Blog by Omtva | Digital Diary
" To Present local Business identity in front of global market"
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पुष्पांजलि का अर्थ है फूलों से भरी हुई अंजलि जो किसी देवता अथवा महापुरुष को अर्पित की जाती है।
धार्मिक अनुष्ठानों अर्थात हवन, पूजन, आरती, ग्रहप्रवेश, विवाह कर्म या अन्य पूजन से संबंधित कार्यों में देव शक्तियों को मंत्र पुष्पांजलि अर्पित की जाती है, मंत्र पुष्पांजलि के बाद ही धार्मिक पूजा के अनुष्ठान पूर्ण होने की मान्यता है।
प्रथम: ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तनि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा: ॥
द्वितीय: ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने।
नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे।
स मस कामान् काम कामाय मह्यं।
कामेश्र्वरो वैश्रवणो ददातु कुबेराय वैश्रवणाय।
महाराजाय नम: ।
तृतीय: ॐ स्वस्ति, साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं
वैराज्यं पारमेष्ट्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं ।
समन्तपर्यायीस्यात् सार्वभौमः सार्वायुषः आन्तादापरार्धात् ।
पृथीव्यै समुद्रपर्यंताया एकराळ इति ॥
चतुर्थ:
ॐ तदप्येषः श्लोकोभिगीतो।
मरुतः परिवेष्टारो मरुतस्यावसन् गृहे।
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद इति ॥
॥ मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ॥
इसका तात्पर्य यह है कि हे ईश्वर हमसे जाने अनजाने में किये गये और जन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। हे ईश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें। परिक्रमा के समय हाथ में रखे पुष्पों को ईश्वर से क्षमा मांग कर मंत्रपुष्पांजलि मंत्र बोलकर देव मूर्ति को समर्पित कर देना चाहिये।
किस देव मंदिर में कितनी परिक्रमा करें ?
ईश्वर पूजा में अगाध श्रद्धा होनी चाहिये। श्रद्धारहित पूजा-अर्चना एवं परिक्रमा सदैव निष्फल हो जाती है। श्रद्धा का ही चमत्कार था, जिसके बल पर श्रीगणेशजी ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को शिव स्वरूप और माता को शक्ति रूप मानकर अपने ही माता-पिता की परिक्रमा कर भगवान शिव एवं माता पार्वती से सर्वप्रथम पूजेजाने का आशीर्वाद प्राप्त किया।
प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक तथा मानसिक रूप से भगवान के समक्ष पूर्णरूप से समर्पित कर देना होता है।
भारतीय संस्कृति में परिक्रमा या प्रदक्षिणा का अपना एक विशेष महत्व एवं स्थान है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसके बांयी तरफ से घूमना। इसे ही प्रदक्षिणा कहते हैं। यह हमारी संस्कृति में अतिप्राचीन काल से चली आ रही है।
खानाए काबा मक्का में परिक्रमा करते हैं, बोध गया में भी परिक्रमा की परम्परा आज भी यथावत है। विश्व के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है।
''प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणां''
इसका अर्थ है कि अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा (परिक्रमा) में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे ही परिक्रमा या प्रदक्षिणा कहा जाता है।
'शब्दकल्पद्रुम' में बताया गया है कि देवता को श्रद्धा-आस्था एवं उद्देश्य से दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। वैदिक दार्शनिकों-विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा-विघ्नविहीन भाव से सम्पादित करने के लिये प्रदक्षिणा का विधान किया गया है।
परिक्रमा करने का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा से जुड़़ा है। वास्तव में ईश्वर की पूजा-अर्चना, आरती के पश्चात् भगवान के उनके आसपास के वातावरण में चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है और नकारात्मकता घटती है।
इससे हमारे हृदय में पूर्ण आत्मविश्वास का संचार होता है तथा जीवेष्णा में वृद्धि होती है।
परिक्रमा का धार्मिक पहलू यह है कि इससे अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जीवन में कष्ट-दुःख का निवारण हो जाता है। पापों का नाश हो जाता है।
किसी भी देव की परिक्रमा या प्रदक्षिणा करने पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। परिक्रमा से शीघ्र ही मनवांछित मनोकामना पूर्ण हो जाती है। परिक्रमा प्रारम्भ करने के पश्चात् बीच में रूकना निषेध है।
