर खट्वाङ्ग-,

खड्ग-चर्म-पाशाङ्कुश-डमरु-शूल-चाप-बाण-,

गदा-शक्ति-भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-,

मुद्गर-पाश-परिघ-भुशुण्डी-शतघ्नी-,

चक्राद्यायुध-भीषण-कर सहस्रमुखदंष्ट्र,

करालवदन! विकटाट्टहासविसंहारित,

ब्रह्माण्डमण्डल नागेन्द्रकुण्डल! नागेन्द्रहार!,

नागेन्द्रवलय! नागेन्द्रचर्मधर !,

मृत्युञ्जय त्रैंबक त्रिपुरान्तक विश्वरूप!,

विश्वरूपाक्ष विश्वेश्वर!

वृषभवाहन! विषविभूषण,

विश्वतोमुख! सर्वतो रक्षरक्ष मां,

ज्वलज्वलमहामृत्युभयं नाशय नाशय,

चोरभयमुत्सादय उत्सादय,

विषसर्पभयं शमयशमय,

चोरान् मारय मारय मम शत्रून्,

उच्चाट्योच्चाटय त्रिशूलेन विदारय,

विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि,

खड्गेन छिन्धि छिन्धि खट्वाङ्गेन,

विपोथय विपोथय मुसलेन,

निष्पेषय निष्पेषय बाणैः सन्ताडय,

सन्ताडय  रक्षांसि भीषय भीषय,

शेषभूतानि विद्रावय विद्रावय,

कूश्माण्डवेतालमारीचब्रह्मराक्षसगणान्,

सन्त्रासय सन्त्रासय ममाभयं कुरुकुरु,

वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय-,

नरकमहाभयात् मामुद्धरोद्धर सञ्जीवय,

सञ्जीवय क्षुत्तृभ्यां मामाप्याययाप्यायय,

दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन,

मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय त्र्यंबक,

सदाशिव नमस्ते नमस्ते,

इत्येतत् कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया।

सर्वबाधाप्रशमनं  रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥३०॥

यस्सदा धारयेन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम्।

न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥३१॥

क्षीणायुः प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा।

सद्यः सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्च विन्दति ॥३२॥

सर्वदारिद्र्यशमनं सौमङ्गल्यविवर्धनम्

यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते ॥३३॥

महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकैः

देहान्ते मुक्तिमाप्नोति शिववर्मानुभावतः ॥३४॥

त्वमपि श्रद्धया वत्स !शैवं कवचमुत्तमम्।

धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रेयोह्यवाप्स्यसि ॥३५॥

इत्युक्त्वा ऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे।

ददौ शंखं महारावंखड्गञ्चारिनिषूदनम् ॥३६॥

पुनश्च भस्म सम्मन्त्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत्।

गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ ॥३७॥


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केतु ग्रह कवच


|| केतु ग्रह कवच || अथ केतुकवचम् अस्य श्रीकेतुकवचस्तोत्रमंत्रस्य त्र्यंबक ऋषिः । अनुष्टप् छन्दः । केतुर्देवता । कं बीजं । नमः शक्तिः । केतुरिति कीलकम् I केतुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥ केतु करालवदनं चित्रवर्णं किरीटिनम् । प्रणमामि सदा केतुं ध्वजाकारं ग्रहेश्वरम् ॥ १ ॥ चित्रवर्णः शिरः पातु भालं धूम्रसमद्युतिः । पातु नेत्रे पिंगलाक्षः श्रुती मे रक्तलो... Read More

