ऋग्वेद अध्याय(02)

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                                                                       अध्याय – 2

 

  • कक्षीवान्‌ देवता विश्वेदेवा: –
  • मैं उशिक पुत्र कक्षीवान क्षितिज के वीरों से युक्त उनकी वंदना करता हूँ। वे क्षितिज और धरा के वीरों के तुल्य शस्त्र धारण कर रिपुओं को निरस्त करते हैं। इसी प्रकार ये कक्षीवान ऋषि भी सभी देवताओं की वंदना करते हैं, जैसे अग्नि, वरून, इंद्र, उषा इत्यादी । इन्होंने अपने छन्दों द्वारा देवता  स्वनयस्थ के बारे में भी लिखा है कि दानशील व्यक्ति सवेरे होते ही धन दान करता है, विद्वान उसे ग्रहण करते हैं। मैं, ( सिन्धु देवता  विद्वांस ) नदी के किनारे पर, निवास करने वाले राजा भाव्य के लिए मति (बुद्धि) द्वारा श्लोक भेट करता हूँ।

  • ऋषि परूच्छेप::-
  • इन्होंने भी अपने छन्दों द्वारा सभी देवताओं को अपनी श्रध्दा अर्पित की है, ये कहते हैं कि मैं सर्व रचित प्राणधारियों के ज्ञाता शक्ति के पुत्र अग्नि की देवी को आवाहन करने वाला मानता हूँ। वे अनुष्ठान प्रवर्तक धृत को अपनी लपटों से अनुसरण कर देवगण की कृपाओं को प्राप्त कराते हैं। ऋषि परूच्छेप: ने भी इन्द्र, अग्नि, वायु, मित्रावरुण सभी का वर्णन किया है।

    पूषा (सूर्य) विश्वेदेवा: – इन छंदों में इन्होंने लिखा है प्राचीन ऋषि दघ्य, अंगिरा, प्रियमेघ, कण्व, अत्रि, और मनु मेरे जन्म के ज्ञाता हैं। वे अदमुत गुणों से परिपूर्ण हैं। उन अत्यन्त गौरवशाली इन्द्रदेव और अग्नि को नमस्कार पूर्वक वंदनाएँ करता हूँ।

              होता (सूर्य, याचक) अग्नि याज्मा पढत़े और हवि के देवता हवि डालते है। बृहस्पति निष्पन्न सोमों द्वारा अनुष्ठान करते हैं।

    नोट: – उत्तम कर्मा बृहस्पति प्रसूत पर भी ग्यारह हों, अपने महत्त्व से अतंरिक्ष में भी ग्यारह हों, इस प्रकार जलों को धारण किया है। हे देवगण। तुम क्षितिज में ग्यारह हो, धरा! तुम तैंतीसों देवों से युक्त अनुष्ठान को स्वीकृत करो।

  • ऋषि दीर्घतमा: –
  • ऋषि दीर्घतमा ने भी अपने छन्दों में अग्नि को महत्त्व दिया है । और इन्होंने देवता, इन्द्र, विष्णु की भी वंदना की है। इन्होंने लिखा है कि व्यापक वंदनाओं से परिपूर्ण विष्णु ने काल के चौरानवे अंशो को चक्र की तरह घुमाया। वंदना करने वाले उन्हें ध्यान से खोजते और आवाहन करते हैं। इन्होंने देवता अश्विनों, द्यावापृथिव्यौ, ऋभव, अश्वः, विश्वेदवाः सभी के बारे में अपनी वंदना अर्पित की है।

    देवता  विश्वेदेवा :  छन्द में लिखा है जिस प्रकार से धरा पर गायत्री छन्द, अंतरिक्ष में त्रिष्टुप छन्द और अम्बर में जगती छन्द को जिसने स्थिर किया उसे जो जानता है वह देवत्व ग्रहण कर चुका है। गायत्री छन्द से जिन्होंने ऋचाओं में सोम को रचा। त्रिष्टुप छंद से वायु वाक्य बनाया। दो पद और चार पद वाली वाणी से वाक् उत्पत्ति की। अक्षर से सात छंन्द निर्मित किये। जगती छन्द से अम्बर में जलों को दृढ किया, रथन्तर साम में सूर्य को देखा। गायत्री के तीन चरण है, अतः वह शक्ति और महत्त्व में सबसे बड़ी हुई हैं।

