Donate now


Omtva Blog


Meri Kalam Se Digital Diary Submit Post


ऋग्वेद अध्याय(04)


Read More

अध्याय – 4

 

  • ऋषि भरद्वाजो बृहस्पत्यः–
  • हे द्यावाधरा! महान कर्म वाले मनुष्यों को तुम जल प्रदान करती हो द्यावाघरा जल द्वारा अच्छादित है और जल का ही शरण करती है। वे विस्तीर्ण जल से ओत-प्रोत और जल वृष्टि का विधान करने वाली हो। अनुष्ठान करने वाले यजमान उनसे सुख माँगते हैं। जल का दोहन करने वाला अनुष्ठान, धन, कीर्ति,अन्न, शक्ति प्रदात्री द्यावाधरा हमें शहद से अभिषिक्त करे । हे पिता रुप स्वर्ग और माता रुप धरा, हमें अन्न प्रदान करो,  तुम जगत को जानने वाली सुखदात्री हो । हमें शक्ति, धन और अपत्य दो।

              सवितादेव श्रेष्ठकर्मी अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर जगत की सुरक्षा करते हैं। उन सविता देव के धन दान के लिए हम शक्ति पाऐं। हे सविता देव तुम सभी पशुओं और मनुष्यों की उत्पत्ति करने वाले हो हमारा मंगलमय हो। शांत ह्रदयवाले हस्त कीर्ति के योग्य सविता देव रात का अंत होने पर सचेस्ट होकर हविदाता के लिए अभिष्ट अन्न अभिप्रेरित करें।

              हे सवितादेव! तुम अपरिमित धन वाले हो, अतः हम वंदना द्वारा धन पाऐंगे। हे इन्द्रदेव और सोम! तुम उषा को उदियमान करो और ज्योति को उठाओ। अतंरिक्ष के द्वारा स्वर्ग को स्तम्भित करो और धरा को पूर्ण करो। हे इन्द्रदेव और सोम! जल को प्रवाह युक्त कर समुद्र को भर दो। तुमने धेनुओं में परिपक्व दुग्ध को रखा है, और विविध रंगोवाली धेनुओं के बीच श्वेत-श्वेत रंग (पानी वाले बादल) वाले दुध को ही धारण कराया है। हे इन्द्र और सोम देव! तुम हमें उद्धार करने वाला अपत्य युक्त धन प्रदान करो। तुम रिपु- सेना को अभिभूत करने वाली शक्ति की वृद्धि करो। बृहस्पति सबसे पहले रचित हुए और जिन्होने पर्वत को तोडा था, जो अंगिरा और अनुष्ठान जगत में भलीभाँति विचरणशील हैं, वही बृहस्पति स्वर्ग और धरा में घोर ध्वनी करते हैं। इन्हीं बृहस्पति ने राक्षसों के गोधन को जीता, यही बृहस्पति ने स्वर्ग के रिपुओं (दुश्मनों) को मंत्र द्वारा मृत किया। हे सोम और रुद्रदेव! हमारे शरीर की सुरक्षा के लिए औषधि धारण करो। हमारे पापों को दूरस्थ करो हमारे निकट महान धनुष तीक्ष्ण और बाण है। तुम सुन्दर वंदना की कामना करते हुए हमें सुख प्रदान करो। हमको वरुण पाश से भी स्वतंत्र करो।

  • ऋषि-पायुर्भरद्वाजः –
  • देवता वर्म धनु: –सारथी, रथ, प्रभृती युद्ध उपस्थित होने पर सम्राट जब लोह कवच को धारण करता है, तब वह बादल के तुल्य लगता है। हे राजन! तुम अहिंसक पराजित होकर भी जीतो। हम धनुष के प्रभाव से संग्राम को जीतकर धेनुओं को ग्रहण करेंगे। धनुष की डोरी युद्ध से पार लगाने के लिए प्रिय कवच कहती हुई कान के निकट पहुचती है। यह डोरी बाण से मिलकर ध्वनी करती है। धनुष कोटियाँ आक्रमण के वक्त माता पिता द्वारा पुत्र की सुरक्षा करने तुल्य सम्राट की सुरक्षा करें, और रिपुओं को विदीर्ण कर डालें। यह तूणिर बाणों के पिता तुल्य है। असंख्य बाण इनके पुत्र हैं। बाणों के निकलने के समय यह ध्वनी करता है। तब समस्त सेनाओं पर विजय प्राप्त करता है। हे ब्रह्मणों पितरों! तुम हमारे रक्षक बनो द्यावाधरा हमारा मंगल करें। पुषा पाप से बचाऐं। रिपु हमारे सम्राट न हों।

              हे मंत्र के द्वार तीक्ष्ण बाण। तुम वध मर्क में चतुर हो, अतः छोडे जाकर रिपुओं पर गिरो और उन्हें जीवित मत करो। जिस युद्ध में बाण गिरते है, उस युद्ध में बृहस्पति और अदिति सुख प्रदान करें । हे राजन! मैं तुम्हारे मर्म को कवच से ढँकता हूँ। सोम तुमको अमृत से ढँके और वरुण श्रेष्ठ सुख प्रदान करें। तुम्हारी जीत से देवता हर्षित होते हैं। जो बान्धव हमसे रुष्ट होकर हमें मृत करना चाहता है, उसे सभी हिंसित करें। यह मंत्र ही हमारे लिए कवच रुपी है।

  • ऋषिवशिष्ठ: –
  • हे अग्ने! धन के अधिश्वर होकर हम प्रतिदिन ही तुम्हारी प्राथना करते हुए हव्यादि देंगे। तुम देवों के निकट ये रमणिय हवियाँ पहुँचाओ क्योंकि समस्त देवता हमारे इस उत्तम अनुष्ठान में भाग ग्रहण करना चाहते हैं । हे अग्ने! हम संतान विहीन न हों, निकृष्ट परिधान न पहनें। हमारी मती का पतन ना हो हम क्षुधार्त न हों, राक्षस के हाथों में न पड़ें।

    वैश्वानर: हे अग्ने! तुम स्वर्ग के रुप से प्रकट होकर पवन के तुल्य सर्वप्रथम सोम पीते हो। जल को रचित करते हुए अन्न की इच्छा करने वालों की आशा बाँधते हुए बिजली के रुप में गर्जनशील बनते हो। हे अग्ने! रुद्रगण और वसुगण से युक्त आप हमारा मंगल किजिए।

              मैं उसकी प्रार्थना करता हूँ। जिन्होंने अपने आयुधों से आसुरी माया का पतन कर डाला और जिन्होंने उषा की उत्पत्ति की उस अग्नि ने प्रजा को अपनी शक्ति से रोका और सम्राट नहुष को कर देने वाला बना दिया। सुख के लिए समस्त पुरुष हव्य के संग पधारकर जिस अग्नि की इच्छा करते हैं, वे वैश्वानर अग्नि माता- पिता के तुल्य अम्बर-धरा के बीच ढृढ अंतरिक्ष मे प्रकट हुए हैं। सूर्य के उदित होने पर वैश्वानर अग्नि अंधकार को दूर करते हैं। समुद्र, अम्बर-धरा आदि समस्त जगहों का अंधकार समाप्त हो जाता है।

              हे अग्ने! तुम वसुओं के स्वामी हो। वशिष्ठ वंशज मुनिगण तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। आप हविदाता यजमान और वंदनकारी को अन्न से शीघ्र ही युक्त करें और हमारी सदैव रक्षा करें। हे अग्ने! हम धन के लिए मरुदगण, अश्विद्वय, जल, सरस्वती आदि समस्त देवों का अनुष्ठान करते हैं। वशिष्ठ तुम्हारी परिचर्या करते हैं। तुम कटुभाषी दैत्यों का शोषण करो। अनेक वंदनाओं से देवों को हर्षित करो और हमारी सुरक्षा करो।

              हे अग्ने! वसुगण से मिलकर इन्द्रदेव को पुकारो। इन्द्र से मिलकर रुद्र को आहूत करो। आदित्यों से सुसंगत होकर अदिति का आवाहन करो। अंगिराओं से सुसंगत होकर वरणीय बृहस्पति का आवाहन करो! कामना वाले मनुष्य प्रार्थना योग्य अग्नि की वंदना करते है। अग्नि रात्रि में शोभा-संम्पन्न होते हैं। देवयान में हवि प्रदान करने वाले सन्देशवाहक होते हैं।

    ऋत्विगण तीन-तीन सवनों (प्रहर) में आपके लिए हवि प्रदान करते हैं। आप हमारे इस अनुष्ठान में दूत होकर हव्य वहन करिये और रिपुओं से हमारी सुरक्षा कीजिए। महान अनुष्ठान के अधिश्वर अग्नि हवियों के मालिक हैं। वसुगण इनके कार्यों की प्रशंसा करते हैं।

    हे अग्ने! मित्रावरुणे भी तुम्हीं हो। वशिष्ठों ने तुम्हारा पूजन किया। तुम्हारे धन हमारे लिए आसानी से प्राप्त हो। तुम हमारे पोषक बनो। सूर्य रुप से तुम ही रचित हो। तुम सर्वत्र गमनशील हो। जब तुम प्राणघारियों का संदर्शन करो उस समय प्रार्थनाएँ तुम्हें ग्रहण हों हमारी सदैव सुरक्षा करो।

    हे इन्द्रदेव! आपके पास हमारी रमणीय प्रार्थनाएँ विचरण करती हैं। ज्ञानि वशिष्ठ उत्तम तृण वाली गृह में वास करने वाली धेनु के तुल्य श्लोक रुप बछडे की रचना करते हैं। समस्त प्राणधारी आपको धेनु का स्वामी मानते हैं। हे इन्द्रदेव! हमारी प्रार्थना की निकटता प्राप्त करो जिनके मारे जाने की इच्छा राक्षसगण करते हैं, उन वशिष्ठ, पाराशर आदि मुनियों ने आपकी प्रार्थना की थी। मैने आपकी प्रार्थना करके सुदास के सौ और दो रथ ग्रहण किये हैं। होता (याचक, सूर्य) के तुल्य मैं भी अनुष्ठान स्थल में पधारता हूँ। अम्बर  धरा में विशाल कीर्ति वाला सम्राट सुदास श्रेष्ठ कर्म वाले ब्राह्मणों को दान करता है। इन्द्रदेव के तुल्य उनके श्लोक किये जाते हैं। संग्राम में उपस्थित होने पर युष्यामधि नामक  रिपु को नदियों ने विनष्ट किया था। हे मरूद्‌गण! यह सम्राट सुदास के पिता है। आप इन्हीं के तुल्य सुदास की सुरक्षा करो। इनकी शक्ति क्षीण ना हो। आप इनके घर को भी सुरक्षित करें।

    हे इन्द्रदेव! तुम पूजनीय हो। तुमने मरूद्‌गण के सहयोग से असंख्य को मृत किया। दुभीति की सुरक्षा के लिए तुमने दस्यु, चुभुरि और धुनि को मृत किया। हे वज्रिन! तुमने शम्बर के निन्यानबे किलों को ध्वस्त किया और सौवें नगर को अपने निवास के लिए रखा और वृत्र तथा नमुचि को मृत किया।

    हे इन्द्र! तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करों और तुर्वशु तथा याध्द को अपने अधीन में कर लो। हे इन्द्रदेव! महान हवि द्वारा वंदनाओं ने तुम्हें हमारे प्रति हर्षित कर दिया है। तुम वंदनाकरियों की युद्ध भूमि में सुरक्षा करो और सदैव इनके सखा रहो। हमारे सदैव रक्षक बनो।

    वृत्र शोषण के लिए हम इन्द्रदेव को ग्रहण होते हैं। पराक्रमी इन्द्रदेव को शरण प्रदान करो। वे उसकी सुरक्षा करते हैं। उन्होंने सुदास के लिए नव निर्मित प्रदेश को दिया। हे इन्द्र! तुमने अपनी शक्ति से अम्बर-धरा को युक्त किया। जब तुम रिपुओं पर वज्रव्याप्त करते हो तब सोमरस के द्वारा तुम्हारी सेवा की जाती है। कश्यप ने इन्द्रदेव को संग्राम के लिए प्रकट किया। वे इन्द्रदेव मनुष्यों के स्वामी और सेना के नायक हैं। यही रिपुओं के संहारक, धेनु के खोजने वाले और वृत्र का पतन करने वाले हैं।

    हे वशिष्ठ! इस अनुष्ठान में इन्द्रदेव का पूजन करो। मैं उनकी सेवा में उपस्थित होना चाहता हूँ। वे मेरे आवाहन को सुनें। औषधियों की वृद्धि के समय में देवों की प्रार्थना की जाती है।

    हे इन्द्र! आपकी आयु का ज्ञाता हम पुरूषों में कोई भी नही है। इन्द्रदेव हमारी वंदनाएँ ग्रहण करते हैं। उनकी समृद्धि से अम्बर, धरा विद्यमान हुए है। इन्द्रदेव ने रिपुओं को समाप्त कर डाला है। हे इन्द्र! सोम आपके लिए हर्षकारक हो । आप वंदनाकारी को पुत्रवान बनाओ। इस अनुष्ठान में हमपर हर्षित हो जाओ। वशिष्ठों के इस श्लोक द्वारा इन्द्रदेव की उपासना की जाती है। वे वंदनीय होकर महान्‌ गवादि धन प्रदान करें और हमारा सदैव पोषण करते रहें।

    जो सोमरस इन्द्र के लिए प्रस्तुत नहीं होगा, उनमें संतुष्टि नहीं होती। (यहाँ सोम का अर्थ तन्मयता से है। प्यार से है।) हमारा उक्थ इन्द्रदेव का आराधक है, हम उसे इन्द्रदेव के लिए ही उच्चारित करते है। वंदना के समय प्रस्तुत सोम इन्द्रदेव को तृप्त करता है। जैसे पिता पुत्र को पुकारता है, वैसे ही ऋत्विकगण (स्तुति स्वीकारने वाले) सुरक्षा के लिए इन्द्रदेव को आहूत करते हैं।

    हे इन्द्र! जो आपकी बारम्बार प्रार्थना करते हैं, आप उनको धरा और स्वर्ग में विद्यमान करते हो। जो आपके लिए अनुष्ठान करता है, वह अयाज्ञिकों को मृत करने का बल पाता है।

  • ऋषि वशिष्ठ: वशिष्ठपुत्र: –
  • वशिष्ठ वंशज ऋषि अपने सिर के दक्षिण भाग में चूडामाणि धारण करते हैं। वे हम पर कृपादृष्टि रखें । वशिष्ठों ने नदी को पार किया और रिपु को मृत किया। हे वशिष्ठों! दशराज नामक संग्राम में आपके श्लोक पितरों को तृप्त करने वाले हैं। आप क्षीणता को ग्रहण न होना। हे वशिष्ठों! आपने महान्‌ ऋचाओं के द्वारा इन्द्रदेव से शक्ति को ग्रहण किया। भरतगण (प्रतृत्सु) रिपुओं से घिरे हुए और अल्पसंख्यक थे। जब वशिष्ठ उनके पंडित बने तब उनकी सतंती बढ़ोतरी को ग्रहण हुई। सूर्य, अग्नि, पवन, संसार को बल प्रदान करते हैं। उनकी आदित्य आदि श्रेष्ठ प्रजाएँ हैं, वे तीन उषाओं को प्रकट करते हैं, उन सभी के वशिष्ठ गण हैं। हे वशिष्ठों! तुम्हारा तेज सूर्य के तुल्य प्रकाशवान्‌ है। हे वशिष्ठों! जब तुम देह धारणार्थ अपनी दीप्ति को त्याग रहे थे, तब तुम्हें सखा वरूण ने देखा उस समय, तुम एक जन्म वाले बने। अगस्त्य भी तुम्हें वहाँ ले आये।