परिक्रमा वहीं पूर्ण करें जहाँ से प्रारम्भ की गई थी।
परिक्रमा करते समय आपस में वार्तालाप नहीं करना चाहिये।
जिस देवता की आप परिक्रमा कर रहें हैं उनका ध्यान करें तभी आपको परिक्रमा का शीघ्र मनोवांछित फल प्राप्त होगा। परिक्रमा पूर्ण हो जाने पर भगवान को दण्डवत प्रणाम करें।
परिक्रमा करते समय देव पीठ को प्रणाम करना चाहिये। परिक्रमा का पूरे ब्रह्माण्ड के लिये भी विशेष महत्व है। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है, इसलिये ऋतुएँ आती-जाती हैं। ब्रह्माण्ड के अन्य ग्रह भी अपने-अपने पथ (कक्षा) पर परिक्रमा करते हैं और पूरी व्यवस्था का एक सन्तुलन बना रहता है।
इसी प्रकार देव मंदिरों के दर्शन करने के बाद परिक्रमा का विधान है। इससे मानव मन एवं हृदय देवत्व से जुड़ जाता है और जीवन में परम् पिता परमेश्वर की कृपा का संचार होने लगता है। परिक्रमा से मन पवित्र हो जाता है। विकार नष्ट हो जाते हैं।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का शाश्वत सत्य है। व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को आसानी से समझने के लिए परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया है। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सम्पूर्ण सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।
प्रायः प्रदक्षिणा या परिक्रमा किसी भी देवमूर्ति के चारों ओर घूमकर की जाती है लेकिन कभी-कभी देवमूर्ति की पीठ दीवार की ओर रहने से प्रदक्षिणा के लिये फेरे लेने की जगह पर्याप्त नहीं होती है। हमारे घरों में भी पूजन करते समय देवमूर्ति की स्थापना किसी दीवार के सहारे से ही की जाती है।
ऐसी दशा में देवमूर्ति के ही समक्ष अर्थात् आप जहाँ खड़े हैं वहीं दांयी तरफ से गोल घूमकर अपने खड़े रहने के स्थान पर भी परिक्रमा या प्रदक्षिणा कर लेना चाहिये। ऐसी परिक्रमा का फल भी मंदिर की पूरी की गई परिक्रमा के बराबर होता है।
परिक्रमा का मंत्र
यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च।
तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।
1. भगवान की मूर्ति और मंदिर की परिक्रमा हमेशा दाहिने हाथ से शुरू करना चाहिए। जिस दिशा में घड़ी के कांटे घूमते हैं, उसी प्रकार मंदिर में परिक्रमा करनी चाहिए। 2. मंदिर में स्थापित मूर्तियों सकारात्मक ऊर्जा होती है, जो कि उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर इस सकारात्मक ऊर्जा से हमारे शरीर का टकराव होता है, जो कि अशुभ है। जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा हमारे व्यक्तित्व को नुकसान पहुंचा सकती है। दाहिने का अर्थ दक्षिण भी होता है, इसी वजह से परिक्रमा को प्रदक्षिणा भी कहा जाता है।
विघ्नहर्ता श्री गणेशजी की तीन परिक्रमा करनी चाहिये, जिससे गणेशजी भक्त को रिद्धि-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं
सृष्टि पालनकर्ता भगवान विष्णु सभी सुखों के दाता है अतः शास्त्रों में उनकी चार परिक्रमा पर्याप्त मानी गई है। वे इससे प्रसन्न हो जाते हैं।
माँ भगवती जो पूरे जगत की जीवनदायिनी शक्ति हैं, उनके मंदिर में एक परिक्रमा का विधान है। माँ एक परिक्रमा से ही प्रसन्न हो जाती है। ऐसा संक्षिप्त नारदपुराण (कल्याण) पूर्वभाग-प्रथम भाग पृष्ठ 23 पर उल्लेख है।
पवनपुत्र हनुमानजी हर समय पद-पद पर अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखकर सहायता करते हैं, इनके मंदिर की तीन परिक्रमा करनी चाहिये। इतना करने पर वे प्रसन्न हो जाते हैं तथा संकट-पाप नष्ट हो जाते हैं।
सूर्य मंदिर में सात परिक्रमा करना चाहिये। इससे तेज बढ़ता है तथा ऊर्जा का संचार होता है।
भगवान शिव तो आशुतोष हैं अर्थात् थोड़ी से प्रार्थना करने पर प्रसन्न हो जाते है। हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि शिवलिंग की पूजा के दौरान भगवान को जल चढ़ाया जाता है तथा जल जिस स्थान पर गिरता है, उसे पैरों से लांघना नहीं चाहिये।
शिवजी अपने भक्तों पर पूरी नहीं मात्र आधी परिक्रमा से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः आधी परिक्रमा कर उन्हें वहीं प्रणाम करने के बाद पुनः आ जाना चाहिये। भगवान शंकर की दक्षिण और वाम परिक्रमा करने से स्वर्ग प्राप्त होता है और वह वहाँ उनके धाम में लाखों वर्ष तक सुखपूर्वक रहता है।