    जगत के वीर्य रूप सात अर्ध गर्भ विष्णु के आदेश से सिद्धांतों में रहते हैं। मति और हृदय द्वारा जगत को समस्त तरफ से घेर लेते हैं। मैं नहीं जानता कि मैं क्या हूँ । मैं मूर्ख और अर्द्व – विक्षिप्त के तुल्य हूँ। जब मुझे ज्ञान का प्रथमांश ग्रहण होता है, तभी किसी वाक्य को समझ पाता हूँ। ये कहते हैं कि मेघाविजन एक ब्रह्म का असंख्य रूप मे वर्णन करते हैं।

    इनके अनुसार (हे सरस्वती) जल का एक ही रूप है। यह कभी ऊपर जाता है, नीचे आता है। बादल वृष्टि द्वारा धरा को तृप्त करते हैं और ज्वालाएँ अम्बर को हर्षित करती हैं। जलों और औषधियों के कारणभूत, सम्मुख ग्रहण हुए वंदना करने वालों के लिए मैं वृष्टि से तृप्त करता हूँ ।

  • ऋषि अगस्त्य: –इन्होंने भी अपने छन्दों द्वारा इन्द्र देवता का वर्णन किया है और कहा है कि हे मरूतों! मैंने अपने आक्रोश शक्ति से वृत्र को समाप्त किया। मैंने ही वज्र धारण कर मनुष्यों के लिए जलवृष्टि की। (इन्द्र) हे मरूदगण! एक मेरी शक्ति ही सर्वत्र रहती है। मैं अत्यन्त मेधावी और विख्यात उग्रकर्मा हूँ। मैं जो चाहूँ, वही करने में समर्थवान हूँ, जो धन जगत, में है उसका मै स्वामी हूँ। ऋषि कहते हैं इन्द्र- पुत्र मरूद्‌गण नमस्कार करने वाले की सुरक्षा करते हैं, वे हविदाता को दुःखी नहीं होने देते।
  • सखा और वरूण, यज्ञ निंदकों से सुरक्षा करते हैं। अर्यमा उनको नष्ट करते हैं। हे मरूद्‌गण! पानी वाले बादल जब तुम्हारा जल त्यागने का समय आता है तब निश्चल बादल भी डिग जाते हैं।

    ये इन्द्र को समर्पित छन्द है इसमें कहते हैं कि हे धनपते! तुम धनों के स्वामी हो। मित्रपते! तुम मित्रों के शरण रूप हो। हे इन्द्र देव! तुम मरूतों के संग समानता के शरण रूप हो। हे इन्द्रदेव! तुम मरूतों के साथ बराबरी वाले हो, हमारी हवियाँ ग्रहण करो।

              हे इन्द्रदेव! आहलादकारी सोम का पान किया, तुम पुष्ट हो गये। वह वीर्यवान पौष्टिक, विजेता सोम तुम्हारे लिए ही है। हे इन्द्रदेव! हमारा वह पौष्टिक एवं हितकारी पेय तुम्हें ग्रहण हो। तुम बलिष्ठ धन ग्रहण करने वाले, रिपु (दुश्मन) को वशीभूत करने वाले अमर हो।

              जैसे तुमने प्राचीन वंदना करने वालों को सुख प्रदान किया, वैसे ही प्यासे को जल देने के तुल्य मुझे भी सुख प्रदान करो। मैं तुम्हारा बार-बार आवाहन करता हूँ। तुम मुझे अन्न, शक्ति और दानशीलता प्राप्त करवाओ। इन्होंने भी सभी के लिए लिखा है जैसे अन्न, अग्नि, अश्विनों, अम्बर-धरा, विश्वेदेवा, बृहस्पति, अत्पृर्ण सूर्याः आदि।