    हे वशिष्ठ! तुम उर्वशी के निकट मानसजन्म पुत्र सखा वरून की संतान हो। विश्वेदेवों ने तुमको पुष्कर मे श्लोक द्वारा धारण किया था। ज्ञानी वशिष्ठ दोनों जगत के ज्ञाता सर्वज्ञानी बने। यम द्वारा विशाल परिधान बुनने के लिए उर्वशी के द्वारा रचित हुए। अनुष्ठान मे पूजनीय सखा वरूण ने कुम्भ में अंकुर डाला। उसी से वशिष्ठ की रचना कही जाती है। हे प्रतृत्सुओं! वशिष्ठ तुम्हारे निकट आते है। तुम इनकी उपासना करो, यह वशिष्ठ समस्त कर्मों का उपदेश करने वाले हैं।

    हे अग्ने! हमारे रिपु पतन को प्राप्त हो। जैसे सूर्य समस्त जगत को तपाते हैं, वैसे देवों के कृपापात्र सम्राट सेनाओं से रिपु को तपापते हैं, जब देव नारियाँ हमारे सामने पधारें तब त्वष्टा देव हमें अपत्यवान करें।

  • ऋषि वशिष्ठः–
  • त्वष्टा हमारे श्लोक को सुनते हैं, वे हमारे लिए धन प्रदान करने की कृपा – दृष्टि करें। देवनारियाँ हमारे अभिष्ट को पूर्ण करें। अम्बर-धरा और वरून भी हमारी सुरक्षा करें। हम धारण याोग्य धन के रक्षक हों। सखा वरुण, इन्द्र, अग्नि, जल, औषधि, वृक्ष इत्यादि हमारी प्रार्थना को सुनें हम मरुदगण की शरण में सुखपर्वक रहें। तुम सदैव हमारा पोषण करो।

    विश्वेदेवा छंन्द में ऋषि वशिष्ठ सभी देवों की वंदना करते हुए कहते हैं कि हे इन्द्राग्ने! हमारी सुरक्षा के लिए शक्ति प्रदान करने वाले बनो। हे इन्द्रवरुण! यजमान ने हवि को दिया है, तुम मंगलकारी रहो। इंद्रदेव और सोम कल्याण कारक हों। इन्द्र और पूषा हमें सुखमय करें। भग देवता भी हमको सुखी करें। सत्य संकल्प के द्वारा हम सुख प्राप्त करें। अर्यमा हमारा मंगल करें, धाता, वरुण, धरा और सर्वज्ञ देव का आवाहन हमें सुख देने वाले बने। ज्वालामुखी हमारे लिए शीतल बने मित्रावरुण,अश्विदय, पवन और पुण्य कर्म समस्त हमारे लिए शांति देने वाले हों। द्यावाधरा, अतंरिक्ष, औषधियाँ, वृक्ष और जगत स्वामी इन्द्रदेव हमें शक्ति प्रदान करें।

    विश्वेदेवा, सरस्वती, यज्ञानुष्ठान, दान, धरा, अंबर, अंतरिक्ष, देवता, अश्वगण, धेनु, ऋभुगण हमें शक्ति प्रदान करने वाले हों। हमारे पितर भी हमें बल दें। अज, एकपाद, अहिर्बुधन्यदेव, समुद्र, अपान्नपात और पृश्नि हमें शक्ति प्रदान करें। इन नवीन श्लोकों को रचित हमने किया है। आदित्यगण, मरुदगण और वसुगण इनको सुनें।

    अम्बर-धरा तथा समस्त यज्ञीय देव हमारे आवाहन पर ध्यान आकृष्ट करें। हे देवों! मनुप्रजापति! अविनाशी और प्रत्यक्ष देव हमें पुत्र प्रदान करें और तुम हमारी सुरक्षा करो।

    सविता की प्रार्थना, अदिति, वरुण, सखा, अर्यमा, आदि देवता करते हैं। वे दानशील यजमान सविता की अराधाना करते हैं। अहिर्बुधन्यदेव हमारी प्रार्थना को सुनें और वाणी देवी हमारी समस्त तरह सुरक्षा करें।

    रक्षार्थ मैं दध्रिका (अस्वरुपी अग्नि) का आवाहन करता हूँ। अश्विद्वय, उषा, अग्नि, भग, इन्द्र, विष्णु, पूषा, ब्रह्मणस्पति, आदित्यागण, अम्बर-धरा, जल और सूर्य का आवाहन करता हूँ।

    यज्ञ के आरम्भ में दध्रिका का आवाहन करते हैं। दध्रिका का आवाहन करके अग्नि ऊषा, सूर्य और वाणी की प्रार्थना करता हूँ। वरुणदेव के घोडे का भी पूजन करता हूँ। समस्त देवता मुझे पापों से मुक्त करें। घोडों के मुख्य दध्रिका जानने योग्य बातों का ज्ञान करके उषा, सूर्य, आदित्यगण, वसुगण और अंगिराओं को साथ लाते हुए रथ अगले हिस्से में चलते हैं। वे अग्नि के तुल्य प्रकाशवान होकर हमको भी बल प्रदान करें।

    हे रुद्र! जो बिजली, अंतरिक्ष, धरा पर विचरण करती है, हमारा पतन नहीं करें । तुम हजारों औषधियों वाले हो। हे रुद्र! हमारी हिंसा न करना तुम हमें कीर्ति का भागीदार बनाओ और सदैव हमारा पोषण करो।

    जिन जलों से समुद्र बढोतरी करता है। वे जल प्रवाह परिपूर्ण हैं। जलदेवता अंतरिक्ष से आते हैं। इन्द्रदेव ने जिनको स्वतंत्र किया, वे जल हमारे रक्षक हों। जिन जलों में वरुण सोमपान करते हैं, उनसे और अन्न से विश्वदेवा हर्षित होते हैं और जिनमें वैश्वानर अग्नि का निवास है, वे जल- देवता हमारे रक्षक हों।

    वास्तोष्पती: (वनस्पती) हे वास्तोष्पते, हम तुमसे सुखकारक एवं समृद्धि-सम्पन्न स्थल पाएँ तुम हमारे धन की सुरक्षा करो, सदैव हमारा पोषण करो। हे देवों! वंदना करने वाले को भय मुक्त करो। हे अग्ने, वरुण सखा, अर्यमा और मरुदगण! तुम जिस यजमान को उत्तम मार्ग पर चलाओ, वह रिपु को समाप्त करता है। हे मरुदगण! हमारे कुश पर विराजमान हो कर धन दान के लिए यहाँ पधारो और हर्षकारी सोम का पान करो।

    हे अश्विद्वय! स्वर्ग की इच्छा करने वाले मनुष्य तुम्हारा आवाहन करते हैं। मैं वशिष्ठ भी तुम्हें सुरक्षा के लिए आहूत करता हूँ, तुम सभी के निकट गमन करने वाले हो । तुम जिस धन को धारण करते हो वह धन वंदना करने वाले को ग्रहण हो। तुम अपने रथ को यहाँ लाकर समान ह्रद्‌य से सोम पियो।

    इसी प्रकार वशिष्ठ ऋषि ने उषसः के बारे में अपने छन्द में लिखा है, हे उषे! तुम्हारा तेज सुर्येादय से पहले प्रकट होता है। अंगिराओं ने गूढ तेज को ग्रहण कर मंत्रों के द्वारा उषा को प्रकट किया ।वे अंगिरा ही देवों से सुसंगत बने । वे सुसंगत होकर धेनुओं के तुल्य बुद्धि वाले बने। हे उषे! वंदनाकारी वशिष्ठ – वंशज ऋषि तुम्हारी प्रार्थना करते हैं। तुम धेनुओं और अन्न की सुरक्षा करने वाली हो। तुम्हारी पहली वंदना की जाती है। वंदनकारी के श्लोकों का उषा नेतृत्व करती है। यह अंधकार को मिटाती है और वशिष्ठों के द्वारा पूजनीय होती है।

    हे उषे! वंदना करने वाले को अविनाशी अनुष्ठान दो, उन्हें गृह, अन्न और गवादि धन प्रदान करो। यथार्थवादिनी उषा हमारे रिपुओं को दूरस्थ करे।

    हे वरूण देव! हम मनुष्यों से जो देवों का अपराध हुआ हो या अज्ञानवश तुम्हारे कार्य में कमी रह गई हो, उन गलतियों के कारण हमारी हिंसा मत करना। और अपनी कृपा दृष्टि हम सभी प्राणियों पर बनाये रखना।

    हे इन्द्रदेव और वायु! उज्ज्वल रंग वाले पवन उन मनुष्यों को शरण देते हैं जिन्होंने उत्तम अपत्य प्राप्ति के लिए शक्ति रुप कार्यों को किया। जब तक तुम्हारी देह में शक्ति है तथा गति है, जब तक ज्ञान की शक्ति कर्मवान ज्योर्तिमान रहते हैं; तब तक तुम इन कुशों पर विराजमान होकर सोमपान करो।

    हे वशिष्ठ! नदियों मे अत्यंत तीव्र गति वाली सरस्वती की प्रार्थना करो। उन्हीं की उपासना करो। हे उज्ज्वल रंग वाली सरस्वती! तुम्हारी  कृपादृष्टि से अद्‌भुत और पार्थिव अन्न ग्रहण होते हैं। तुम हमारी सुरक्षा करो और हवि प्रदान करने वाले यजमानों  के निकट धन भेजो। सरस्वती हमारा कल्याण करें। वे हमें अच्छी बुद्धि दें। जमदग्नि के तुल्य मेरे द्वारा वंदित होने पर वशिष्ठ की प्रार्थना को प्राप्त करो। हम वंदना करने वाले स्त्री-पुत्र की इच्छा वाले हैं। हम सरस्वान देवताओं की वंदना करते हैं। हम सरस्वान देव के जलाधार को ग्रहण करें; वह देव सभी के दर्शन योग्य हैं। उनसे हम बढोतरी और अन्न को प्राप्त करें।
     

    जिस अनुष्ठान में समस्त सवनों में इन्द्रदेव के लिए सोामभिषव है, उस अनुष्ठान में सबसे पहले इंन्द्रदेव अपने घोडे से युक्त पधारें। हम देवों से सुरक्षा की विनती करते हैं। बृहस्पति हमारी हवि को प्राप्त करें। मैं उन ब्रह्मणस्पति को नमस्कार और हव्य अर्पण करता हूँ। जो श्लोक मंत्रो से उत्तम हैं, वही श्लोक इन्द्रदेव की सेवा करें। ब्रम्हणस्पति हमारी वेदी पर पधारें। ये हमारी अन्न और जल की इच्छओं को पूर्ण करें। हम जिन बाघाओं से घिरे हैं, वे उनसे पार लगायें। अविनाशी अन्न दें। हम अनुष्ठान योग्य बृहस्पति का आवाहन करते हैं।

    बृहस्पति के अनेक वाहन हैं। वंदनाकारी को वे वाहन प्रचुर अन्न ग्रहण कराते हैं। माता रुपी धावाधरा ब्रहस्पति को अपनी समृद्धि से बढ़ायें। सखा वरुण भी उन्हें बढ़ायें।वे जलों को अन्न के लिए द्रव रुप में कार्य करते हैं। संखा वरूण भी उनकी वृद्धि करें। तुम हमारे अनुष्ठान की सुरक्षा करो। हमारे आक्रमण करने वाली रिपुसेना (शत्रुओं की सेना) का पतन करो। हे बृहस्पति और इन्द्रदेव! तुम पार्थिव और अदभुत धन के स्वामी हो। वंदनाकारी को धन देने वाले हो। हमें भी अपने आर्शिवाद से कृतार्थ करो।

    देवता इन्द्रविष्णु विष्णुः हे इन्द्र और विष्णो! तुमने सूर्य अग्नि और उषा को प्रकट कर यजमान के लिए स्वर्ग की उत्पत्ति की है। तुमने युध्द क्षेत्र में दस्यु की माया का पतन किया है। हे इन्द्र विष्णो! तुमने शम्बर के निन्यानवे (99) नगरों को धवस्त किया और व्रचि के शत हजारों पराक्रमियों का पतन किया। वंदना इन्द्र और विष्णु की शक्ति को बढ़ाएगी। हे इन्द्र और विष्णुो! युध्द भूमि में तुम्हें अपर्ण किया है, तुम हमारे अन्न की बढोतरी करो। हे विष्णों! मैंने अनुष्ठान में प्रार्थना की है, तुम हमारे हव्य को स्वीकृत करो। और सदा अपने आशिर्वाद से परिपूर्ण करो और सदैव हमारा पोषण करो।

    विष्णुः जो विष्णु के लिए हवि देता है और मंत्रों के द्वारा उपासना को करता है, वह धन की इच्छ़ा करने वाला मनुष्य शीघ्र ही धन को पा जाता है। विष्णु ने धरा पर तीन बार चरण रखा प्रवृद्ध विष्णु हमारे भगवान हैं; वे अत्यंत तेजस्वी हैं। विष्णु ने धरा को निवास हेतु की कामना से पाद- प्रेक्षप किया और विशाल स्थल की उत्पत्ति की। हे विष्णो! हम तुम्हारे विख्यात नामों का कीर्तन करेंगे। तुम प्रवृद्ध की हम अप्रवृद्ध मनुष्य वंदना करेंगे। हे विष्णो! मैंने जो तुम्हारा सिपिविष्ट नाम किया, वह क्या उचित नहीं है? युद्धों में तुमने अनेक रुप धारण किए हैं। तुम उन रुपों को हमसे मत छिपाओ।

    इसी प्रकार ऋग्वेद के चारो अध्यायों में सभी ऋषियों ने अपने-अपने तरीके से सभी देवी-देवताओं की वंदना की है और सभी को एक-दूसरे का पूरक बताया है। इसमें इन्द्र और अग्नि के विषय पर ज्यादा जोर दिया है।


    Read Full Blog...