|| केतु ग्रह कवच ||

अथ केतुकवचम्

अस्य श्रीकेतुकवचस्तोत्रमंत्रस्य त्र्यंबक ऋषिः ।

अनुष्टप् छन्दः । केतुर्देवता । कं बीजं । नमः शक्तिः ।

केतुरिति कीलकम् I केतुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥

केतु करालवदनं चित्रवर्णं किरीटिनम् ।

प्रणमामि सदा केतुं ध्वजाकारं ग्रहेश्वरम् ॥ १ ॥

चित्रवर्णः शिरः पातु भालं धूम्रसमद्युतिः ।

पातु नेत्रे पिंगलाक्षः श्रुती मे रक्तलोचनः ॥ २ ॥

घ्राणं पातु सुवर्णाभश्चिबुकं सिंहिकासुतः ।

पातु कंठं च मे केतुः स्कंधौ पातु ग्रहाधिपः ॥ ३ ॥

हस्तौ पातु श्रेष्ठः कुक्षिं पातु महाग्रहः ।

सिंहासनः कटिं पातु मध्यं पातु महासुरः ॥ ४ ॥

ऊरुं पातु महाशीर्षो जानुनी मेSतिकोपनः ।

पातु पादौ च मे क्रूरः सर्वाङ्गं नरपिंगलः ॥ ५ ॥

य इदं कवचं दिव्यं सर्वरोगविनाशनम् ।

सर्वशत्रुविनाशं च धारणाद्विजयि भवेत् ॥ ६ ॥

 इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे केतुकवचं संपूर्णं 

 


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गुरु ग्रह कवच


|| गुरु ग्रह कवच || ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः । पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ॥ पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा । आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ॥ नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे । वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ॥ भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा । संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ॥ ऊर्ध्वं पातु विधाता च... Read More

|| गुरु ग्रह कवच ||

ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः ।

पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ॥

पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा ।

आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ॥

नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे ।

वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ॥

भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा ।

संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ॥

ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः ।

सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ॥

रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु ।

जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ॥

डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः ।

हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ॥

पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः ।

मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ॥

महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा ।

वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ॥


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चन्द्र देव कवच


|| चन्द्र देव कवच || श्रीचंद्रकवचस्तोत्रमंत्रस्य गौतम ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः। चंद्रो देवता । चन्द्रप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः । समं चतुर्भुजं वन्दे केयूरमुकुटोज्ज्वलम् । वासुदेवस्य नयनं शंकरस्य च भूषणम् ॥ १ ॥ एवं ध्यात्वा जपेन्नित्यं शशिनः कवचं शुभम् । शशी पातु शिरोदेशं भालं पातु कलानिधिः ॥ २ ॥ चक्षुषी चन्द्रमाः पातु श्रुती पातु निशापतिः । प्राणं... Read More

|| चन्द्र देव कवच ||

श्रीचंद्रकवचस्तोत्रमंत्रस्य गौतम ऋषिः । अनुष्टुप् छंदः।

चंद्रो देवता । चन्द्रप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।

समं चतुर्भुजं वन्दे केयूरमुकुटोज्ज्वलम् ।

वासुदेवस्य नयनं शंकरस्य च भूषणम् ॥ १ ॥

एवं ध्यात्वा जपेन्नित्यं शशिनः कवचं शुभम् ।

शशी पातु शिरोदेशं भालं पातु कलानिधिः ॥ २ ॥

चक्षुषी चन्द्रमाः पातु श्रुती पातु निशापतिः ।

प्राणं क्षपाकरः पातु मुखं कुमुदबांधवः ॥ ३ ॥

पातु कण्ठं च मे सोमः स्कंधौ जैवा तृकस्तथा ।

करौ सुधाकरः पातु वक्षः पातु निशाकरः ॥ ४ ॥

 हृदयं पातु मे चंद्रो नाभिं शंकरभूषणः ।

मध्यं पातु सुरश्रेष्ठः कटिं पातु सुधाकरः ॥ ५ ॥

ऊरू तारापतिः पातु मृगांको जानुनी सदा ।

अब्धिजः पातु मे जंघे पातु पादौ विधुः सदा ॥ ६ ॥

सर्वाण्यन्यानि चांगानि पातु चन्द्रोSखिलं वपुः ।

एतद्धि कवचं दिव्यं भुक्ति मुक्ति प्रदायकम् ॥

यः पठेच्छरुणुयाद्वापि सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ ७ ॥

॥ इति श्रीब्रह्मयामले चंद्रकवचं संपूर्णम् ॥


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तांत्रोक्त भैरव कवच


|| तांत्रोक्त भैरव कवच || ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः । पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ॥ पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा । आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ॥ नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे । वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ॥ भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा । संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ॥ ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको... Read More