  • ऋषि लोपामुद्राऽगस्त्यौ। देवता रतिः–
  • (लोपामुद्रा) यह नाम (अगस्त्य ऋषि) की पत्नी का है। वह रति के विषय मे कहती हैं कि मैं सालों से दिन रात जरा की सन्देश वाहिका उषाओं में तुम्हारी सेवा करती रही हूँ। वृद्धावस्था देह के सौन्दर्य को समाप्त करती है। इसलिए यौवन काल में ही पत्नि ग्रहस्थ-धर्म का पालन करके उसके उद्येश्य को पूर्ण करें।

              धर्म पालन पुरातन ऋषि देवों से सच्ची बात करते थे। वे क्षीण हो गये। और जीवन के परम फल को ग्रहण नहीं हुए इसलिए पत्नी-पति को संयमशील और विद्या अध्ययन में लीन विद्वान को भी उपयुक्त अवस्था में काम भाव ग्रहण होता है। और वह अनुकुल भार्या को ग्रहण कर संतानोत्पादक का कर्म करता है।

              विभिन्न तपस्याओं से अगस्त्य ऋषि ने असंख्य संतान और शक्ति की कामना से दोनों वरणीय वस्तुओं को पुष्ट किया और देवगणों से सच्ची अनुकम्पा को पाया।

  • ऋषि गृत्समद: –
  • इन्होंने भी अग्नि की महिमा का वर्णन करते हुए अपने छन्दों मे कहा है। हे अग्ने! तुम जल से उत्पन्न हुए हो। पाषाण, वन और औषधि में हर्षित होते हो। अनुष्ठान की इच्छा होने पर अध्वर्य और ब्रह्म भी तुम्हीं हो। हमारे गृहों के तुम्हीं पोषक हो। तुम विष्णु रूप वंदनाओं के स्वामी तथा अधीश्वर एवं, मति प्रेरणा में समर्थवान हो। तुम आदित्यों के मुँह एवं देवों के जिवहा के रूप हो।

  • ऋषि गृत्समद इत्यादयः अग्न्यादय::-
  • हे कुशविद्यमान अग्ने! हमको विशाल धन दिलाने हेतु बढोतरी करो। तुम मतिमय (बुद्धिमय) और पराक्रम पूर्ण हो। हे वसुदेवो! हे विश्वदेवो! हे आदित्यो! तुम धृत सिंचन कुश पर पधारो।

              अग्नि रूप त्वष्टा की कृपा से हमें शीघ्र कर्मकारी अन्नों के उत्पादक कीर्ति और देवों की इच्छा वाला पराक्रमी पुत्र ग्रहण हो। हमारी संतान अपने वंश का पोषण करने वाली हो और हमें अन्न की प्राप्ति हो।

              मैं अग्नि में धृत बन गया हूँ। हे मनोकामना वर्षक अग्ने। हविदान के समय देवताओं को पुकारकर उनकी हर्षिता ग्रहण करते हुए उनको द्रव्य पहुँचाओ।

  • ऋषि- सोमाहुति भार्गव: –
  • इन्होंने भी अग्नि के प्रति अपने शब्दों द्वारा अपने छन्दों में अग्नि की वंदना की है। तुम्हारे महत्व को जानने वाले यजमान समस्त देवों को तृप्त कर सकें, वह कर्म करो। हम जिस अनुष्ठान को करते हैं। वह तुम्हारा ही है। तुम ज्ञानी हो, हमारी कामनाएँ पूर्ण करने के लिए कुश पर पधारो।

              हे अग्नि! तुम पोषणकर्ता हो। हमारे सुन्दर धेनुओं ऋषभों और बछड़ों द्वारा अर्चनीय हो, मेधावी शक्ति के पुत्र, अनुष्ठान सम्पादक, प्राचीन, समिधा रूप अन्न वाले, धृत सिंचन के अभिलाषी अग्नि अत्यन्त महान हैं।

  • गृत्समद: –
  • रिपुनाशक और सुशोभित अग्नि अत्यन्त तेजोमय हैं। इनकी शोभा दिव्य है। हम अग्नि, इन्द्र, सोम तथा अन्य देवों की शरण ग्रहण कर चुके हैं। अब कोई हमारा बुरा नहीं कर सकता। हम रिपुओं को पराजित कर सकने, में समर्थवान हों।