    ऋग्वेद अध्याय(03)


    Read More

    अध्याय – 3

     

  • ऋषि- विश्वामित्र: – 
  • यह छंन्द अग्नि को सर्मर्पित है। सदैवगतिमान अग्नि के लिए जिस उषाकाल में हवि प्रदान करते हुए अनुष्ठान किया जाता है वह उषाकाल सुसज्जित है। वह उषाकाल धन ऐश्वर्य से परिपूर्ण होकर प्रकाशयुक्त होता है।

              गुफा मे वास करने वाले रिपु और उनकी सेनाओं को पराजित करने वाली अग्नि को द्वेष शुन्य विश्वेदेवों ने ग्रहण किया।जैसे स्वेच्छाधारी पुत्र पिता को अपनी तरफ आकर्षित करता है। वैसे ही इच्छा पूर्वक रमे हुए अग्नि को मथकर मातारिश्वा देवों के लिए ले आये। हे अग्ने! हम समस्त इच्छित धनों को ग्रहण करें, समस्त देवगण तुममें ही बसे हुए हैं ।

              हे इन्द्राग्ने! तुम अद्‌भुत जगत को शोभायमान करते हो। संग्राम मे होने वाली विजय तुम्हारी ही शक्ति का फल है।

  • ऋषि-ऋषभो विश्वामित्रः–
  • हे अध्यवर्युओ! अग्नि के लिए प्रार्थना करो यह अग्नि देवों से युक्त पधारें । यजन करने वालों में सर्वोपरि अग्निदेव कुश के आसन पर विराजमान हों।

              हे अग्ने! हम अपने हाथों से आज तुम्हें श्रेष्ठ हवि देंगे। हमारे द्वारा देवों की उपासना करो। हे शक्ति उत्पन्न अग्ने! तुम्हारी रक्षण शक्ति यजमान को प्राप्त होती है। तुम्हीं से वह अन्न ग्रहण करता है। तुम हमारे प्रिय श्लोकों से हर्षित हुए अनेकों संस्था वाला धन प्रदान करो।

  • ऋषि-उत्कीलः कात्यः –
  • हे अग्ने! तुम जगत को सदा प्राचीन बनाते हो। तुम महान मतिवाले और ज्योर्तिमान हो। देवों के लिए तुम हमारे समस्त कार्यों को निर्दोष बनाओ। तुम रथ के तुल्य यहाँ रुककर देवों के लिए हमारी हवियाँ पहुँचाओ। क्षितिज और धरा को हमारे अनुष्ठान से व्याप्त करो। हे बलोत्पन्न अग्निदेव! तुम हमको रिपुओं से प़िडित़ न होने देना हम पराक्रम से शून्य न हों। पशुओं से पृथक एवं निन्दा के पात्र भी न हों। तुम हमसे रुष्ट न होना।

    हे वरणीय अग्निदेव! तुम अत्यंत वैभववान हमको सुख देनेवाला और अनुष्ठान से वृद्धि करने वाला धन प्रदान करो।

  • ऋषि- कतो विश्वामित्रः–
  • हे जन्म से मतिमान अग्निदेव! अनुष्ठान को मनु के तुल्य संपन्न करो। तुम्हारा अन्न, आज्य (पंचगव्य, घी), औषिधि और सोम, तीनों रूपों वाला है। हे मेधावी, तुम उनके युक्त देवों को हवियाँ प्रदान करो। तुम यजमानों को सुख और कल्याण ग्रहण कराने में समर्थ हो।

              हे अग्ने! सखा और माता-पिता के समान हितैशी बनो। हम पर प्रसन्न रहो। मैं धन कामना से तुम गतिमान और बलशाली को समिधा और धृत परिपूर्ण हवि प्रदान करता हूँ। तुम विश्वामित्र के वंशजो द्वारा वंदना किये जाकर उन्हें धन से संम्पन्न बनाओ अन्न प्रदान करते हुए आरोग्य और निर्भयता भी दो। हम तपस्वी बारम्बार तुम्हारी तपस्या करेंगे। वेदों मे सभी ऋषियों ने अग्नि को सर्वोपरिस्थान देते हुए उनकी वंदना की है।

  • ऋषि -कोशिको गाधीः–
  • हे अग्ने! अनुष्ठान में विराजमान मेधावी ऋषिगण तुम्हें होता कहते हैं। तुम हमारी सुरक्षा के लिए पधारो। हमारे पुत्रों को अन्नवान करो। दधिक्रावा, अग्नि, उषा, बृहस्पति, तेजस्वी सूर्य, दोनों अश्विनी कुमारों, भव, वसु और समस्त आदित्यों का इस यज्ञानुष्ठान में आवाहन करता हूँ।

              हे अग्ने! हम अत्यंत साररुप स्नेह तुम्हें प्रदान करेंगे हवि की जो बूंदें तुम्हारे लिए गिरती हैं उनमें से बाँटकर देवों को पहुँचाओ।

  • ऋषि देवश्रवा, देववतिश्च भारतो: –
  • यह प्राचीन रमणीय अग्निदेव दसों अंगुलियों द्वारा रचित होते है। हे देवश्रवा! अरणि से रचित, अदभुत पवन प्रकट हुए अग्निदेव का पूजन करो। ये अग्नि प्रार्थना करने वालों के ही वंश में होते हैं।

              हे अग्ने! तुम दृषद्वती, आपगा और सरस्वती इन तीनो नदियों के समीप निवास करने वालों के गृहों में धन से परिपूर्ण प्रदिप्त रहो।

              हे अग्ने! हमारे कुल की बढ़ोतरी वाला संतानोत्पादन में समर्थवान पुत्र हमको प्रदान करो, हम आपके कृतज्ञ रहेंगे।

  • ऋषि-विश्वामित्रः–
  • हे अग्ने! हम हवि प्रदान करने वालों को पौरुष से परिपूर्ण धन प्रदान करो। हम धन, संतान परिपूर्ण हों, हमारी बढ़ोतरी हो।

              हम कोशिक जन धन की कामना से हवि संगठित करते हुए वैश्वानर अग्नि का आवाहन करते हैं। उज्जवल रंगवाले वैश्वानर, बिजलीरुप अनुष्ठान में शरण ग्रहण करने के लिए हम आहूत करते हैं।

              मैं अग्नि जन्म से ही मेधावी हूँ। अपने रुप को भी अपने- आप प्रकट करता हूँ। रोशनी मेरी आँखे हैं। जीभ में अमृत है। मैं विविध प्राण परिपूर्ण एवं अंतरिक्ष का मापक हूँ मेरे तार का कभी क्षय नहीं होता। मैं ही साक्षात हवि हूँ।

    सुन्दर प्रकाश को मन से जानने वाले अग्नि देव, पवन ने सूर्य रुप धारण कर अपने को समर्थ बनाया। अग्नि ने इन रुपों में प्रकट होकर अम्बर-धरा के दर्शन किए थे।

              हे ऋत्विजो, स्रुक- परिपूर्ण हवि वाले देवता मास, अर्द्धमास, आदि यजमान को सुखी करने के लिए अभिलाषी हैं। वह यजमान देवों की कृपादृष्टि ग्रहण करता है। अनुष्ठान सम्पन्नकर्ता, प्रज्ञावान, समृद्धिवान, गतिशील अग्निदेव को मैं श्लोकों से युक्त पूजता हूँ। कार्यो के द्वारा वरण करने योग्य भातों के कारण रुप पिता -तुल्य अग्निदेव को दक्षपुत्री (धरा) धारण करती है।

              हे शक्ति रचित अग्निदेव! तुम महान दिप्ति वाले, हवियों की अभीलाषा वाले और वरण करने योग्य हो तुम्हें दक्षपुत्री इला धारण करती है।

              हे ज्ञानवान अध्यावर्युओं! ऊर्ध्ववाली अरणी पर नीचे मुख वाली अरणि को रखो। अतिशीघ्र उष्ण होने वाली अरणि ने इच्छाओं की वृष्टि करने वाले अग्निदेव को प्रकट किया। उस अग्नि में दाहक गुण था । श्रेठ दीप्ति वाले इला पुत्र अग्नि अऱणि द्वारा रचित हुए।

              हे विज्ञानी अग्निदेव! हम तुम्हें धरा की नाभी रुप उत्तर वेदी में वहन करने के लिए विद्यमान करते हैं।

              हे अग्ने! काष्ठवाली अरणी तुम्हारा प्राकट्य- स्थल है। तुम इसमे प्रकट होकर सुशोभित हो। (जिस अग्नि का विशाल रुप कभी नही होता, उसे तनुनपात कहते हैं। जब वह साक्षात होते हैं, तब वह आसुर और नारशंस कहलाते हैं। और जब अंतरिक्ष में अपने तेज को व्याप्त करते हैं, तब मातरिश्वा कहलाते हैं। जब वह प्रकट होते हैं तब पवन के समान होते हैं।)

    रिपुओं से मरुदगण के तुल्य द्वन्द करने वाले ब्रह्मा द्वारा पहले रचित कोशिक ऋषियों ने संम्पूर्ण जगत को जाना। वे अपने गृह में अग्नि को ज्योर्तिमान करते और उनके प्रति हवि प्रदान करते हुए वंदनाए करते हैं। इसी प्रकार इंन्द्र की वंदना करते हुए विश्वामित्र कहते हैं, तुमने अनन्त व्यापक और गतिमान धरा को दृढ किया था। तुमने अम्बर और अंतरिक्ष को ऐसे धारण किया जिसमें वह गिर न सके। हे इन्द्रदेव! तुम्हारी शिक्षा से जल धारा को ग्रहण हो । इन्द्रदेव से ही सूर्य शिक्षा पाते हैं। ज्योर्तिमान दिशाओं में रोज विचरण करते हैं। इस प्रकार असंख्य महान कर्म इन्द्रदेव के ही हैं।

    इंद्रदेव ने महान गुण वाले जल को नदियों से संयुक्त किया,  इंद्रदेव ने अत्यंत स्वादिष्ट दही, खीर, भोजन को जलरुप धेनु में धारण किया, वह सब प्रसूता धेनुएँ दुग्धवती हुई विचरण करती हैं।

              हे इंन्द्रदेव! स्वर्ग की इच्छा वाले तथा सुख प्राप्ति की कामना वाले कर्मवान कोशिकों ने महान मन्त्रों से तुम्हारी प्रार्थना की है ।

    इंन्द्रदेव के लिए अंगिराओं ने अपने पवित्र एंव उज्ज्वल श्रेष्ठ स्थान का संस्कार किया। श्रेष्ठ कर्म वाले अगिराओं ने इंद्रदेव के योग्य इस सुन्दर स्थल को दिखाया। उन्होंने अनुष्ठान मे विराजमान होकर अम्बर-धरा के बीच अंतरिक्ष रुप खम्भे का आरोपण कर इंन्द्रदेव को स्वर्ग में विद्यमान किया था ।

    इंन्द्रदेव ने भलीभाँति विचार कर मित्रों को भूमि और स्वर्ण रुप धन प्रदान किया फिर उन्होंने गवादि धन भी प्रदान किया।वे अत्यंत तेजस्वी है। उन्होंने ही मुरूदगण, सूर्य, उषा, धरा और अग्नि को प्रकट किया है।

    हे इंन्द्रदेव! तुम प्राचीन हो। अगिंराओं के तुल्य मैं तुम्हारा पूजन करता हूँ। मैं तुम्हारे लिए नयी वंदनाएँ प्रस्तुत करता हूँ। हे इन्द्रदेव! दुग्घादि से परिपूर्ण संस्कारित नवीन सोम का पान करो।

    इसी प्रकार जल (नदियों)को समर्पित यह छंन्द है इसमें विश्वामित्र कहते हैं, जल से परिपूर्ण प्रवाह वाली विपाशा और शतद्रु नदियों इन्द्रदेव तुम्हें शिक्षा प्रदान करते हैं। जननी के तुल्य सिंन्धु नदी और उत्तम सौभाग्यशाली विपाशा नदी को ग्रहण होता है। ये नदी जल से पूर्ण हुई भूमि प्रदेशों को सिंचित करती हुई परमात्मा के रचित स्थल पर चलती है। इनकी चाल कभी रुकती नहीं हम इन नदियों के अनुकूल होते ही ग्रहण होते है।

    हे जल से परिपूर्ण नदियों, मेरे सोम सम्पन्नता के कर्म की बात सुनने के लिए एक क्षण के लिए चलते- चलते रुक जाओ। मैं कुशिक पुत्र विश्वामित्र बृहत वंदना से हर्षित और अपनी अभिष्ट पूर्ति के लिए इन नदियों का आवाहन करता हूँ ।

    हे इन्द्रदेव! यह निष्पन्न सोम सभी के लिए वरण करने योग्य है। इसे अपने उदर में रखो यह अत्यंत उज्ज्वल सोमरस तुम्हारे स्वर्ग मे वास करता है।

    हे इंन्द्रदेव! तुम प्राचीन हो। हम कोशिक वंशी ऋषिगण तुम्हारे द्वारा रक्षा साधन ग्रहण करने की इच्छा करते हुए, इस संस्कारित सोम का पान करने के लिए सुन्दर, प्रार्थना रुप वाणी से तुम्हारा आवाहन करते हैं।

    हे इंन्द्रदेव! मुझे मनुष्यों की सुरक्षा करने की सामर्थ्य प्रदान करो। तुम परिपूर्ण रहते हो मुझे सभी का अधिपत्य पधिपत्य प्रदान करो। मुझे ऋषि बनाओ और सोम पीने के योग्य बनाते हुऐ कभी भी क्षय न होने वाला धन प्रदान करो।

             तुमने रचित होते ही प्यास लगने पर पर्वत पर स्थित सोमलता का रसपान किया था। तुम्हारी जननी आदिती ने तुम्हारे पिता कश्यप के घर में स्तन पिलाने से पूर्व सोमरस को तुम्हारे मुख में डाल दिया था। 

     

    इंन्द्रदेव ने जननी से अन्न्‌ माँगा । तब उन्होंने सभी के स्तन में दुग्ध रुप उज्ज्वल सोम का दर्शन किया ।

    हे वंदना करने वाले, इंन्द्रदेव श्रेष्ठ है, उनकी प्रार्थना करो। इंन्द्रदेव द्वारा रक्षित हुए समस्त मनुष्य यज्ञ में सोमपान करते हुए इच्छित फल प्राप्त करते हैं, देवगण, अम्बर और धरा के लिए ब्रह्म द्वारा जगत के स्वामी बनाये गये श्रेष्ठ कार्य वाले पाप विनाशक इन्द्रदेव को प्रकट किया ।

    इन्द्रदेव का अनुशासन मनुष्यों में व्यापक है। उनके लिए ही धरा श्रेष्ठ समृद्धि धारण करती है। इन्द्रदेव के आदेश से सूर्य, औषधियों, मनुष्यों और वृक्षों के उपभोग के लिए अन्न की सुरक्षा करते हैं।

    विश्वामित्र के वंशजों ने वज्रधारी इंन्द्रदेव का पूजन किया है। वे इंन्द्रदेव हमको धन से सुशोभित करें ।

    विश्वेदेवा: – इस छन्द में ऋषि कहते हैं, धन का कारण भूत यह श्लोक और अर्चना के योग्य हवि इस श्रेष्ठ अनुष्ठान में बहुत कार्य करने वाले विष्णु को प्राप्त हो सभी को रचित करने वाली दिशायें जिन विष्णु को समाप्त नहीं कर सकतीं। वे विष्णु अत्यंन्त सामर्थ्यवान हैं। उन्होंने अपने एक पैर से समस्त जगत को ढँक लिया था।

    जैसे, सूर्य, क्षितिज और धरा के बीच उनकी सामर्थ है, वैसे ही देवों के सन्देशवाहक प्राणिमात्र का पोषण करने वाले अग्नि औषधियों में व्याप्त हैं, विविध रुप धारी हमको अत्यंन्त कृपादृष्टि से देखें। समस्त देवताओं की श्रेष्ठ शक्ति एक ही है।

    धरा और अम्बर दोनों ही माता और पुत्री के तुल्य हैं। धरा समस्त जीवों को रचित करके उनका पालन करने के कारण जननी तथा क्षितिज से वृष्टि के जल को दुग्ध के तुल्य प्राप्त करने के कारण पुत्री रुप है।

    एक संवत्सर वसन्तादि ऋतुओं को धारण करता है। सत्व के आधारभूत सूर्य से परिपूर्ण संवत्सर को किरणें ग्रहण करती हैं। तीनों जगत ऊपर ही स्थिर है। स्वर्ग और अंतरिक्ष गुफा में छिपे है। केवल धरा ही प्रत्यक्ष है।

    हे नदियों, त्रिगुणात्मक और त्रिस्ंख्यक जगत में देवता वास करते है। जगत-त्रय के रचनाकार सूर्य अनुष्ठान के भी मालिक हैं। अंतरिक्ष से चलनेवाली जलवती इला, सरस्वती और भारती अनुष्ठानों के तीनों सवनों मे रहे।

    वे सवितादेव सवन में तीन बार हमको समृद्धि प्रदान करें। कल्याण रुप हाथवाले राजा, सखा और वरुण, अम्बर-घरा तथा अंतरिक्ष आदि देवता सवितादेव से समृद्धि -वृद्धि की विनती करें।