|| तांत्रोक्त भैरव कवच ||

ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः ।

पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ॥

पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा ।

आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ॥

नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे ।

वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ॥

भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा ।

संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ॥

ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः ।

सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ॥

रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु ।

जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ॥

डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः ।

हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ॥

पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः ।

मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ॥

महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा ।

वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ॥


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दक्षिणकालिका कवचम्


|| दक्षिणकालिका कवचम् || कैलास शिखरारूढं भैरवं चन्द्रशेखरम् । वक्षःस्थले समासीना भैरवी परिपृच्छति ॥ भैरव्युवाच देवेश परमेशान लोकानुग्रहकारकः । कवचं सूचितं पूर्वं किमर्थं न प्रकाशितम् ॥ यदि मे महती प्रीतिस्तवास्ति कुल भैरव । कवचं कालिका देव्याः कथयस्वानुकम्पया ॥ भैरवोवाच अप्रकाश्य मिदं देवि नर लोके विशेषतः । लक्षवारं वारितासि स्त्री स्वभावाद्धि पृच्छसि ॥ भैरव्युवाच सेवका वहवो नाथ कुलधर्म परायणाः ।... Read More

|| दक्षिणकालिका कवचम् ||

कैलास शिखरारूढं भैरवं चन्द्रशेखरम् ।

वक्षःस्थले समासीना भैरवी परिपृच्छति ॥

भैरव्युवाच

देवेश परमेशान लोकानुग्रहकारकः ।

कवचं सूचितं पूर्वं किमर्थं न प्रकाशितम् ॥

यदि मे महती प्रीतिस्तवास्ति कुल भैरव ।

कवचं कालिका देव्याः कथयस्वानुकम्पया ॥

भैरवोवाच

अप्रकाश्य मिदं देवि नर लोके विशेषतः ।

लक्षवारं वारितासि स्त्री स्वभावाद्धि पृच्छसि ॥

भैरव्युवाच

सेवका वहवो नाथ कुलधर्म परायणाः ।

यतस्ते त्यक्तजीवाशा शवोपरि चितोपरि ॥

तेषां प्रयोग सिद्धयर्थ स्वरक्षार्थ विशेषतः ।

पृच्छामि बहुशो देव कथयस्व दयानिधे ॥

भैरवोवाच

कथयामि श्रृणु प्राज्ञे कालिका कवचं परम् ।

गोपनीयं पशोरग्रे स्वयोनिम परे यथा ॥

 

 

विनियोग

अस्य श्री दक्षिणकालिका कवचस्य भैरव ऋषिः, उष्णिक् छन्द:, अद्वैतरूपिणी श्री दक्षिणकालिका देवता, ह्नीं बीजं, हूं शाक्तिः. क्रीं कीलकं सर्वार्थ साधन पुरःसर मंत्र सिद्धौ विनियोगः ।