  • ऋषि गृत्समद: भार्गव: / शोनक: –
  • ये ऋषि कहते हैं, हे अग्ने! तुम्हारें जन्म स्थान में तुम्हें पूजेंगे। जहाँ प्रकट हुए हो उस जगह की अर्चना करेंगे। वहाँ दीप्तिमान्‌ होने पर हवियाँ तुम्हें दी जाती हैं। हे अग्ने!  तुम महान्‌ अनुष्ठान कर्ता हो। हमको दिए जाने योग्य अन्नों को देवों से दिलाओ। तुम धन के मालिक हों, हमारी प्रार्थना के ज्ञाता बनो। हे अग्ने! अपने तेज से रिपुओं को पराजित करते हुए हमारी इच्छा योग्य वंदनाओ को समझो। तुम्हारी शरण में हम मनु के तुल्य वंदना करते हैं। तुम धनदाता हो, हाथ में जुहूँ लेकर मैं तुम्हें श्लोकों से पुकारता हूँ।

              इन्होंने इन्द्र को भी प्रसन्न करने हेतु छन्द लिखे और उनकी वंदना की। हे इन्द्र देव! हमको निवास बिन्दु और श्रेष्ठ पौरूष दो। तुमं सोम छानंने वाले और यजमानों को अन्न प्रदान करते हो, तुम सत्य स्वरुप हो। हम प्रिय सन्तानादि से परिपूर्ण हुए तुम्हारी प्रार्थना का गान करेंगे।

     

    जिस इन्द्रदेव ने निन्यानबे बाहु वाले 'उरण' तथा 'अर्बुद' का शोषण किया, उसी इन्द्रदेव को सोम सिद्ध होने पर भेंट करो। वज्र से शम्बर के पाषाण नगरों को तोड़ दिया तथा वर्चो के एक लाख भक्तों को मारा, उन्हीं इन्द्रदेव के लिए सोमरस ले आओ।

              अंगिरावंशियों की वंदना पर इन्द्रदेव ने शक्ति को विमुक्त किया और पर्वत के दरवाजे को खोला तथा कृत्रिम रूकावटें दूर की। सोम की खुशी में इन्द्रदेव ने यह सब किया।

              जैसे भार्याऍं पतियों को हर्षित करती हैं, वैसे ही हम भी अपने रूचिकर श्लोक द्वारा तुम्हें हर्षित करेंगे। हे मनुष्यों । अंगिराओं के तुल्य नये श्लोकों से इन्द्रदेव का अर्चन करो। अनेक अन्न वाले इन्द्र देव समस्त जगत के स्वामी हैं। अपनी शक्ति से वृत्र को समाप्त कर तुमने जल को बहाया। तुम शतकर्मी हो। अन्न और शक्ति के ज्ञाता हो।

     

  • ऋषि गृत्समद: भार्गवः–
  • हे ब्रह्मणस्पते। तुम देवों में अद्‌भुत और कवियों में महान हो। हे राक्षसों का वध करने वाले, देवों ने तुम्हारा अनुष्ठान भाग पाया है। जैसे सूर्य अपनी दीप्ति से किरणें रचित करते हैं, वैसे ही तुम श्लोक रचित करो। हे यज्ञ उत्पन्न ब्रह्मणस्पते! आर्यो द्वारा पूजित देदिप्यमान अनुष्ठान वाला धन सुशोभित होता है उसी तेज युक्त धन को हमें प्रदान करो। हे ब्रह्मणस्तपे देवगण जिसकी रक्षा करते हैं, वही कल्याण को वहन करने वाला होता है। हम पुत्र पोत्र हुए इस अनुष्ठान में श्लोक गायेंगे।

  • ऋषि-गुत्समद, भार्गव: शोनकः–
  • इन्होंने भी अपने छंदों द्वारा बृहस्पति की वंदना की है। और कहा है कि हे मनुष्य ब्रह्मणस्पति ने तुम्हारे लिए ही सनातन और दिव्य वृष्टि का दरवाजा खोला। उन्होंने मंत्रो को अदभुतता प्रदान की और अम्बर-धरा को सुख वृद्धि करने वाला बनाया।