    हे ऋभुओं! तुम सुधन्वा के वंशज हो, तुम इन्द्रदेव के संग एक ही रथ पर चढव़र सोम सिद्ध करने वाले स्थल में जाओं फिर मनुष्यों के श्लोकों को स्वीकृत करो।

    हे इन्द्रदेव! तुम इन्द्राणी- सहित तथा ऋभुओं से परिपूर्ण होकर हमारे तीसरे सवन में आनंद का लाभ प्राप्त करो। हे इन्द्र! दिवस के तीनों सवनों में यह सवन तुम्हारे सोम पीने के लिए निश्चित है। वैसे देवों के भी प्रति और मनुष्यों के समस्त कर्मो द्वारा सभी दिन तुम्हारी अर्चना के लिए महान है।

    हे अग्ने! ऊषा तुम्हारे सम्मुख आती है। तुम उससे हवि की विनती करते हुए सुखाकारक धनों को पाते हो।

    इसी प्रकार ऋषि विश्वामित्र ने अपने छंदों में देवता इन्द्रावरुणौ, बृहस्पति, पुषा, सविता, सोम, मित्रावरुणो; सभी के लिए वंदना की है।

  • ऋषि वामदेव गौतमः–
  • ऋषि वामदेव ने अग्नि की वदंना मे बहुत सारे छंद लिखे हैं। 

    ऋषि कहते हैं, हे अग्ने! तुम हमारी संतान को सुख प्रदान करो और हमको कल्याण प्रदान करो।

    अग्नि के तीनो रुप- अग्नि, पवन और सूर्य विख्यात एंव महान हैं। अनन्त अंम्बर में अपने तेज से व्याप्त सभी को पवित्र करने वाले, ज्योति से परिपूर्ण और अत्यंत तेजस्वी अग्नि हमारे अनुष्ठान को ग्रहण करें।

    हे अग्ने! वंदना करने वाले अंगिरा आदि ऋषि्यों ने वाणी रुपिणी जननी से रचित वंदनाओं के साधन को शब्दों मे पहली बार ज्ञान ग्रहण किया, फिर सत्ताईस छन्दों को जाना। इसके बाद इसके जाननेवाली उषा की प्रार्थना की और तभी आदित्य के तेज -परिपूर्ण अरुण रंग वाली उषा का अविर्भाव हुआ।

    रात्रि के द्वारा रचित अंधकार उषा के मार्गदर्शन से ढृढ हुआ, फिर अंन्तरिक्ष ज्योर्तिमान हुआ। उषा की ज्योति प्रकट हुई। फिर मनुष्यों के सत्यासत्य कार्येा को देखने मे समर्थवान आदित्य सुदृढ पर्वत पर चढ़ गये।

    सूर्य के उदित होने पर, अंगिरा आदि ऋषियों ने पाणियों के द्वारा चुरायी गई धेनुओं को जाना तथा पीछे से उन्हें भलिभाँति देखा।

    हे सखा की भावना से ओत-प्रोत अग्निदेव! तुम वरुण के गुस्से को शांत करनेवाले हो। तुम्हारी उपासना करने वाले को फल की प्राप्ति हो।

    हे अग्ने! तुम्हारे अश्व, रथ, एंव समृद्धि सभी में उत्तम है। अर्यमा, वरुण, सखा, इन्द्र, विष्णु, मरुदगण तथा दोनो अश्विनी कुमारों को हविपरिपूर्ण यजमानों के लिए हम मनुष्यों के बीच पुकारो ।

    हे अग्ने! जिस कारण़ से तुम्हारी हम कामना करते हुए हाथ-पैर तथा शरीर को कार्यरत करते हैं, उसी शरीर के कारण उस अनुष्ठान – कार्य में सलंग्न हुए अंगिरा आदि ऋषियों ने हाथों से अरणी मंथन द्वारा शिल्पों के पथ- निर्माण करने के समान तुम्हें सत्य के कारण रुप को प्रकट किया । हम सात विप्र आरम्भिक मेधावी है। हमको माता रुप ऊषा के आरम्भिक काल में अग्ने ने रचित किया है। हम ज्योर्तिमान,आदित्य के पुत्र अंगिरा हैं। हम तेजस्वी होकर जल से पूर्ण बादलों को विदीर्ण करेंगे।

    हे अग्ने! हमारे पितरों ने महान परम्परागत और सत्य के कारण रुप अनुष्ठान कार्यों को करके उत्तम पद तथा तेज को प्राप्त किया । उन्होंने उक्थों के द्वारा अंधकार का पतन किया और पाणियों अपहत धेनुओं को खोज निकाला।

    हे अग्ने! हम तुम्हारी अर्चना करते हैं, उसी से हम महान कर्म वाले बनते हैं। तुम महान हो। हम तुम्हारे लिए श्लोकों का उच्चारण करते हैं, तुम हमको ग्रहण करो। हमें उत्तम धन प्रदान करो। महान गृह में श्रेष्ठ निवास हमको प्रदान करो।

    वैश्वानर: – जिन अग्निदेव की दुग्ध देने वाली धेनु, अनुष्ठान आदि शुभ कार्य में सेवा करती है, जो अग्नि अपने – आप में ज्योर्तिमान है, जो गुफा मे वासित है, जो शीघ्र गतिमान एंव वेगवान है। वे महान पूजनीय है। सूर्यमंडल में विद्यमान उन वेश्वानर अग्नि को हम भलीभाँति जानते हैं।

    हे अग्ने! तुम प्राचीन हो। अत्यंत मेधावी हो, महान एवं देवों के संदेशवाहक हो तुम देवों के लिए हवि पहुँचाने के लिए स्वर्ग के उच्चतम स्थान को भी ग्रहण करो । तुम्हारी प्राप्ति के लिए, तुम्हारी रचना के कारण काष्ठ को प्राप्त किया जाता है और तुम रचित होते ही यजमान के दूत बन जाते हो। अरणियों को मथने के बाद देखते हैं। रचित होने वाले अग्नि के तेज को ऋत्विज आदि ही देखते हैं।

    अग्नि श्रेष्ठ है। वे जल्द विचरण करने वाले संदेश वाहाक बन जाते हैं। वे काष्ठों को जलाकर पवन के साथ मिश्रित हो जाते हैं। जैसे अश्वरोही अपने घोडे को पुष्ठ करते हैं और शिक्षा देते हैं।

    वे लिखते हैं, हे अश्विनी कुमारो! तुम दोनों उज्जवल कांन्तिवाले हो। सहदेव के पुत्र राजा सोमक को तुम दीर्घ आयु प्रदान करो ।

    हे इंन्द्रदेव! तुम पराक्रमी हो। तपस्वीगण उन इंन्द्रदेव का सुन्दर आवाहन करते हैं। हे इंनद्रदेव! मनुष्यो द्वारा होने वाले संग्राम में हमारे मध्य तीक्ष्ण वज्रपात हो या रिपुओं से हमारा अत्यंत घोर युद्ध हो, हमारी देह को अपने नियंत्रण में रखते हुए प्रत्येक तरह से हमारी रक्षा करना।

    इन्द्रादिती! यह रास्ता अनादि काल से चलता आ रहा है जिसके द्वारा विभिन्न भोगों और एक-दूसरे को चाहने वाले नर – नारी ज्ञानी जन आदि रचित होते हैं। उच्चस्थ पदवी वाले समर्थवान व्यक्ति भी इस परम्परागत रास्ते में ही रचित होते हैं। मनुष्यों अपनी जननी माता का अनादर करने का प्रयास न करो।

    हे इन्द्रदेव! जैसे माताएँ पुत्र के निकट जाती हैं, वैसे ही मरुतगण तुम्हारे निकट गये थे। वैसे ही वृत पतन के लिए तुम्हारे पास पहुँचा था, तुमने नदियों को जल से युक्त कर डाला। बादलों को विदीर्ण कर वृत द्वारा रोके हुए जल को गिरा दिया।

    हे इंन्द्रदेव! हम तुम्हारे लिए नवीन श्लोकों को कहते हैं, जिसके द्वारा हम रथीवान्‌ बनें तुम्हारी वंदना और परीचर्या करते रहें।

    हे इन्द्रदेव! तुम प्रार्थना के पात्र हो। तुम जिन शक्तियों को प्रकट करते हो तुम्हारी उन्हीं शक्तियों को मेधावीजन सोम के सिद्ध होने पर उच्चराण करते हैं। हे इन्द्रदेव! श्लोकों को वहन करने वाले गोतम -वंशज श्लोक से तुम्हे बढोतरी करते है। तुम उन्हें पुत्रादि से परिपूर्ण अन्न्‌ प्रदान करो।

    हे इंन्द्रदेव! तुम हमारे पुरोडाश का सेवन करो । जैसे पुरूष स्त्रीयों के संकल्पों को सुनता है उसी प्रकार तुम हमारे संकल्पों को ध्यान से सुनो।

    उस पुरुष रुप वाले ऋभुओं ( दिमागदार,होशियार) ने जो कहा वही किया। उनका कथन सत्य बना। फिर वे ऋभुगण तीसरे सवन में स्वधा के अधिकारी बने। दिन के तुल्य ज्योर्तिमान चार चमसों को देखकर त्वष्टा ने कामना करते हुए प्राप्त किया। प्रत्यक्ष ज्योर्तिमान सूर्य के जगत में जब वे ऋभुगण आर्द्रा से वृष्टि कारक बारह नक्षत्रों तक अतिथी रुप में रहते हैं। तब वे वृष्टि द्वारा कृषि को धान्य पूर्ण करते और नदियों को प्रवहमान बनाते हैं। जल से पृथक स्थल में औषधियाँ रचित होती हैं और निचले स्थलों में जल भरा रहता है। उत्तम कार्य वाले छोटे-बडे ऋभु इंन्द्र से संबंधित बने। जिन ऋभुओं ने दो अश्वों को बढोतरी प्रशंसा द्वारा संतुष्ट किया, वह ऋभु हमारे लिए कल्याण कारक मित्र के तुल्य धन, जल, ग्वादि और समस्त सुख प्रदान करें। चमस आदि के बनने के बाद देवों ने तीसरे सवन में तुम्हारे लिए सोमपान से रचित हर्ष प्रदान किया था। देवगण तपस्वी के अलावा किसी अन्य के सखा नहीं बनते । हे ऋभुओं! इस तीसरे सवन में तुम हमारे लिए अवश्य ही फल प्रदान करो।

    हे ऋभुगण! तुम अन्न के स्वामी हो। जो यजमान तुम्हारे आनन्द के लिए दिवस के अन्तिम दिन के अंतिम समय को छानता है, उस यजमान के लिए तुम श्रेष्ठ अभिष्ट वर्षी होते हुए अनेक अनेक संतान परिपूर्ण धन के देनेवाले होते हैं। हे अश्ववान इन्द्रदेव! सुसिद्ध सोम प्राप्त सवन में केवल तुम्हारे लिए ही है । हे इन्द्रदेव! अपने उत्तम कर्म द्वारा तुमने जिनके संग मित्रता स्थापित की, उन रत्न दान करने वाले ऋभुगण युक्त तीसरे सवन में सोम पान करो। हे ऋभुगण! तुमने अपने उत्तम कार्यों से देवत्व ग्रहण किया। तुम श्येन के तुल्य क्षीतिज में ग्रहण हो। हे सुधन्वा पुत्रो! तुम अनरत्व ग्रहण कर चुके हो, हमें धन प्रदान करो। हे ऋभुओं, तुम महान हो, हस्त कला से परिपूर्ण हो। तुम सुन्दर सोम परिपूर्ण तीसरे सवन को महान कार्यों की कामना से सुसिद्ध करते हो। अतः हर्षित हृद्‌य से सोम का पान करो।

    हे ऋभुओं! तुमने एक चमस के चार हिस्से किये। अपने उत्तम कार्य से धेनु को चमडे से ढ़का इसलिए तुमने देवों का अविनाशी पद ग्रहण किया। तुम्हारे समस्त कार्य प्रार्थना के योग्य हैं।

    हे मित्रवरुण! तुम देदिप्यमान अग्नि के तुल्य दुःखो के पार लगाने वाले दध्रिका (अश्वरुपी अग्नि ) मनुष्यों की भलाई के लिए धारण करने वाले हो। जो यजमान उषा काल में अग्नि प्रज्वलित होने पर घोडे रुप दध्रिका का पूजन करते हैं, उनको सखा, वरुण, अदिति और दध्रिका पापों से बचाएँ । तुम पुरुषों को शिक्षा प्रदान करने वाले अश्व के रुप वाले दध्रिका देव को हमारे लिए धारण करो । उन दध्रिका देव की हम बारम्बार उपासना करेंगे। समस्त उषाएँ हमको कार्यों में संल्गन करें । जल, अग्नि, उषा, सूर्य, बृहस्पति, अंगिरा वंशज और विष्णु का हम संमर्थन करेंगे ।

    श्येन ( बाझ पक्षी ) के तुल्य शीघ्रगामी  एंव सुरक्षा करने वाले दघिक्रा (अश्वरुपी अग्नि) के समस्त तरफ संगठित होकर समस्त अन्न के लिए जाते हैं। यह देव अश्वरुप वाले हैं। यह काष्ठ कक्ष और मुख बँधे हुए होते हैं और पैदल ही तेजी से चलते हैं। अव्यवस्थित अम्बर में पवन अंतरिक्ष में और होता अनुष्ठान आदि पर आते हैं। अदिति के तुल्य पूजनीय होकर गृह में वास करते हैं, ऋतु पुरुषों में रमणीय स्थल तथा अनुष्ठान – स्थान में रहते है। वे जल रश्मि, सत्य और पर्वत में रचित हुए हैं।

    हे प्रसिद्ध इन्द्र और वरुण देवता, हम वंदना करने वालों को सुन्दर धन प्राप्त कराने वाले बनो ।

  • ऋषि- परुमीढाजमीढौ सौहात्रौ: –
  • हे अश्विनी कुमारो! जिनका सूर्य की पुत्री सुर्या ने आदर किया था, वो कोई और नही अश्विनी कुमार हैं। हे अश्विनी कुमारो! रात्रि के अवसान होने पर इन्द्रदेव जैसे अपनी व़ीरता दिखाते हैं, वैसे ही तुम दोनों सौभाभिषव़ के समय पधारो।

    हे अश्विनी कुमारो! तुम्हारा रथ अम्बर से चतुर्दिक अधिकाधिक विचरणशील है। यह समुद्र में भी चलता है। तुम्हारे लिए परिपक्व जौ के तुल्य सोमरस मिश्रित हुआ है। तुम मृदुजल के रचित करने वाले हो और रिपुओं का पतन करने में समर्थवान हो। यह अध्वर्य तुम्हारे लिए सोमरस में दुग्ध मिला रहे हैं। बादल द्वारा तुम्हारे घोड़ों को अभिषिक्त किया गया है। ज्योति में ज्योर्तिमान ये तुम्हारे घोड़े पक्षियों के तुल्य है। जिस रथ के द्वारा तुम दोनों ने सूर्या की सुरक्षा की थी, तुम दोनों का वह विख्यात रथ शीघ्रता से चलने वाला है तुम शोभन अन्न से परिपूर्ण हो। हम वंदनकारियों के रक्षक बनो। हमारी इच्छा तुम्हारे पास पहुँचते ही पूर्ण हो जाती है।

    हे अश्विनी कुमारो! तुम अपने स्वर्ग-परिपूर्ण रथ से युक्त इस अनुष्ठान में पधारो और मधुर-मधुर सोमरस का पान करो। हम तपस्वियों को सुन्दर धन प्रदान करो।

    मुझ पुरुम़ीढ के तपस्वियों ने अपने श्लोक की शक्ति से तुमको यहाँ पुकारा उस सुन्दर श्लोक के द्वारा हमारे लिए फलवाले बनो।