अथ कवचम्

सहस्त्रारे महापद्मे कर्पूरधवलो गुरुः ।

वामोरुस्थिततच्छक्तिः सदा सर्वत्र रक्षतु ॥

परमेश: पुरः पातु परापर गुरुस्तथा ।

परमेष्ठी गुरुः पातु दिव्य सिद्धिश्च मानवः ॥

महादेवी सदा पातु महादेव: सदावतु ।

त्रिपुरो भैरवः दिव्यरूपधरः सदा ॥

ब्रह्मानन्दः सदा पातु पूर्णदेवः सदावतु ।

चलश्चित्तः सदा पातु पातु चेलाञ्चलश्च पातु माम् ॥

कुमारः क्रोधनश्चैव वरदः स्मरदीपन: ।

मायामायावती चैव सिद्धौघा: पातु सर्वदा ॥

विमलो कुशलश्चैव भीजदेवः सुधारकः ।

मीनो गोरक्षकश्चैव भोजदेवः प्रजापतिः ॥

मूलदेवो रतिदेवो विघ्नेश्वर हुताशान: ।

सन्तोषः समयानन्दः पातु माम मनवा सदा ॥

सर्वेऽप्यानन्दनाथान्तः अम्बान्तां मातरः क्रमात् ।

गणनाथः सदा पातु भैरवः पातु मां सदा ॥

बटुको नः सदा पातु दुर्गा मां परिरक्षतु ।

शिरसः पाद पर्यन्तं पातु मां घोरदक्षिणा ॥

तथा शिरसि माम काली ह्यदि मूले च रक्षतु ।

सम्पूर्ण विद्यया देवी सदा सर्वत्र रक्षतु ॥

क्रीं क्रीं क्रीं वदने पातु हृदि हूं हूं सदावतु ।

ह्नीं ह्नीं पातु सदाधोर दक्षिणेकालिके हृदि ॥

क्रीं क्रीं क्रीं पातु मे पूर्वे हूं हूं दक्षे सदावतु ।

ह्नीं ह्नीं मां पश्चिमे पातु हूं हूं पातु सदोत्तरे ॥

पृष्ठे पातु सदा स्वाहा मूला सर्वत्र रक्षतु ।

षडङ्गे युवती पातु षडङ्गेषु सदैव माम् ॥

मंत्रराजः सदा पातु ऊर्ध्वाधो दिग्विदिक् स्थितः ।

चक्रराजे स्थिताश्चापि देवताः परिपान्तु माम् ॥

उग्रा उग्रप्रभा दीप्ता पातु पूर्वे त्रिकोणके ।

नीला घना वलाका च तथा परत्रिकोणके ॥

मात्रा मुद्रा मिता चैव तथा मध्य त्रिकोणके ।

काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला विरोधिनी ॥

बहिः षट्‌कोणके पान्तु विप्रचित्ता तथा प्रिये ।

सर्वाः श्यामाः खड्‌गधरा वामहस्तेन तर्जनीः ॥

ब्राह्मी पूर्वदले पातु नारायणि तथाग्निके ।

माहेश्वरी दक्षदले चामुण्डा रक्षसेऽवतु ॥

कौमारी पश्चिचे पातु वायव्ये चापराजिता ।

वाराही चोत्तरे पातु नारासिंही शिवेऽवतु ॥

ऐं ह्नीं असिताङ्ग पूर्व भैरवः परिरक्षतु ।

ऐं ह्णीं रुरुश्चाजिनकोणे ऐं ह्नीं चण्डस्तु दक्षिणे ॥

ऐं ह्नीं क्रोधो नैऋतेऽव्यात् ऐं ह्नीं उन्मत्तकस्तथा ।

पश्चिमे पातु ऐं ह्नीं मां कपाली वायु कोणके ॥

ऐं ह्नीं भीषणाख्यश्च उत्तरे ऽवतु भैरवः ।

ऐं ह्नीं संहार ऐशान्यां मातृणामङ्कया शिवः ॥

ऐं हेतुको वटुकः पूर्वदले पातु सदैव माम् ।

ऐं त्रिपुरान्तको वटुकः आग्नेय्यां सर्वदावतु ॥

ऐं वह्नि वेतालो वटुको दक्षिणे मामा सदाऽवतु ।

ऐं अग्निजिह्व वटुको ऽव्यात् नैऋत्यां पश्चिमे तथा ॥

ऐं कालवटुक: पातु ऐं करालवटुकस्तथा ।

वायव्यां ऐं एकः पातु उत्तरे वटुको ऽवतु ॥

ऐं भीम वटुकः पातु ऐशान्यां दिशि माम सदा ।