              ब्रह्मणस्पति पूजनीय हैं। वे समस्त पदार्थों को अलग करते और मिलाते है। सभी उनका पूजन करते हैं तभी सूर्य उदय होता है। जिसे ये मित्र भाव से देखते हैं उसी तरफ समस्त,रस प्रवाहमान होते है। वह विविध सुखों का उपभोग करने वाला ब्रह्मणस्पति पूजनीय हैं। वे समस्त पदार्थों को अलग करते महान भाग्य से परिपूर्ण होकर समृद्धि प्राप्त करता है। सभी उनका पूजन करते हैं तभी सूर्य उदय होता है। जिसे ये मित्र भाव से देखते हैं उसी तरफ समस्त,रस प्रवाहमान होते है। वह विविध सुखों का उपभोग करने वाला महान भाग्य से परिपूर्ण होकर समृद्धि प्राप्त करता है।

  • ऋषि कूर्मो, गृत्समदो वा: –
  • ये भी अपनी वंदना में लिखते हैं,आदित्य धरा, अंतरिक्ष, स्वर्ग, सत्य, जल तथा सत्य जगतों के धारणकर्ता हैं। ये तीन सवन परिपूर्ण यज्ञ वाले, अनुष्ठान से ही महिमावान्‌ हुए हैं। हे अर्यमा! हे सखा और वरूण! तुम्हारा कार्य प्रशंसनीय है। इसी तरह देवता वरूण की वंदना में भी लिखा है आप प्रकाशमान और अपनी महिमा से जगत्‌ के जीवों की उत्पत्ति करने वाले वरूण के लिए यह हवि रूप अन्न है । वे अत्यन्त तेजस्वी वरुण यजमान को सुख  प्रदान करते हैं। मैं उनका पूजन करता हूँ।

    सभी देवों की वंदना करते हुए कहते हैं। हे विश्वेदेवताओं! हम तुम्हारा कौन-सा कर्म साधन कर सकेंगे? हे सखा, वरुण, अदिति, इन्द्रदेव और मरुतो! हमारा कल्यान करो!

  • ऋषि गृत्समद: भार्गवः शोनकः: –
  • हे इन्द्रदेव! हे सोम! तुम जिसे समाप्त करना चाहते हो, उसका समूल पतन करो। रिपुओं (दुश्मनों) के विरूध्द अपने तपस्वियों को शिक्षा दो। तुम मेरी सुरक्षा करो तथा इस जगह से डर को भगा दो।

    हे सरस्वती! हमारी सुरक्षा करो। मरूद्‌गण युक्त पधारकर रिपुओं पर विजय प्राप्ति करो। इन्द्रदेव ने धीरता का अहंकार करने वाले युध्द अभिलाषी शण्डामर्क का वध किया था। हे बृहस्पते! जो अदृश्य रहकर हमें समाप्त करना चाहता है, उसे खोजकर अपने विद्रोहियों पर समस्त तरफ से प्राणघातक वज्र से प्रहार करो।

    ऋषि लिखते हैं, हे अम्बर! हे धरा! नवीन शलोकों से तुम्हारा पूजन करता हूँ। अन्न रूप हवि प्रदान करता हूँ। औषधि, सोम, पशु – ये तीन प्रकार के धन मेरे पास हैं। हे देवों! तुम हमारी वंदना चाहते हो, हम भी तुम्हारी प्रार्थना चाहते हैं।