     

  • ऋषि- वामदेवः–
  • सूर्य उदित हो रहे हैं। अश्विनी कुमारों का महान रथ सभी और विचरण करता है। वह तेजस्वी रथ सर से जुडा रहता है। इस रथ के ऊपरी तरफ विविध अन्न है तथा सोमरस से भरा चरम (पात्र) चतुर्थ रुप से सुशोभित है।

    हे इंन्द्रवायु! स्वर्ग में स्थान बनाने वाले अनुष्ठान में इस अभिषूत सोमरस का पान करो, क्योंकि तुम सबसे पहले सोमरस का पान करने वाले हो। हे वायो! हे इन्द्रदेव! आप दोनों सोमरस के द्वारा तृप्त हो जाओ। हे इंन्द्रवायु! इस अनुष्ठान में तुम्हें सोमपान कराने के लिए घोड़े खोल दिए जायें। आप दोनों इस अनुष्ठान स्थान में जाओ।

    हे वायो! रिपुओं को कम्पित करने वाले सम्राट के तुल्य तुम अन्य के द्वारा व पान किए गये सोमरस को पूर्व ही पान करो और प्रार्थना करने वालों के लिए धनों को ग्रहण करवाओ।

    हे इन्द्र और बृहस्पते! हवि प्रदान करने वाले यजमान के गृह में निवास करते हुए आप दोनों सोमपान करके बलिष्ठ हो जाओ।

    जिसके पास बृहस्पति सर्वप्रथम पधारते हैं, वह सम्राट संतुष्ट होकर अपनी जगह में रहते हैं। जो सम्राट सुरक्षा चाहने वाले धनहीन विद्वान को धन प्रदान करता है, वह रिपुओं के धन का विजेता होता है। देवता सदैव उसके रक्षक होते हैं। हे बृहस्पते! तुम और इन्द्रदेव दोनो ही अनुष्ठान में हर्षित होकर यजमानों को धन दो। यह सोमरस सर्वव्यापक है, यह तुम्हारी देहों में प्रविष्ट है। तुम दोनो ही हमारे लिए संतान से परिपूर्ण रमणिय धन को प्रदान करो हमारे इस अनुष्ठान की तुम दोनों ही सुरक्षा करो। वंदना से चैतन्य को ग्रहण करो।

    सप्त ऋषियों से जुडी जानकारी

    सात तारों का जो मण्डल है वह सप्तऋषियों के नाम पर है। इन सप्तऋषियों के विषय में अलग- अलग ग्रंथों में मतभेद भी बताए गए हैं।

    (1) सबसे पहले ऋषि वशिष्ठ हैं। और ये राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के गुरु थे।

    (2) दूसरे विश्वामित्र, उन्होंने ही गायत्री मंत्र की रचना की है।

    (3) तीसरे कण्व ऋषि हैं, इन्होंने ही दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत का पालन         पोषण किया था।

    (4) चौथे नंम्बर पर के ऋषि भारद्वाज हैं, इनके पिता बृहस्पति और माता ममता थीं।

    (5) पाँचवें स्थान पर अत्रि हैं, ये ब्रह्मा के पुत्र और सोम के पिता हैं, और अनुसुया के पति हैं।

    (6) छठे नम्बर पर ऋषि वामदेव हैं, ये गौतम ऋषि के पुत्र हैं। और सामदेव की रचना इन्होंनें की है ।

    (7) सातवें नम्बर के ऋषि शोनक हैं। इन्होंने 10,000 (दस हजार) विद्यार्थीयों का गुरुकुल स्थापित कर कुलपती होने का गौरव प्राप्त किया । ऐसा इन्होंने पहली बार किया था। इससे पहले  ऐसा किसी ने नही किया था।

    महत्वपूर्ण जानकारी

     स्वयंभू मनु के काल के ऋषियों के नामः-

    (1) स्वयंभु मारीच (2) अत्रि (3) अंगिरस (4) पुलह (5) कृत (6) पुलसत्य

    (7) वशिष्ठ

     राजा मनु सहित उपरोक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा-संम्पन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।

    विश्वामित्र और उनका वंश: –

    विश्विमित्र: – हालाकिं खुद विश्विमित्र तो कश्यप वंशी थे। इसलिए कोशिक या कुशिक भी इन्हें कहते हैं । कुशिक तो विश्वामित्र के दादा थे। च्यवन के वंशज ऋचिक ने कुशिक पुत्र गाधी की पुत्री से विवाह किया जिससे जमदग्नि पैदा हुए। उनके पुत्र परशुराम हुए।

    प्रजापती के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुश्नाभ और कुश्नाभ के पुत्र राजा गाधी थे।

    विश्वामित्र उन्हीं गाधी के पुत्र थे। कहते हैं कि कोशिक ऋषि कुरुक्षेत्र के निवासी थे।

    वामदेव ऋषि: –

    ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सुत्रद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्वेता हैं। जिन्हें गर्भावस्था में ही अपने विगत दो जन्मों का ज्ञान हो गया था। और उसी गर्भावस्था में इन्द्र के साथ तत्वज्ञान पर चर्चा हुई थी।

    प्रश्न: – धरती पर पहली बार अग्नि का उत्पादन: –

    धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन करना सिखाया था। हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय अंगिरा को देते हैं। भृगु ने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को प्रज्वलित किया जा सकता है। और किस तरह हम अग्नि का उपभोग कर सकते हैं। इसलिए  उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि नाम दिया गया। भृगु ने संजीवनी विद्या की खोज की थी अर्थात मृत प्रणियों को जिंदा करने का उपाय उन्होंने ही खोजा था। परम्परागत रुप से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। भृगु की संतान होने के कारण ही उनके कुल और वंश के सभी लोगों को भार्गव कहा जाता है। हिंदु सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य भी भृगुवंशी थे।


    Read Full Blog...


    ऋग्वेद अध्याय(02)


    Read More

                                                                           अध्याय – 2

     

  • कक्षीवान्‌ देवता विश्वेदेवा: –
  • मैं उशिक पुत्र कक्षीवान क्षितिज के वीरों से युक्त उनकी वंदना करता हूँ। वे क्षितिज और धरा के वीरों के तुल्य शस्त्र धारण कर रिपुओं को निरस्त करते हैं। इसी प्रकार ये कक्षीवान ऋषि भी सभी देवताओं की वंदना करते हैं, जैसे अग्नि, वरून, इंद्र, उषा इत्यादी । इन्होंने अपने छन्दों द्वारा देवता  स्वनयस्थ के बारे में भी लिखा है कि दानशील व्यक्ति सवेरे होते ही धन दान करता है, विद्वान उसे ग्रहण करते हैं। मैं, ( सिन्धु देवता  विद्वांस ) नदी के किनारे पर, निवास करने वाले राजा भाव्य के लिए मति (बुद्धि) द्वारा श्लोक भेट करता हूँ।

  • ऋषि परूच्छेप::-
  • इन्होंने भी अपने छन्दों द्वारा सभी देवताओं को अपनी श्रध्दा अर्पित की है, ये कहते हैं कि मैं सर्व रचित प्राणधारियों के ज्ञाता शक्ति के पुत्र अग्नि की देवी को आवाहन करने वाला मानता हूँ। वे अनुष्ठान प्रवर्तक धृत को अपनी लपटों से अनुसरण कर देवगण की कृपाओं को प्राप्त कराते हैं। ऋषि परूच्छेप: ने भी इन्द्र, अग्नि, वायु, मित्रावरुण सभी का वर्णन किया है।

    पूषा (सूर्य) विश्वेदेवा: – इन छंदों में इन्होंने लिखा है प्राचीन ऋषि दघ्य, अंगिरा, प्रियमेघ, कण्व, अत्रि, और मनु मेरे जन्म के ज्ञाता हैं। वे अदमुत गुणों से परिपूर्ण हैं। उन अत्यन्त गौरवशाली इन्द्रदेव और अग्नि को नमस्कार पूर्वक वंदनाएँ करता हूँ।

              होता (सूर्य, याचक) अग्नि याज्मा पढत़े और हवि के देवता हवि डालते है। बृहस्पति निष्पन्न सोमों द्वारा अनुष्ठान करते हैं।

    नोट: – उत्तम कर्मा बृहस्पति प्रसूत पर भी ग्यारह हों, अपने महत्त्व से अतंरिक्ष में भी ग्यारह हों, इस प्रकार जलों को धारण किया है। हे देवगण। तुम क्षितिज में ग्यारह हो, धरा! तुम तैंतीसों देवों से युक्त अनुष्ठान को स्वीकृत करो।

  • ऋषि दीर्घतमा: –
  • ऋषि दीर्घतमा ने भी अपने छन्दों में अग्नि को महत्त्व दिया है । और इन्होंने देवता, इन्द्र, विष्णु की भी वंदना की है। इन्होंने लिखा है कि व्यापक वंदनाओं से परिपूर्ण विष्णु ने काल के चौरानवे अंशो को चक्र की तरह घुमाया। वंदना करने वाले उन्हें ध्यान से खोजते और आवाहन करते हैं। इन्होंने देवता अश्विनों, द्यावापृथिव्यौ, ऋभव, अश्वः, विश्वेदवाः सभी के बारे में अपनी वंदना अर्पित की है।

    देवता  विश्वेदेवा :  छन्द में लिखा है जिस प्रकार से धरा पर गायत्री छन्द, अंतरिक्ष में त्रिष्टुप छन्द और अम्बर में जगती छन्द को जिसने स्थिर किया उसे जो जानता है वह देवत्व ग्रहण कर चुका है। गायत्री छन्द से जिन्होंने ऋचाओं में सोम को रचा। त्रिष्टुप छंद से वायु वाक्य बनाया। दो पद और चार पद वाली वाणी से वाक् उत्पत्ति की। अक्षर से सात छंन्द निर्मित किये। जगती छन्द से अम्बर में जलों को दृढ किया, रथन्तर साम में सूर्य को देखा। गायत्री के तीन चरण है, अतः वह शक्ति और महत्त्व में सबसे बड़ी हुई हैं।

    जगत के वीर्य रूप सात अर्ध गर्भ विष्णु के आदेश से सिद्धांतों में रहते हैं। मति और हृदय द्वारा जगत को समस्त तरफ से घेर लेते हैं। मैं नहीं जानता कि मैं क्या हूँ । मैं मूर्ख और अर्द्व – विक्षिप्त के तुल्य हूँ। जब मुझे ज्ञान का प्रथमांश ग्रहण होता है, तभी किसी वाक्य को समझ पाता हूँ। ये कहते हैं कि मेघाविजन एक ब्रह्म का असंख्य रूप मे वर्णन करते हैं।

    इनके अनुसार (हे सरस्वती) जल का एक ही रूप है। यह कभी ऊपर जाता है, नीचे आता है। बादल वृष्टि द्वारा धरा को तृप्त करते हैं और ज्वालाएँ अम्बर को हर्षित करती हैं। जलों और औषधियों के कारणभूत, सम्मुख ग्रहण हुए वंदना करने वालों के लिए मैं वृष्टि से तृप्त करता हूँ ।

  • ऋषि अगस्त्य: –इन्होंने भी अपने छन्दों द्वारा इन्द्र देवता का वर्णन किया है और कहा है कि हे मरूतों! मैंने अपने आक्रोश शक्ति से वृत्र को समाप्त किया। मैंने ही वज्र धारण कर मनुष्यों के लिए जलवृष्टि की। (इन्द्र) हे मरूदगण! एक मेरी शक्ति ही सर्वत्र रहती है। मैं अत्यन्त मेधावी और विख्यात उग्रकर्मा हूँ। मैं जो चाहूँ, वही करने में समर्थवान हूँ, जो धन जगत, में है उसका मै स्वामी हूँ। ऋषि कहते हैं इन्द्र- पुत्र मरूद्‌गण नमस्कार करने वाले की सुरक्षा करते हैं, वे हविदाता को दुःखी नहीं होने देते।
  • सखा और वरूण, यज्ञ निंदकों से सुरक्षा करते हैं। अर्यमा उनको नष्ट करते हैं। हे मरूद्‌गण! पानी वाले बादल जब तुम्हारा जल त्यागने का समय आता है तब निश्चल बादल भी डिग जाते हैं।

    ये इन्द्र को समर्पित छन्द है इसमें कहते हैं कि हे धनपते! तुम धनों के स्वामी हो। मित्रपते! तुम मित्रों के शरण रूप हो। हे इन्द्र देव! तुम मरूतों के संग समानता के शरण रूप हो। हे इन्द्रदेव! तुम मरूतों के साथ बराबरी वाले हो, हमारी हवियाँ ग्रहण करो।

              हे इन्द्रदेव! आहलादकारी सोम का पान किया, तुम पुष्ट हो गये। वह वीर्यवान पौष्टिक, विजेता सोम तुम्हारे लिए ही है। हे इन्द्रदेव! हमारा वह पौष्टिक एवं हितकारी पेय तुम्हें ग्रहण हो। तुम बलिष्ठ धन ग्रहण करने वाले, रिपु (दुश्मन) को वशीभूत करने वाले अमर हो।

              जैसे तुमने प्राचीन वंदना करने वालों को सुख प्रदान किया, वैसे ही प्यासे को जल देने के तुल्य मुझे भी सुख प्रदान करो। मैं तुम्हारा बार-बार आवाहन करता हूँ। तुम मुझे अन्न, शक्ति और दानशीलता प्राप्त करवाओ। इन्होंने भी सभी के लिए लिखा है जैसे अन्न, अग्नि, अश्विनों, अम्बर-धरा, विश्वेदेवा, बृहस्पति, अत्पृर्ण सूर्याः आदि।

  • ऋषि लोपामुद्राऽगस्त्यौ। देवता रतिः–
  • (लोपामुद्रा) यह नाम (अगस्त्य ऋषि) की पत्नी का है। वह रति के विषय मे कहती हैं कि मैं सालों से दिन रात जरा की सन्देश वाहिका उषाओं में तुम्हारी सेवा करती रही हूँ। वृद्धावस्था देह के सौन्दर्य को समाप्त करती है। इसलिए यौवन काल में ही पत्नि ग्रहस्थ-धर्म का पालन करके उसके उद्येश्य को पूर्ण करें।

              धर्म पालन पुरातन ऋषि देवों से सच्ची बात करते थे। वे क्षीण हो गये। और जीवन के परम फल को ग्रहण नहीं हुए इसलिए पत्नी-पति को संयमशील और विद्या अध्ययन में लीन विद्वान को भी उपयुक्त अवस्था में काम भाव ग्रहण होता है। और वह अनुकुल भार्या को ग्रहण कर संतानोत्पादक का कर्म करता है।

              विभिन्न तपस्याओं से अगस्त्य ऋषि ने असंख्य संतान और शक्ति की कामना से दोनों वरणीय वस्तुओं को पुष्ट किया और देवगणों से सच्ची अनुकम्पा को पाया।

  • ऋषि गृत्समद: –
  • इन्होंने भी अग्नि की महिमा का वर्णन करते हुए अपने छन्दों मे कहा है। हे अग्ने! तुम जल से उत्पन्न हुए हो। पाषाण, वन और औषधि में हर्षित होते हो। अनुष्ठान की इच्छा होने पर अध्वर्य और ब्रह्म भी तुम्हीं हो। हमारे गृहों के तुम्हीं पोषक हो। तुम विष्णु रूप वंदनाओं के स्वामी तथा अधीश्वर एवं, मति प्रेरणा में समर्थवान हो। तुम आदित्यों के मुँह एवं देवों के जिवहा के रूप हो।