ऐं ह्णीं ह्नीं हूं फट् स्वाहान्ताश्चतुः षष्टि च मातरः ॥

ऊर्ध्वाधो दक्षवामागें पृष्ठदेशे तु पातु माम् ।

ऐं हूं सिंह व्याघ्रमुखी पूर्वे मां परिरक्षतु ॥

ऐं कां कीं सर्पमुखी अग्निकोणे सदाऽवतु ।

ऐं मां मां मृगमेषमुखी दक्षिणे मां सदाऽवतु ॥

ऐं चौं चौं गजराजमुखी नैऋत्यां मां सदाऽवतु ।

ऐं में में विडालमुखी पश्चिमे पातु मां सदा ॥

ऐं खौं खौं क्रोष्टुमुखी वायुकोणे सदाऽवतु ।

ऐं हां हां ह्नस्वदीर्घमुखी लम्बोदर महोदरी ॥

पातुमामुत्तरे कोणे ऐं ह्नीं ह्नीं शिवकोणके ।

ह्नस्वजङ्घतालजङ्घः प्रलम्बौष्ठी सदाऽवतु ॥

एताः श्मशानवासिन्यो भीषणा विकृताननाः ।

पांतु मा सर्वदा देव्यः साधकाभीष्टपूरिकाः ॥

इन्द्रो मां पूर्वतो रक्षेदाग्नेय्या मग्निदेवता ।

दक्षे यमः सदा पातु नैऋत्यां नैऋतिश्च माम् ॥

वरुणोऽवतु मां पश्चात वायुर्मां वायवेऽवतु ।

कुबेरश्चोत्तरे पायात् ऐशान्यां तु सदाशिवः ॥

ऊर्ध्व ब्रह्मा सदा पातु अधश्चानन्तदेवता ।

पूर्वादिदिक् स्थिताः पान्तु वज्राद्याश्चायुधाश्चमाम् ॥

कालिका पातु शिरसि ह्र्दये कालिकाऽवतु ।

आधारे कालिका पातु पादयोः कालिकाऽवतु ॥

दिक्षु मा कालिका पातु विदिक्षु कालिकाऽवतु ।

ऊर्ध्व मे कालिका पातु अधश्च कालिकाऽवतु ॥

चर्मासूङ मांस मेदा‍ऽस्थि मज्जा शुक्राणि मेऽवतु ।

इन्द्रयाणि मनश्चैव देहं सिद्धिं च मेऽवतु ॥

आकेशात् पादपर्यन्तं कालिका मे सदाऽवतु ।

वियति कालिका पातु पथि नाकालिकाऽवतु ॥

शयने कालिका पातु सर्वकार्येषु कालिका ।

पुत्रान् मे कालिका पातु धनं मे पातु कालिका ॥

यत्र मे संशयाविष्टास्ता नश्यन्तु शिवाज्ञया ।

इतीदं कवचं देवि ब्रह्मलोकेऽपि दुर्लभम् ॥

तव प्रीत्या मायाख्यातं गोपनीयं स्वयोनिवत् ।

तव नाम्नि स्मृते देवि सर्वज्ञं च फलं लभेत् ॥

सर्व पापः क्षयं यान्ति वाञ्छा सर्वत्र सिद्धयति ।

नाम्नाः शतगुणं स्तोत्रं ध्यानं तस्मात् शताधिकम् ॥

तस्मात् शताधिको मंत्रः कवचं तच्छताधिकम् ।

शुचिः समाहितों भूत्वा भक्तिं श्रद्धा समन्वितः ॥

संस्थाप्य वामभागेतु शक्तितं स्वामि परायणाम् ।

रक्तवस्त्र परिघानां शिवमंत्रधरां शुभाम् ॥

या शक्तिः सा महादेवी हररूपश्च साधकः ।

अन्योऽन्य चिन्तयेद्देवि देवत्वमुपुजायते ॥

शक्तियुक्तो यजेद्देवीं चक्रे वा मनसापि वा ।

भोगैश्च मधुपर्काद्यै स्ताम्बूलैश्च सुवासितैः ॥

ततस्तु कवचं दिव्यं पठदेकमनाः प्रिये ।

तस्य सर्वार्थ सिद्धिस्यान्नात्र कार्याविचारणा ॥

इदं रहस्यं परमं परं स्वस्त्ययनं महत् ।

या सकृत्तुपठद्देवि कवचं देवदुर्लभम् ॥

सर्वयज्ञ फलं तस्य भवेदेव न संशयः ।

संग्रामे च जयेत् शत्रून् मातङ्गानिव केशरी ॥

नास्त्राणि तस्य शस्त्राणि शरीरे प्रभवन्ति च ।

तस्य व्याधि कदाचिन्न दुःखं नास्ति कदाचन ॥