              इन्होंने देवता द्यावाप्रृथिवी की वंदना में कहा है गुंगु, कुहू देव भार्या, अंधकार वाली रात्रि और सरस्वती देवी का आहवान करता हूँ। मैं इन्द्राणी की महान शरण हेतु आहुत करता हूँ तथा सुख- अभिलाषा से वरूणानी का भी आवाहन करता हूँ। इन्होंने रूद्रः और मरूतः के बारे में भी छन्द लिखे हैं। ये अपान्नपात (अन्न) की वंदना करते हुए लिखते है छन्द, इला, सरस्वती, भारती – ये त्रिदेवियाँ त्रासरहित अपान्नपात देव के लिए अन्न धारण करती हैं। ये जल में रचित पदार्थ की बढ़ोतरी करती हैं। अपान्नपात ( सबसे पहले प्रकट जल) के सार को हम पीते हैं। शीघ्रगामी और ध्वनिवान जलपात्र अग्नि हमको प्रचुर मात्रा में अन्न और मनोहर रूप प्रदान करें। वे वंदना की इच्छा करते हैं इसलिए मैं वंदना करता हूँ।

              देवता द्रविणोदा: – हे द्रव्य दाता अग्ने! तुम्हारा वाहन घोड़े से परिपूर्ण हो। हे वनस्पते! तुम दृढ एवं अहिंसक हो। जिन्होंने होता के अनुष्ठान में सोमपान किया और पिता के अनुष्ठान में ह्रष्ट-पुष्ट हुए नेष्टा के अनुष्ठान में अन्न का सेवन किया, वे स्वर्ण देने वाली ऋत्विव्‌ की मृत्यु निवारक सोमरस का पान करें।

    हे सविता देव। अंतरिक्ष में तुम्हारे द्वारा दृढ़ जल भाग को खोज करने वाले पाते हैं। तुमने पंक्षियों के निवास के लिए वृक्षों का विभाजन किया तुम्हारे कर्म को कोई नही रोक सकता।

              [देवता सविता अर्थ

    (1) सविता देव स्वर्ग को प्रकाशित करते हैं और उषा के उदित होने के पश्चात प्रकाश फैलाते हैं।

    (2) प्रेरक सूर्य प्रतीकात्मक रूप में बाढ़ अग्नि घर में रचित तेज यजमान के अन्न कोष्ठों मे विद्यमान हैं। उषा माता सविता प्रेरित अनुष्ठान का उत्तम हिस्सा अग्नि को प्रदान कर चुकी हैं ।]

     

              ऋषि शोनक ने देवता अश्विनी सोमा पूषणो, अदिती, इन्द्र, वायु, मित्रावरुणौ, प्रभृतिः सभी की छंदों से वंदना की है।

    देवता कपिंजल इन्द्र: –

              [ कपिंजल का अर्थ:

    (1) पपीहा चातक

    (2) गौरा या चटक

    (3) भरदूल

    (4) तीतर

    (5) एक प्राचीन मुनी, बारम्बार ध्वनी करने वाला ]

    भविष्य का निर्दैश करनेवाला कपिंजल जैसे नौका को चलाता है वैसे ही वाणी को मार्गदर्शन देता है।हे शकुनि! तुम मंगलप्रद हो। किसी प्रकार की हार, कही से भी आकर तुमको ग्रहण न हो। समय-समय पर अन्न की खोज करने वाले पक्षीगण वंदना करने वाले की तरह परिक्रमा करते हुए सुन्दर ध्वनी उच्चारण करें। सोम गायकों द्वारा गायत्री छन्द और त्रिष्टुप छन्द-उच्चारण करने के तुल्य, कपिञ्जल भी दोनों प्रकार की वाणी उच्चारण करता हुआ सुनने वाले को मोहित कर लेता है।

              जब तुम चुप होकर बैठते हो तब हमसे हर्षित नहीं जान पडते। जब तुम उडते हो तब कर्करि के तुल्य मृदुध्वनी करते हो। हम पुत्र और पुत्रवान हुए इस अनुष्ठान में रचित हुई प्रार्थनाओं का गान करेंगे।

  • ऋषि-गथिनो विश्वामित्रः –
  • देवता अग्नि को समर्पित करते हुए छन्द में कहते हैं, हे अग्ने! अनुष्ठान के लिए तुमने मुझे सोम प्रस्तुत करने को कहा इसलिए मुझे शक्ति प्रदान करो। तेजस्वी होता (याचक) देवताओं के प्रति सोम कुटने के लिए पत्थर हाथ में ग्रहण करता और वंदना करता हूँ। तुम मेरी देह की सुरक्षा करो। हे अग्ने हमने उत्तम रुप से अनुष्ठान किया है हमारी वंदना में वृद्धि हो। समिधा और हवि से हम अग्नि की सेवा करें। क्षितिज वासी देवताओं ने वंदना करने वालों को श्लोक बताया । वंदनाकारी वंदना के योग्य अग्नि की प्रार्थना करना चाहते है।