  • ऋषि गृत्समद इत्यादयः अग्न्यादय::-
  • हे कुशविद्यमान अग्ने! हमको विशाल धन दिलाने हेतु बढोतरी करो। तुम मतिमय (बुद्धिमय) और पराक्रम पूर्ण हो। हे वसुदेवो! हे विश्वदेवो! हे आदित्यो! तुम धृत सिंचन कुश पर पधारो।

              अग्नि रूप त्वष्टा की कृपा से हमें शीघ्र कर्मकारी अन्नों के उत्पादक कीर्ति और देवों की इच्छा वाला पराक्रमी पुत्र ग्रहण हो। हमारी संतान अपने वंश का पोषण करने वाली हो और हमें अन्न की प्राप्ति हो।

              मैं अग्नि में धृत बन गया हूँ। हे मनोकामना वर्षक अग्ने। हविदान के समय देवताओं को पुकारकर उनकी हर्षिता ग्रहण करते हुए उनको द्रव्य पहुँचाओ।

  • ऋषि- सोमाहुति भार्गव: –
  • इन्होंने भी अग्नि के प्रति अपने शब्दों द्वारा अपने छन्दों में अग्नि की वंदना की है। तुम्हारे महत्व को जानने वाले यजमान समस्त देवों को तृप्त कर सकें, वह कर्म करो। हम जिस अनुष्ठान को करते हैं। वह तुम्हारा ही है। तुम ज्ञानी हो, हमारी कामनाएँ पूर्ण करने के लिए कुश पर पधारो।

              हे अग्नि! तुम पोषणकर्ता हो। हमारे सुन्दर धेनुओं ऋषभों और बछड़ों द्वारा अर्चनीय हो, मेधावी शक्ति के पुत्र, अनुष्ठान सम्पादक, प्राचीन, समिधा रूप अन्न वाले, धृत सिंचन के अभिलाषी अग्नि अत्यन्त महान हैं।

  • गृत्समद: –
  • रिपुनाशक और सुशोभित अग्नि अत्यन्त तेजोमय हैं। इनकी शोभा दिव्य है। हम अग्नि, इन्द्र, सोम तथा अन्य देवों की शरण ग्रहण कर चुके हैं। अब कोई हमारा बुरा नहीं कर सकता। हम रिपुओं को पराजित कर सकने, में समर्थवान हों।

  • ऋषि गृत्समद: भार्गव: / शोनक: –
  • ये ऋषि कहते हैं, हे अग्ने! तुम्हारें जन्म स्थान में तुम्हें पूजेंगे। जहाँ प्रकट हुए हो उस जगह की अर्चना करेंगे। वहाँ दीप्तिमान्‌ होने पर हवियाँ तुम्हें दी जाती हैं। हे अग्ने!  तुम महान्‌ अनुष्ठान कर्ता हो। हमको दिए जाने योग्य अन्नों को देवों से दिलाओ। तुम धन के मालिक हों, हमारी प्रार्थना के ज्ञाता बनो। हे अग्ने! अपने तेज से रिपुओं को पराजित करते हुए हमारी इच्छा योग्य वंदनाओ को समझो। तुम्हारी शरण में हम मनु के तुल्य वंदना करते हैं। तुम धनदाता हो, हाथ में जुहूँ लेकर मैं तुम्हें श्लोकों से पुकारता हूँ।

              इन्होंने इन्द्र को भी प्रसन्न करने हेतु छन्द लिखे और उनकी वंदना की। हे इन्द्र देव! हमको निवास बिन्दु और श्रेष्ठ पौरूष दो। तुमं सोम छानंने वाले और यजमानों को अन्न प्रदान करते हो, तुम सत्य स्वरुप हो। हम प्रिय सन्तानादि से परिपूर्ण हुए तुम्हारी प्रार्थना का गान करेंगे।

     

    जिस इन्द्रदेव ने निन्यानबे बाहु वाले 'उरण' तथा 'अर्बुद' का शोषण किया, उसी इन्द्रदेव को सोम सिद्ध होने पर भेंट करो। वज्र से शम्बर के पाषाण नगरों को तोड़ दिया तथा वर्चो के एक लाख भक्तों को मारा, उन्हीं इन्द्रदेव के लिए सोमरस ले आओ।

              अंगिरावंशियों की वंदना पर इन्द्रदेव ने शक्ति को विमुक्त किया और पर्वत के दरवाजे को खोला तथा कृत्रिम रूकावटें दूर की। सोम की खुशी में इन्द्रदेव ने यह सब किया।

              जैसे भार्याऍं पतियों को हर्षित करती हैं, वैसे ही हम भी अपने रूचिकर श्लोक द्वारा तुम्हें हर्षित करेंगे। हे मनुष्यों । अंगिराओं के तुल्य नये श्लोकों से इन्द्रदेव का अर्चन करो। अनेक अन्न वाले इन्द्र देव समस्त जगत के स्वामी हैं। अपनी शक्ति से वृत्र को समाप्त कर तुमने जल को बहाया। तुम शतकर्मी हो। अन्न और शक्ति के ज्ञाता हो।

     

  • ऋषि गृत्समद: भार्गवः–
  • हे ब्रह्मणस्पते। तुम देवों में अद्‌भुत और कवियों में महान हो। हे राक्षसों का वध करने वाले, देवों ने तुम्हारा अनुष्ठान भाग पाया है। जैसे सूर्य अपनी दीप्ति से किरणें रचित करते हैं, वैसे ही तुम श्लोक रचित करो। हे यज्ञ उत्पन्न ब्रह्मणस्पते! आर्यो द्वारा पूजित देदिप्यमान अनुष्ठान वाला धन सुशोभित होता है उसी तेज युक्त धन को हमें प्रदान करो। हे ब्रह्मणस्तपे देवगण जिसकी रक्षा करते हैं, वही कल्याण को वहन करने वाला होता है। हम पुत्र पोत्र हुए इस अनुष्ठान में श्लोक गायेंगे।

  • ऋषि-गुत्समद, भार्गव: शोनकः–
  • इन्होंने भी अपने छंदों द्वारा बृहस्पति की वंदना की है। और कहा है कि हे मनुष्य ब्रह्मणस्पति ने तुम्हारे लिए ही सनातन और दिव्य वृष्टि का दरवाजा खोला। उन्होंने मंत्रो को अदभुतता प्रदान की और अम्बर-धरा को सुख वृद्धि करने वाला बनाया।

              ब्रह्मणस्पति पूजनीय हैं। वे समस्त पदार्थों को अलग करते और मिलाते है। सभी उनका पूजन करते हैं तभी सूर्य उदय होता है। जिसे ये मित्र भाव से देखते हैं उसी तरफ समस्त,रस प्रवाहमान होते है। वह विविध सुखों का उपभोग करने वाला ब्रह्मणस्पति पूजनीय हैं। वे समस्त पदार्थों को अलग करते महान भाग्य से परिपूर्ण होकर समृद्धि प्राप्त करता है। सभी उनका पूजन करते हैं तभी सूर्य उदय होता है। जिसे ये मित्र भाव से देखते हैं उसी तरफ समस्त,रस प्रवाहमान होते है। वह विविध सुखों का उपभोग करने वाला महान भाग्य से परिपूर्ण होकर समृद्धि प्राप्त करता है।

  • ऋषि कूर्मो, गृत्समदो वा: –
  • ये भी अपनी वंदना में लिखते हैं,आदित्य धरा, अंतरिक्ष, स्वर्ग, सत्य, जल तथा सत्य जगतों के धारणकर्ता हैं। ये तीन सवन परिपूर्ण यज्ञ वाले, अनुष्ठान से ही महिमावान्‌ हुए हैं। हे अर्यमा! हे सखा और वरूण! तुम्हारा कार्य प्रशंसनीय है। इसी तरह देवता वरूण की वंदना में भी लिखा है आप प्रकाशमान और अपनी महिमा से जगत्‌ के जीवों की उत्पत्ति करने वाले वरूण के लिए यह हवि रूप अन्न है । वे अत्यन्त तेजस्वी वरुण यजमान को सुख  प्रदान करते हैं। मैं उनका पूजन करता हूँ।

    सभी देवों की वंदना करते हुए कहते हैं। हे विश्वेदेवताओं! हम तुम्हारा कौन-सा कर्म साधन कर सकेंगे? हे सखा, वरुण, अदिति, इन्द्रदेव और मरुतो! हमारा कल्यान करो!

  • ऋषि गृत्समद: भार्गवः शोनकः: –
  • हे इन्द्रदेव! हे सोम! तुम जिसे समाप्त करना चाहते हो, उसका समूल पतन करो। रिपुओं (दुश्मनों) के विरूध्द अपने तपस्वियों को शिक्षा दो। तुम मेरी सुरक्षा करो तथा इस जगह से डर को भगा दो।

    हे सरस्वती! हमारी सुरक्षा करो। मरूद्‌गण युक्त पधारकर रिपुओं पर विजय प्राप्ति करो। इन्द्रदेव ने धीरता का अहंकार करने वाले युध्द अभिलाषी शण्डामर्क का वध किया था। हे बृहस्पते! जो अदृश्य रहकर हमें समाप्त करना चाहता है, उसे खोजकर अपने विद्रोहियों पर समस्त तरफ से प्राणघातक वज्र से प्रहार करो।

    ऋषि लिखते हैं, हे अम्बर! हे धरा! नवीन शलोकों से तुम्हारा पूजन करता हूँ। अन्न रूप हवि प्रदान करता हूँ। औषधि, सोम, पशु – ये तीन प्रकार के धन मेरे पास हैं। हे देवों! तुम हमारी वंदना चाहते हो, हम भी तुम्हारी प्रार्थना चाहते हैं।

              इन्होंने देवता द्यावाप्रृथिवी की वंदना में कहा है गुंगु, कुहू देव भार्या, अंधकार वाली रात्रि और सरस्वती देवी का आहवान करता हूँ। मैं इन्द्राणी की महान शरण हेतु आहुत करता हूँ तथा सुख- अभिलाषा से वरूणानी का भी आवाहन करता हूँ। इन्होंने रूद्रः और मरूतः के बारे में भी छन्द लिखे हैं। ये अपान्नपात (अन्न) की वंदना करते हुए लिखते है छन्द, इला, सरस्वती, भारती – ये त्रिदेवियाँ त्रासरहित अपान्नपात देव के लिए अन्न धारण करती हैं। ये जल में रचित पदार्थ की बढ़ोतरी करती हैं। अपान्नपात ( सबसे पहले प्रकट जल) के सार को हम पीते हैं। शीघ्रगामी और ध्वनिवान जलपात्र अग्नि हमको प्रचुर मात्रा में अन्न और मनोहर रूप प्रदान करें। वे वंदना की इच्छा करते हैं इसलिए मैं वंदना करता हूँ।

              देवता द्रविणोदा: – हे द्रव्य दाता अग्ने! तुम्हारा वाहन घोड़े से परिपूर्ण हो। हे वनस्पते! तुम दृढ एवं अहिंसक हो। जिन्होंने होता के अनुष्ठान में सोमपान किया और पिता के अनुष्ठान में ह्रष्ट-पुष्ट हुए नेष्टा के अनुष्ठान में अन्न का सेवन किया, वे स्वर्ण देने वाली ऋत्विव्‌ की मृत्यु निवारक सोमरस का पान करें।

    हे सविता देव। अंतरिक्ष में तुम्हारे द्वारा दृढ़ जल भाग को खोज करने वाले पाते हैं। तुमने पंक्षियों के निवास के लिए वृक्षों का विभाजन किया तुम्हारे कर्म को कोई नही रोक सकता।

              [देवता सविता अर्थ

    (1) सविता देव स्वर्ग को प्रकाशित करते हैं और उषा के उदित होने के पश्चात प्रकाश फैलाते हैं।

    (2) प्रेरक सूर्य प्रतीकात्मक रूप में बाढ़ अग्नि घर में रचित तेज यजमान के अन्न कोष्ठों मे विद्यमान हैं। उषा माता सविता प्रेरित अनुष्ठान का उत्तम हिस्सा अग्नि को प्रदान कर चुकी हैं ।]

     

              ऋषि शोनक ने देवता अश्विनी सोमा पूषणो, अदिती, इन्द्र, वायु, मित्रावरुणौ, प्रभृतिः सभी की छंदों से वंदना की है।

    देवता कपिंजल इन्द्र: –

              [ कपिंजल का अर्थ:

    (1) पपीहा चातक

    (2) गौरा या चटक

    (3) भरदूल

    (4) तीतर

    (5) एक प्राचीन मुनी, बारम्बार ध्वनी करने वाला ]

    भविष्य का निर्दैश करनेवाला कपिंजल जैसे नौका को चलाता है वैसे ही वाणी को मार्गदर्शन देता है।हे शकुनि! तुम मंगलप्रद हो। किसी प्रकार की हार, कही से भी आकर तुमको ग्रहण न हो। समय-समय पर अन्न की खोज करने वाले पक्षीगण वंदना करने वाले की तरह परिक्रमा करते हुए सुन्दर ध्वनी उच्चारण करें। सोम गायकों द्वारा गायत्री छन्द और त्रिष्टुप छन्द-उच्चारण करने के तुल्य, कपिञ्जल भी दोनों प्रकार की वाणी उच्चारण करता हुआ सुनने वाले को मोहित कर लेता है।

              जब तुम चुप होकर बैठते हो तब हमसे हर्षित नहीं जान पडते। जब तुम उडते हो तब कर्करि के तुल्य मृदुध्वनी करते हो। हम पुत्र और पुत्रवान हुए इस अनुष्ठान में रचित हुई प्रार्थनाओं का गान करेंगे।

  • ऋषि-गथिनो विश्वामित्रः –
  • देवता अग्नि को समर्पित करते हुए छन्द में कहते हैं, हे अग्ने! अनुष्ठान के लिए तुमने मुझे सोम प्रस्तुत करने को कहा इसलिए मुझे शक्ति प्रदान करो। तेजस्वी होता (याचक) देवताओं के प्रति सोम कुटने के लिए पत्थर हाथ में ग्रहण करता और वंदना करता हूँ। तुम मेरी देह की सुरक्षा करो। हे अग्ने हमने उत्तम रुप से अनुष्ठान किया है हमारी वंदना में वृद्धि हो। समिधा और हवि से हम अग्नि की सेवा करें। क्षितिज वासी देवताओं ने वंदना करने वालों को श्लोक बताया । वंदनाकारी वंदना के योग्य अग्नि की प्रार्थना करना चाहते है।

              जल वृष्टि के बाद जल के गर्भ रुप अग्नि की विभिन्न रुप वाली रश्मियाँ विद्यमान होती हैं। उस सुन्दर अग्नि के माता पिता धरा और अम्बर हैं।

              हे शक्तिपुत्र अग्ने सभी के द्वारा धारण करने पर तुम उज्ज्वल और चाल परिपूर्ण किरणों द्वारा प्रकाशवान होते हो। जब अग्नि यजमान के श्लोक में बढोतरी को प्राप्त करते हैं तब महान जल की वृष्टि होती है।

              समस्त मनुष्यों में विद्यमान हुए समस्त प्राणधारियों में विद्यमान अग्नि को विश्वामित्र ने चैतन्य किया। हम उनकी कृपा दृष्टि से अनुष्ठान योग्य अग्नि के प्रति उत्तम भाव रखें । हे देवताओं का आवाहन करने वाले अग्निदेव! हमें अन्न और धन प्रदान करो। हमारे कुल की बढोतरी करने वाला और सन्तान को जन्म देने वाला पुत्र प्रदान करो। हे अग्ने! हम पर कृपा करो। महाबलिष्ठ, मेधावी, पूजनीय, अम्बरवासी जिस अग्नि को पवन ने क्षितिज से लाकर धरा पर विद्यमान किया, उन्हीं अनेक गति वाले पीतरंग, तेजस्वी अग्नि से हम धन की विनती करते है। सभी को आनंद देने वाले, स्वर्णमय रथ वाले, पीतरंग वाले, जल में निवास करने वाले, सर्वव्यापी, द्रुतगामी, बलिष्ठ, ज्योर्तिमान्‌, वैश्वानर अग्नि को देवों ने ढृढ किया।

    हे मेधावी वैश्वानर अग्ने! तुम अपने जिस तेजद्वारा सर्वज्ञ बने मैं तुम्हारे उसी तेज को प्रणाम करता हूँ। तुम प्रकट होते हो। तुम धरा-अम्बर आदि समस्त जगतों में विद्यमान होते हुए जीवमात्र में रम जाते हो।

    सूर्यदिप्ति के संग अग्निरुप भारती ग्रहण हो। देवों के संग मनुष्यों को इला ग्रहण हो। तेजस्वी विद्वानों के संग सरस्वती भी यहाँ पधारें। ये तीनों देवियाँ कुश के आसन पर विराजमान हों।

    हे त्वष्टा। जिस वीर्य से कर्मवान, पराक्रमी, सोम सिद्धकरने वाला, देवों का पूजक पुत्र रचित हो सके, तुम हर्षित होकर वैसा ही पुष्ट वीर्य हमको दो । जब मातरिश्वा ने भृगुओं के लिए गुफा में विराजमान हविवाहक अग्नि को चैतन्य किया तब तेजस्वी, महान अग्नि ने अपने तेज से सूर्य तथा जगत को भी आर्श्चय चकित कर दिया ।

    व्यापक धरा सभी कीर्ति में जिन अग्निदेव की समृद्धि के लिए वंदना करती है, वे देवों के होता, शक्ति संपन्न सुन्दर रुप वाले को विविध कार्यो की कारणभूत गौ परिपूर्ण को भूमि सदेव प्रदान करो। हमको कुल की बढ़ोतरी करने वाला सन्तानोत्पादन में समर्थ पुत्र प्रदान करो यही तुम्हारी कृपा होनी चाहिए।

    [मातरिश्वा का अर्थः – संज्ञा पु: –

    (1) अंतरिक्ष में चलने वाला, पवन

    (2) वायु

    (3) हवा

    (4) एक प्रकार की अग्नि ]


    Read Full Blog...