गतिस्तस्यैव सर्वत्र वायुतुल्यः सदा भवेत् ।

दीर्घायुः कामभोगीशो गुरुभक्ताः सदा भवेत् ॥

अहो कवच माहात्म्यं पठमानस्य नित्यशः ।

विनापि नयोगेन योगीश समतां व्रजेत् ॥

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यं सत्यं पुनः पुनः ।

न शक्नोमि प्रभावं तु कवचस्यास्य वर्णिताम् ॥


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बगला प्रत्यङ्गिरा कवच


|| बगला प्रत्यङ्गिरा कवच || भगवती बगलामुखी की उपासना कलियुग में सभी कष्टों एवं दुखों से मुक्ति प्रदान करने वाली है। संसार में कोई कष्ट अथवा दुख ऐसा नही है जो भगवती पीताम्बरा की सेवा एवं उपासना से दूर ना हो सकता हो, बस साधकों को चाहिए कि धैर्य पूर्वक प्रतिक्षण भगवती की सेवा करते रहें। विनियोग: ॐ अस्य श्री बगला प्रत्यंगिरा कवच मंत्रस्य नारद ऋषिः स्त्रिष्टुपछन्दः प्रत्यंगिरा देवता... Read More

|| बगला प्रत्यङ्गिरा कवच ||

भगवती बगलामुखी की उपासना कलियुग में सभी कष्टों एवं दुखों से मुक्ति प्रदान करने वाली है।

संसार में कोई कष्ट अथवा दुख ऐसा नही है जो भगवती पीताम्बरा की सेवा एवं उपासना से दूर ना हो सकता हो, बस साधकों को चाहिए कि धैर्य पूर्वक प्रतिक्षण भगवती की सेवा करते रहें।

विनियोग: ॐ अस्य श्री बगला प्रत्यंगिरा कवच मंत्रस्य नारद ऋषिः स्त्रिष्टुपछन्दः प्रत्यंगिरा देवता ह्लीं बीजं हूँ शक्तिः ह्रीं कीलकं ह्लीं ह्लीं ह्लीं ह्लीं प्रत्यंगिरा मम शत्रु विनाशे विनियोगः |

ॐ प्रत्यंगिरायै नमः प्रत्यंगिरे सकल कामान साधय मम रक्षां कुरु कुरु सर्वान शत्रुन खादय खादय,मारय मारय,घातय घातय, ॐ ह्रीं फट स्वाहा |

ॐ भ्रामरी स्तम्भिनी देवी क्षोभिणी मोहिनी तथा |
संहारिणी द्राविणी च जृम्भणी रौद्ररूपिणी ||

इत्यष्टौ शक्तयो देवि शत्रु पक्षे नियोजताः |
धारयेत कण्ठदेशे च सर्व शत्रु विनाशिनी ||

ॐ ह्रीं भ्रामरी सर्व शत्रून भ्रामय भ्रामय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं स्तम्भिनी मम शत्रून स्तम्भय स्तम्भय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं क्षोभिणी मम शत्रून क्षोभय क्षोभय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं मोहिनी मम शत्रून मोहय मोहय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं सँहारिणी मम शत्रून संहारय संहारय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं द्राविणी मम शत्रून द्रावय द्रावय ॐ ह्रीं स्वाहा |
ॐ ह्रीं जृम्भिणी मम शत्रून जृम्भय जृम्भय ह्रीं ॐ स्वाहा |
ॐ ह्रीं रौद्रि मम शत्रून संतापय संतापय ॐ ह्रीं स्वाहा |

|| इति बगला प्रत्यंगिरा कवच ||


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