              जल वृष्टि के बाद जल के गर्भ रुप अग्नि की विभिन्न रुप वाली रश्मियाँ विद्यमान होती हैं। उस सुन्दर अग्नि के माता पिता धरा और अम्बर हैं।

              हे शक्तिपुत्र अग्ने सभी के द्वारा धारण करने पर तुम उज्ज्वल और चाल परिपूर्ण किरणों द्वारा प्रकाशवान होते हो। जब अग्नि यजमान के श्लोक में बढोतरी को प्राप्त करते हैं तब महान जल की वृष्टि होती है।

              समस्त मनुष्यों में विद्यमान हुए समस्त प्राणधारियों में विद्यमान अग्नि को विश्वामित्र ने चैतन्य किया। हम उनकी कृपा दृष्टि से अनुष्ठान योग्य अग्नि के प्रति उत्तम भाव रखें । हे देवताओं का आवाहन करने वाले अग्निदेव! हमें अन्न और धन प्रदान करो। हमारे कुल की बढोतरी करने वाला और सन्तान को जन्म देने वाला पुत्र प्रदान करो। हे अग्ने! हम पर कृपा करो। महाबलिष्ठ, मेधावी, पूजनीय, अम्बरवासी जिस अग्नि को पवन ने क्षितिज से लाकर धरा पर विद्यमान किया, उन्हीं अनेक गति वाले पीतरंग, तेजस्वी अग्नि से हम धन की विनती करते है। सभी को आनंद देने वाले, स्वर्णमय रथ वाले, पीतरंग वाले, जल में निवास करने वाले, सर्वव्यापी, द्रुतगामी, बलिष्ठ, ज्योर्तिमान्‌, वैश्वानर अग्नि को देवों ने ढृढ किया।

    हे मेधावी वैश्वानर अग्ने! तुम अपने जिस तेजद्वारा सर्वज्ञ बने मैं तुम्हारे उसी तेज को प्रणाम करता हूँ। तुम प्रकट होते हो। तुम धरा-अम्बर आदि समस्त जगतों में विद्यमान होते हुए जीवमात्र में रम जाते हो।

    सूर्यदिप्ति के संग अग्निरुप भारती ग्रहण हो। देवों के संग मनुष्यों को इला ग्रहण हो। तेजस्वी विद्वानों के संग सरस्वती भी यहाँ पधारें। ये तीनों देवियाँ कुश के आसन पर विराजमान हों।

    हे त्वष्टा। जिस वीर्य से कर्मवान, पराक्रमी, सोम सिद्धकरने वाला, देवों का पूजक पुत्र रचित हो सके, तुम हर्षित होकर वैसा ही पुष्ट वीर्य हमको दो । जब मातरिश्वा ने भृगुओं के लिए गुफा में विराजमान हविवाहक अग्नि को चैतन्य किया तब तेजस्वी, महान अग्नि ने अपने तेज से सूर्य तथा जगत को भी आर्श्चय चकित कर दिया ।

    व्यापक धरा सभी कीर्ति में जिन अग्निदेव की समृद्धि के लिए वंदना करती है, वे देवों के होता, शक्ति संपन्न सुन्दर रुप वाले को विविध कार्यो की कारणभूत गौ परिपूर्ण को भूमि सदेव प्रदान करो। हमको कुल की बढ़ोतरी करने वाला सन्तानोत्पादन में समर्थ पुत्र प्रदान करो यही तुम्हारी कृपा होनी चाहिए।

    [मातरिश्वा का अर्थः – संज्ञा पु: –

    (1) अंतरिक्ष में चलने वाला, पवन

    (2) वायु

    (3) हवा

    (4) एक प्रकार की अग्नि ]




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