    ऋग्वेद अध्याय 1 2


    Read More

    सूक्त पहला: मंत्र 1

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

     

    अ॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृ॒त्विज॑म्। होता॑रं रत्न॒धात॑मम्॥

    agnim īḻe purohitaṁ yajñasya devam ṛtvijam | hotāraṁ ratnadhātamam ||

    यहाँ प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है।

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    हम लोग (यज्ञस्य) विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म के (होतारं) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विज्ञं) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं। तथा उपकार के लिये हम लोग (यज्ञस्य) विद्यादि दान और शिल्पक्रियाओं से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के (होतारं) देनेहारे तथा (पुरोहितम्) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करनेवाले (ऋत्विजम्) शिल्पविद्या साधनों के हेतु (रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण कराने तथा (देवम्) युद्धादिकों में कलायुक्त शस्त्रों से विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की (ईळे) बारंबार इच्छा करते हैं।

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। पिता के समान कृपाकारक परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा करता है कि तू ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल, इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य भी कहता है कि सत्य बोलूँगा, पिता और आचार्य्य की सेवा करूँगा, झूठ न कहूँगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही अग्निमीळे० इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहिये। क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से अग्निमीळे० इस मन्त्र में ईडे यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। (अग्निमीळे०) इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहारविद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या आविष्कृत की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। परमेश्वर के आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाशक और अनन्त ज्ञानवान् होने से, तथा भौतिक अग्नि के रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक होने से अग्नि शब्द का प्रथम ग्रहण किया है ॥१॥

    सूक्त पहला: मंत्र 2

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

     

    अ॒ग्निः पूर्वे॑भि॒र्ऋषि॑भि॒रीड्यो॒ नूत॑नैरु॒त। स दे॒वाँ एह व॑क्षति॥

    agniḥ pūrvebhir ṛṣibhir īḍyo nūtanair uta | sa devām̐ eha vakṣati ||

    उक्त अग्नि किन से स्तुति करने वा खोजने योग्य है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थान्वयभाषा (Material language):-

    यहाँ अग्नि शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि-(इन्द्रं मित्रं०) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता है कि एक सद्ब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं। तथा (तदेवाग्नि०) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि नामों करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये। (ब्रह्म ह्य०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा०) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है। (अग्नि०) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो यथावत् पालन करना है, सो ही व्रत कहाता है, और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है।

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    जो मनुष्य सब विद्याओं को पढ़के औरों को पढ़ाते हैं तथा अपने उपदेश से सब का उपकार करनेवाले हैं वा हुए हैं वे पूर्व शब्द से, और जो कि अब पढ़नेवाले विद्याग्रहण के लिये अभ्यास करते हैं, वे नूतन शब्द से ग्रहण किये जाते हैं, क्योंकि जो मन्त्रों के अर्थों को जाने हुए धर्म और विद्या के प्रचार, अपने सत्य उपदेश से सब पर कृपा करनेवाले, निष्कपट पुरुषार्थी, धर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की उपासना करनेवाले और कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि के गुणों को जानकर अपने कर्मों के सिद्ध करनेवाले होते हैं, वे सब पूर्ण विद्वान् शुभ गुण सहित होने पर ऋषि कहाते हैं, तथा प्राचीन और नवीन विद्वानों के तत्त्व जानने के लिये युक्ति प्रमाणों से सिद्ध तर्क और कारण वा कार्य्य जगत् में रहनेवाले जो प्राण हैं, वे भी ऋषि शब्द से गृहीत होते हैं। इन सब से ईश्वर स्तुति करने योग्य और भौतिक अग्नि अपने-अपने गुणों के साथ खोज करने योग्य है।

    और जो सर्वज्ञ परमेश्वर ने पूर्व और वर्त्तमान अर्थात् त्रिकालस्थ ऋषियों को अपने सर्वज्ञपन से जान के इस मन्त्र में परमार्थ और व्यवहार ये दो विद्या दिखलाई हैं, इससे इसमें भूत वा भविष्य काल की बातों के कहने में कोई भी दोष नहीं आ सकता, क्योंकि वेद सर्वज्ञ परमेश्वर का वचन है। वह परमेश्वर उत्तम गुणों को तथा भौतिक अग्नि व्यवहार-कार्यों में संयुक्त किया हुआ उत्तम-उत्तम भोग के पदार्थों का देनेवाला होता है। पुराने की अपेक्षा एक पदार्थ से दूसरा नवीन और नवीन की अपेक्षा पहिला पुराना होता है। देखो, यही अर्थ इस मन्त्र का निरुक्तकार ने भी किया है कि-जो प्राकृत जन अर्थात् अज्ञानी लोगों ने प्रसिद्ध भौतिक अग्नि पाक बनाने आदि कार्य्यों में लिया है, वह इस मन्त्र में नहीं लेना, किन्तु सब का प्रकाश करनेहारा परमेश्वर और सब विद्याओं का हेतु, जिसका नाम विद्युत् है, वही भौतिक अग्नि यहाँ अग्नि शब्द से कहा गया है।

    इस मन्त्र का अर्थ नवीन भाष्यकारों ने कुछ का कुछ ही कर दिया है, जैसे सायणाचार्य ने लिखा है कि-(पुरातनैः०) प्राचीन भृगु, अङ्गिरा आदियों और नवीन अर्थात् हम लोगों को अग्नि की स्तुति करना उचित है। वह देवों को हवि अर्थात् होम में चढ़े हुए पदार्थ उनके खाने के लिये पहुँचाता है। ऐसा ही व्याख्यान यूरोपखण्डवासी और आर्यावर्त्त के नवीन लोगों ने अङ्ग्रेजी भाषा में किया है, तथा कल्पित ग्रन्थों में अब भी होता है। सो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जो ईश्वर के प्रकाशित अनादि वेद का ऐसा व्याख्यान, जिसका क्षुद्र आशय और निरुक्त शतपथ आदि सत्य ग्रन्थों से विरुद्ध होवे, वह सत्य कैसे हो सकता है ॥२॥

     

    सूक्त पहला: मंत्र 3

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

     

    अ॒ग्निना॑ र॒यिम॑श्नव॒त्पोष॑मे॒व दि॒वेदि॑वे। य॒शसं॑ वी॒रव॑त्तमम्॥

    agninā rayim aśnavat poṣam eva dive-dive | yaśasaṁ vīravattamam ||

    अब परमेश्वर की उपासना और भौतिक अग्नि के उपकार से क्या-क्या फल प्राप्त होता है, सो अगले मन्त्र से उपदेश किया है-

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्नि शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये, परन्तु सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहाँ भी कहते हैं-यास्कमुनिजी ने स्थौलाष्ठीवि ऋषि के मत से अग्नि शब्द का अग्रणी=सब से उत्तम अर्थ किया है अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन होता है, वह सब से उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाहगुणवाला भौतिक अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है। (प्रशासितारं० एतमे०) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनन्त विद्यावाले और चेतनस्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है। अब भौतिक अर्थ के ग्रहण में प्रमाण दिखलाते हैं-(यदश्वं०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है। यह अग्नि बैल के समान सब देशदेशान्तरों में पहुँचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है, क्योंकि वह कलायन्त्रों के द्वारा प्रेरित होकर देवों=शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् लोगों के विमान आदि यानों को वेग से दूर-दूर देशों में पहुँचाता है।

    (तूर्णि०) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है, क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतुओं से हव्यवाट् और तूर्णि भी कहाता है। (अग्निर्वै यो०) इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से अश्व नाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो०) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्पविद्यावाले विद्वान् लोग यन्त्रकलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते हैं, तब (देववाहनः) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों को देशान्तर में बैलों वा घोड़ों के समान शीघ्र पहुँचानेवाला होता है। उस वेगादि गुणवाले अश्वरूप अग्नि के गुणों को (हविष्मन्तः) हवियुक्त मनुष्य कार्यसिद्धि के लिये (ईळते) खोजते हैं। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है ॥१॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण है। ईश्वर की आज्ञा में रहने तथा शिल्पविद्यासम्बन्धी कार्य्यों की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि को सिद्ध करनेवाले मनुष्यों को अक्षय अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता, ऐसा धन प्राप्त होता है, तथा मनुष्य लोग जिस धन से कीर्त्ति की वृद्धि और जिस धन को पाके वीर पुरुषों से युक्त होकर नाना सुखों से युक्त होते हैं, सब को उचित है कि उस धन को अवश्य प्राप्त करें ॥३॥

     

    सूक्त पहला: मंत्र 4

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

     

    अग्ने॒ यं य॒ज्ञम॑ध्व॒रं वि॒श्वतः॑ परि॒भूरसि॑। स इद्दे॒वेषु॑ गच्छति॥

    agne yaṁ yajñam adhvaraṁ viśvataḥ paribhūr asi | sa id deveṣu gacchati ||

    उक्त भौतिक अग्नि और परमेश्वर किस प्रकार के हैं, यह भेद अगले मन्त्र में जनाया है-

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    (अग्ने) हे परमेश्वर! आप (विश्वतः) सर्वत्र व्याप्त होकर (यम्) जिस (अध्वरम्) हिंसा आदि दोषरहित (यज्ञम्) विद्या आदि पदार्थों के दानरूप यज्ञ को (विश्वतः) सर्वत्र व्याप्त होकर (परिभूः) सब प्रकार से पालन करनेवाले (असि) हैं, (स इत्) वही यज्ञ (देवेषु) विद्वानों के बीच में (गच्छति) फैलके जगत् को सुख प्राप्त करता है। तथा जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (यम्) जिस (अध्वरम्) विनाश आदि दोषों से रहित (यज्ञम्) शिल्पविद्यामय यज्ञ को (विश्वतः) जल पृथिव्यादि पदार्थों के आश्रय से (परिभूः) सब प्रकार के पदार्थों में व्याप्त होकर सिद्ध करनेवाला है, (स इत्) वही यज्ञ (देवेषु) अच्छे-अच्छे पदार्थों में (गच्छति) प्राप्त होकर सब को लाभकारी होता है ॥४॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस कारण व्यापक परमेश्वर अपनी सत्ता से पूर्वोक्त यज्ञ की निरन्तर रक्षा करता है, इसीसे वह अच्छे-अच्छे गुणों को देने का हेतु होता है। इसी प्रकार ईश्वर ने दिव्य गुणयुक्त अग्नि भी रचा है कि जो उत्तम शिल्पविद्या का उत्पन्न करने वाला है। उन गुणों को केवल धार्मिक उद्योगी और विद्वान् मनुष्य ही प्राप्त होने के योग्य होता है ॥४॥

     

    सूक्त पहला: मंत्र 5

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

     

    अ॒ग्निर्होता॑ क॒विक्र॑तुः स॒त्यश्चि॒त्रश्र॑वस्तमः। दे॒वो दे॒वेभि॒रा ग॑मत्॥

    agnir hotā kavikratuḥ satyaś citraśravastamaḥ | devo devebhir ā gamat ||

    फिर भी परमेश्वर और भौतिक अग्नि किस प्रकार के हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    जो (सत्यः) अविनाशी (देवः) आप से आप प्रकाशमान (कविक्रतुः) सर्वज्ञ है, जिसने परमाणु आदि पदार्थ और उनके उत्तम-उत्तम गुण रचके दिखलाये हैं, जो सब विद्यायुक्त वेद का उपदेश करता है, और जिससे परमाणु आदि पदार्थों करके सृष्टि के उत्तम पदार्थों का दर्शन होता है, वही कवि अर्थात् सर्वज्ञ ईश्वर है। तथा भौतिक अग्नि भी स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से कलायुक्त होकर देशदेशान्तर में गमन करानेवाला दिखलाया है। (चित्रश्रवस्तमः) जिसका अति आश्चर्यरूपी श्रवण है, वह परमेश्वर (देवेभिः) विद्वानों के साथ समागम करने से (आगमत्) प्राप्त होता है। तथा जो (सत्यः) श्रेष्ठ विद्वानों का हित अर्थात् उनके लिये सुखरूप (देवः) उत्तम गुणों का प्रकाश करनेवाला (कविक्रतुः) सब जगत् को जानने और रचनेहारा परमात्मा और जो भौतिक अग्नि सब पृथिवी आदि पदार्थों के साथ व्यापक और शिल्पविद्या का मुख्य हेतु (चित्रश्रवस्तमः) जिसको अद्भुत अर्थात् अति आश्चर्य्यरूप सुनते हैं, वह दिव्य गुणों के साथ (आगमत्) जाना जाता है ॥५॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब का आधार, सर्वज्ञ, सब का रचनेवाला, विनाशरहित, अनन्त शक्तिमान् और सब का प्रकाशक आदि गुण हेतुओं के पाये जाने से अग्नि शब्द करके परमेश्वर, और आकर्षणादि गुणों से मूर्त्तिमान् पदार्थों का धारण करनेहारादि गुणों के होने से भौतिक अग्नि का भी ग्रहण होता है। सिवाय इसके मनुष्यों को यह भी जानना उचित है कि विद्वानों के समागम और संसारी पदार्थों को उनके गुणसहित विचारने से परम दयालु परमेश्वर अनन्त सुखदाता और भौतिक अग्नि शिल्पविद्या का सिद्ध करनेवाला होता है।

     

    सूक्त पहला: मंत्र 6

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

     

    यद॒ङ्ग दा॒शुषे॒ त्वमग्ने॑ भ॒द्रं क॑रि॒ष्यसि॑। तवेत्तत्स॒त्यम॑ङ्गिरः॥

    yad aṅga dāśuṣe tvam agne bhadraṁ kariṣyasi | tavet tat satyam aṅgiraḥ ||

    अब अग्नि शब्द से ईश्वर का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    हे (अङ्गिरः) ब्रह्माण्ड के अङ्ग पृथिवी आदि पदार्थों को प्राणरूप और शरीर के अङ्गों को अन्तर्यामीरूप से रसरूप होकर रक्षा करनेवाले हे (अङ्ग) सब के मित्र (अग्ने) परमेश्वर! (यत्) जिस हेतु से आप (दाशुषे) निर्लोभता से उत्तम-उत्तम पदार्थों के दान करनेवाले मनुष्य के लिये (भद्रम्) कल्याण, जो कि शिष्ट विद्वानों के योग्य है, उसको (करिष्यसि) करते हैं, सो यह (तवेत्) आप ही का (सत्यम्) सत्यव्रत=शील है ॥६॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    जो न्याय, दया, कल्याण और सब का मित्रभाव करनेवाला परमेश्वर है, उसी की उपासना करके जीव इस लोक और मोक्ष के सुख को प्राप्त होता है, क्योंकि इस प्रकार सुख देने का स्वभाव और सामर्थ्य केवल परमेश्वर का है, दूसरे का नहीं। जैसे शरीरधारी अपने शरीर को धारण करता है, वैसे ही परमेश्वर सब संसार को धारण करता है, और इसी से इस संसार की यथावत् रक्षा और स्थिति होती है ॥६॥

     

    सूक्त पहला: मंत्र 7

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

     

    उप॑ त्वाग्ने दि॒वेदि॑वे॒ दोषा॑वस्तर्धि॒या व॒यम्। नमो॒ भर॑न्त॒ एम॑सि॥

    upa tvāgne dive-dive doṣāvastar dhiyā vayam | namo bharanta emasi ||

    उक्त परमेश्वर कैसे उपासना करके प्राप्त होने के योग्य है, इसका विधान अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    (अग्ने) हे सब के उपासना करने योग्य परमेश्वर ! (वयम्) हम लोग (धिया) अपनी बुद्धि और कर्मों से (दिवेदिवे) अनेक प्रकार के विज्ञान होने के लिये (दोषावस्तः) रात्रिदिन में निरन्तर (त्वा) आपकी (भरन्तः) उपासना को धारण और (नमः) नमस्कार आदि करते हुए (उपैमसि) आपके शरण को प्राप्त होते हैं॥७॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    हे सब को देखने और सब में व्याप्त होनेवाले उपासना के योग्य परमेश्वर ! हम लोग सब कामों के करने में एक क्षण भी आपको नहीं भूलते, इसी से हम लोगों को अधर्म करने में कभी इच्छा भी नहीं होती, क्योंकि जो सर्वज्ञ सब का साक्षी परमेश्वर है, वह हमारे सब कामों को देखता है, इस निश्चय से॥७॥

     

    सूक्त पहला: मंत्र 8

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: यवमध्याविराड्गायत्री स्वर: षड्जः

     

    राज॑न्तमध्व॒राणां॑ गो॒पामृ॒तस्य॒ दीदि॑विम्। वर्ध॑मानं॒ स्वे दमे॑॥

    rājantam adhvarāṇāṁ gopām ṛtasya dīdivim | vardhamānaṁ sve dame ||

    फिर भी वह परमेश्वर किस प्रकार का है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    -हम लोग (स्वे) अपने (दमे) उस परम आनन्द पद में कि जिसमें बड़े-बड़े दुःखों से छूट कर मोक्ष सुख को प्राप्त हुए पुरुष रमण करते हैं, (वर्धमानम्) सब से बड़ा (राजन्तम्) प्रकाशस्वरूप (अध्वराणाम्) पूर्वोक्त यज्ञादि अच्छे-अच्छे कर्म धार्मिक मनुष्यों के (गोपाम्) रक्षक (ऋतस्य) सत्यविद्यायुक्त चारों वेदों और कार्य जगत् के अनादि कारण के (दीदिविम्) प्रकाश करनेवाले परमेश्वर को उपासना योग से प्राप्त होते हैं॥८॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    विनाश और अज्ञान आदि दोषरहित परमात्मा अपने अन्तर्यामिरूप से सब जीवों को सत्य का उपदेश तथा श्रेष्ठ विद्वान् और सब जगत् की रक्षा करता हुआ अपनी सत्ता और परम आनन्द में प्रवृत्त हो रहा है। उस परमेश्वर के उपासक हम भी आनन्दित, वृद्धियुक्त विज्ञानवान् होकर विज्ञान में विहार करते हुए परम आनन्दरूप विशेष फलों को प्राप्त होते हैं॥८॥

    सूक्त पहला: मंत्र 9

    देवता: अग्निः ऋषि: मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः छन्द: विराड्गायत्री स्वर: षड्जः

     

    स नः॑ पि॒तेव॑ सू॒नवेऽग्ने॑ सूपाय॒नो भ॑व। सच॑स्वा नः स्व॒स्तये॑॥

    sa naḥ piteva sūnave gne sūpāyano bhava | sacasvā naḥ svastaye ||

    वह परमेश्वर किस के समान किनकी रक्षा करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है।

    पदार्थान्वयभाषा(Material language):-

    हे (सः) उक्त गुणयुक्त (अग्ने) ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (पितेव) जैसे पिता (सूनवे) अपने पुत्र के लिये उत्तम ज्ञान का देनेवाला होता है, वैसे ही आप (नः) हम लोगों के लिये (सूपायनः) शोभन ज्ञान, जो कि सब सुखों का साधक और उत्तम पदार्थों का प्राप्त करनेवाला है, उसके देनेवाले (भव) हूजिये तथा (नः) हम लोगों को (स्वस्तये) सब सुख के लिये (सचस्व) संयुक्त कीजिये॥९॥

    भावार्थ भाषाःDeep-spirit Language):-

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को उत्तम प्रयत्न और ईश्वर की प्रार्थना इस प्रकार से करनी चाहिये कि-हे भगवन् ! जैसे पिता अपने पुत्रों को अच्छी प्रकार पालन करके और उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उनको शुभ गुण और श्रेष्ठ कर्म करने योग्य बना देता है, वैसे ही आप हम लोगों को शुभ गुण और शुभ कर्मों में युक्त सदैव कीजिये॥९॥


    Read Full Blog...


    ऋग्वेद अध्याय 1


    Read More

    अध्याय – 1

     

  • ऋषि मधुच्छन्दा विश्वामित्र: –
  •     इन्होंने अग्नि वायु, इन्द्र वरुण, अश्विनौ विश्वदेवा, सरस्वती, मरुद, इन सभी के प्रति अपनी श्रध्दा व्यक्त करते हुए सभी सूक्तों को सर्मपित किया है।

  • ऋषि जेता मधुच्छन्दस: –
  •     इन्होंने भी इसी प्रकार से देव इन्द्र की वंदना करते हुए सूक्तों को लिखा है। 3. मेधातिथि; काण्व: – 

        इन्होंने भी अग्नि को श्रेष्ठ मानते हुए इला, सरस्वती और मही तीनों देवियों को सुख देने वाली बताया है। अग्नि और सूर्य को भी अनुष्ठानों में यजन कर्म के लिए पुकारते हैं। अश्विनी कुमारों इन्द्र, वरुण, अग्नि, मरुतःऋषभ, पवन इन सभी की अपने सूक्त छंदों, द्वारा वंदना की है।

     

  • देवता ब्रह्मणस्पतिः
  • प्रभुतय इसमें कहा है कि मुझे सोम निचोडने वाले को उशिज के पुत्र कक्षीवान के तुल्य विख्याती प्रदान करो।

  • ऋषि-शुनः शेपः
  •  इन्होंने भी अदिति पुत्र वरुण का आह्वान किया है।और अग्नि, पवन, इन्द्र, उषा, अश्विनी कुमारों सभी के लिए वंदना करते हुए अपनी श्रद्धा को व्यक्त किया है।

  • ऋषि हिरण्यस्तूप: अंगिरसः
  • इन्होंने भी कहा है कि हे अग्ने! तुम अंगिराओं में सर्वश्रेष्ठ, और प्रथम हो। तुमने मनु और पुरखा सम्राट को स्वर्ग के संबंन्ध में बताया था । जब तुम मातृ-भूत दो काष्ठों में रचित होते हो तब तुम्हें पूर्व की तरफ ले जाते हैं । इसी प्रकार इंद्र, अश्विन, अग्नि, सभी की वंदना की है। और उनसे सुख, संमृद्धि की कामना करते हुऐ सूक्तों को लिखा है।

  • ऋषि-कण्वो घोरः-
  • इन्होंने कहा है कि हे कण्वगोत्र वाले ऋषियों! क्रीडा- परिपूर्ण अहिंसित मरुदगण रथ पर सुशोभित है। उनके लिए वंदना गान करो। मरुदगण चलते हैं; तब मार्ग मे एक-दूसरे से बात करते हैं उनकी उस ध्वनी को कौन सुनता है? हे मरुतों गति वाले वाहन से जल्द पधारो यह कण्ववंशी और अन्य विद्वान संगठित हैं उनके द्वारा खुशी ग्रहण करो । इसी प्रकार इन्होंने भी देवता मरुत ब्रह्मणस्पति, आदित्य, पुषा, रुद्र, सभी की वंदना की है।

  • ऋुषि-प्रस्कण्व: काण्वः
  • इन्होंने अग्नि से अर्चना यज्ञ करते हुए कहा है, हे अग्ने! वसु, रुद्र और आदित्यों का इस अनुष्ठान में पूजन करो। अनुष्ठान में परिपूर्ण घी, अन्नवर्धक, मनु-पुत्र देवों का अर्चन करो। हे अग्ने! देवगण मेधावी हविदाता के सुख की अभिलाषा करने वाले हैं । तुम रोहित नामक अश्ववाले हो । हे पुज्य (उन तैंतीस देवों को यहाँ लाओ।) जिस प्रकार आपने प्रिय, मेघा, विरुप और अंगिरा की पुकार तुमने सुनी थी, वैसे ही अब प्रस्कण्व की पुकार को सुनो।

    • यहाँ पर साफ तौर से बताया है कि हमारे सिर्फ तैंतीस देवी-देवता हैं न की तैंतीस करोड।

     

  • ऋषि-सव्य अंगिरस: –
  •     इन्होंने अपने सभी छंदों को देवता इंद्र को समर्पित किया है उन्हीं की वीरताओं का वर्णन किया है। 10. ऋषि नोधा गोतमोः–        इन्होंने भी देवता, अग्नि, इंद्र, मरुत इन सभी की स्तुति की है और अपनी श्रद्धा अर्पित की है।

  • ऋषि-पाराशर शाक्त्यः
  • इन्होंने भी अपने छंद में अग्नि देवता को कहा है कि आप सोम के तुल्य औषधियों की वृष्टि करते हैं। बालक के तुल्य दिप्तिमान विशाल ज्योति वाले होते हैं । उसी अग्नि के विषय में अपने छंदों को लिखा है।

  • ऋषि गोतमो राहूगणोः
  • इन्होंने अपने छंदों मे कहा है कि हे अग्ने! गोतमवंशी तुम्हारे लिए अत्यंत उज्वल वंदनाओं की मृदु संकल्पों से प्रार्थना करते हैं । धन की इच्छा से गोतमवंशी तुम्हारी वंदनाएँ करते हैं। हम भी उज्ज्वल मंत्रों से तुम्हारा पूजन करते हैं। इसी प्रकार इंद्र, मरुत, अश्विनी कुमारों, सोम (यहाँ सोम का अर्थ रस ताकत से हैं।) उषादय- इन सभी के विषय में वंदना की है।

  • ऋषि-कुत्स: अंगिरस: –
  • इन्होंने सभी छंदों को अग्नि को सर्मपित किया है।

  • ऋषि कश्यपो मारीचः
  • इन्होंने भी छंद को अग्नि को समर्पित करते हुए कहा है कि हम धनोत्पादक के लिए सोम निष्पन्न करें। जैसे नाव नदी को पार करा देती है, वैसे ही वह अग्नि हमको दुःखों से पार करा दे।

  • ऋषि वज्राश्व अम्वरिब: –
  •  इन्होंने इंद्र को बलशाली और सबसे ताकतवर बताया है। वैसे तो सभी ने इंद्र को अपने-अपने छंदों में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है और इंद्र को शक्तिशाली बताया है उन्हें सभी देवताओं में शक्तिशाली माना है।

  • ऋषि कुत्स: अंगिरसः
  • इन्होंने भी देवता इन्द्र को अपना छंद सर्मपित करते हुए लिखा है  कि जिसने राजा ऋजिश्रवा के संग कृष्ण नाम दैत्य की प्रजाओं का पतन किया हम उस वज्रधारी, वीर्यवान इंन्द्रदेव का मरुतों से युक्त सुरक्षा के लिए आह्वान करते हैं। और हर प्रकार से उनकी वंदना करते हुए उनका गुणगान करते हैं। इन्द्र ने जो-जो कार्य किए हैं जिन-जिन राक्षसों को मारा है,उनका भी नाम लेते हुए सबके विषय में लिखा है। जैसेः-व्यंस,शम्बर, वप्रुह्ण और शुष्ण नमाक दुष्टों का पतन किया है। ऋषि ने भी इन्द्र विश्वदेवों ,अग्नि, ऋुभुगण (ऋभुओं का मतलब तेज दिमागवालों से है जिन्होंने अपनी मेहनत से इन्द्र के समान सम्मान पाया।) देवता -उषा ,रुद्र सूर्य;सभी के लिए छंन्द लिखे हैं ।

  • ऋषि- कक्षीवानः
  • ऋषि- कक्षीवान उशिकपुत्र हैं। उन्होंने अपने छन्दों में अश्विनी कुमारों का  गुणगान किया है, जैसे वृद्ध च्यवन ऋषि का बुढापा कवच के तुल्य हटा दिया। और बन्धुओं  द्वारा परित्यक्त ऋषि की आयु को वृद्धि कर कन्याओं का पति बना दिया। अर्थवा के पुत्र दध्यड ने अश्व के सिर को मध- विधा सिखायी। ऋजाश्रव को उनके पिता ने अंधा कर दिया था। उनके लिए तुमने सर्वश्रेष्ठ ज्योति वाली आँखें दी। इसी प्रकार ऋषि कक्षिवान इंन्द्र से प्रार्थना करते है कि मनुष्यों  के रक्षक इंन्द्रेव, भक्त अंगिराओं की वंदना कब सुनेंगे? ये जब गृहस्थ यजमान के सभी यज्ञकर्ताओं को अपने सभी तरफ देखेंगे तब अत्यंन्त उत्साहपूर्वक जल्दी से प्रकट होंगे।यहाँ सभी ऋषियों ने देवता इंन्द्र को महत्व दिया है, और हर प्रकार से उन्हें खुश करने के लिए अपने छंन्दों में उनका गुणगान किया है।


    Read Full Blog...


    श्री वेद स्तुति : वेदों का पाठ प्रारम्भ करने से पहले करें पढ़े वेद स्तुति मंत्र


    Read More

    श्री वेद स्तुति (SHRI VED STUTI) 

    हिंदु धर्म में चार वेद है। वेदों का पाठ प्रारम्भ करने से पहले वेद स्तुति मंत्र के द्वारा वेदों की स्तुति की जाती है।

    नमः शम्भवे च मयोभवे च नमः शंकाराय च ।
    मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।


    Read Full Blog...



    Wefru Services

    I want to Hire a Professional..