अयोध्या, मथुरा, उज्जैन आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी, ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, नर्मदा की अमरकंटक से समुद्र तक की छः मासी परिक्रमा प्रसिद्ध है। वटवृक्ष की
श्री कृष्ण की चार परिक्रमा करने से पुण्य प्राप्त होता हैै।
भगवान श्री राम की चार परिक्रमा होती हैं।
भैरव भगवान की तीन परिक्रमा की जाती हैं।
शनि भगवान की सात परिक्रमा करनी चाहिए।
परिक्रमा करना सौभाग्य सूचक माना गया है।
इस प्रकार घड़ी की सूई की दिशा में परिक्रमा पापों का नाशकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। जो लोग शारीरिक रूप से परिक्रमा करने में समर्थ या सक्षम न हो तो प्रार्थना-पूजा-अर्चना करें, उन्हें भी ईश्वर परिक्रमा या प्रदक्षिणा का पूरा-पूरा फल देता है।
पीपल के वृक्ष में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास होने से इसे बहुत पवित्र माना जाता है। इसकी सात बार परिक्रमा करने से शनि दोष व अन्य ग्रहों के दोष नष्ट होते हैं।
महिलाओं द्वारा वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य सूचक होता है। विशेष कर वट-सावित्री अमावस्या/पूर्णिमा को महिलाएँ 108 फेरे या परिक्रमा लेती है। पीपल (अश्वत्थ) के वृक्ष की परिक्रमा दशा दशमी को महिलाएँ करती हैं।
आँवला नौमी को आँवले के वृक्ष की परिक्रमा करते हैं तथा आँवले के वृक्ष का पूजन कर वहीं भोजन भी करते हैं। इस तरह भारतीय संस्कृति पर्यावरण रक्षक है। हमारे पूर्वज वृक्ष तथा वनों का पर्यावरण में क्या महत्व होता है जानते थे। बड़े महापुरुष भी वटवृक्ष एवं पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान, योग करते थे।
शिवजी को वटवृक्ष के नीचे बैठते हैं। बुद्ध को अश्वत्थ (पीपल) के नीचे ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। हमें अन्य किसी देवता की प्रदक्षिणा ज्ञात न हो तो श्रद्धापूर्वक एक, तीन या पाँच प्रदक्षिणा कर सकते हैं।
'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं' अर्थात् अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है. प्रदक्षिणा को ही साधारण शब्दों में हम परिक्रमा कहते हैं. परिक्रमा के दौरान व्यक्ति का दाहिना अंग देवताओं की ओर होता है. शब्दकल्पद्रुम के अनुसार देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है.
ज्योतिषाचार्या प्रज्ञा वशिष्ठ के मुताबिक परिक्रमा को शोडशोपचार पूजा का अभिन्न अंग माना गया है. लेकिन परिक्रमा करना कोई आडंबर या अंधविश्वास नहीं है, बल्कि विज्ञान सम्मत है. दरअसल विधि-विधान के साथ प्रतिष्ठित देव प्रतिमा के कुछ मीटर के दायरे में सकारात्मक ऊर्जा विद्यमान रहती है. परिक्रमा करने से वो ऊर्जा व्यक्ति के शरीर में पहुंचती है.
दक्षिणावर्ती परिक्रमा करने के पीछे का तथ्य ये है कि दैवीय शक्ति की आभा मंडल की गति जिसे हम सामान्य भाषा में सकारात्मक ऊर्जा कहते हैं, वो दक्षिणावर्ती होती है. यदि लोग इसके विपरीत दिशा में वामवर्ती परिक्रमा करेंगे तो उस सकारात्मक ऊर्जा का हमारे शरीर में मौजूद ऊर्जा के साथ टकराव पैदा होता है. इससे हमारा तेज नष्ट होता है. इसलिए वामवर्ती परिक्रमा को शास्त्रों में वर्जित माना गया है.
वैसे तो किसी परिक्रमा का चलन तमाम धर्मो में है. लेकिन इसका प्राचीनतम उल्लेख गणेश जी की कथा में मिलता है. जब उन्होंने अपने माता-पिता के चारों ओर घूमकर सात बार परिक्रमा लगाई थी और इसी के बाद उन्हें प्रथम पूज्य कहा गया था.
नारद पुराण में सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा को लेकर कुछ विशेष नियम हैं. नारद पुराण के मुताबिक शिव जी की आधी और मां दुर्गा की एक परिक्रमा करनी चाहिए. हनुमान और गणेश जी की तीन और विष्णु भगवान व सूर्य देव की चार परिक्रमा की जानी चाहिए. वहीं पीपल की 108 परिक्रमा का विधान है.
कर्मलोचन नामक ग्रंथ के अनुसार जो व्यक्ति तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, उन्हें दस अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है. जो सहस्त्र नाम का पाठ करते हुए परिक्रमा करते हैं, उन्हें सप्त द्वीप वटी पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त होता है.
परिक्रमा करते समय कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना बहुत जरूरी है. परिक्रमा के दौरान मन को शुद्ध रखें और मन में प्रभु का नाम या किसी मंत्र का जाप करें. निंदा, क्रोध और तनाव आदि से दूर रहें. परिक्रमा हमेशा नंगे पैर ही करनी चाहिए. परिक्रमा के दौरान कुछ खाना-पीना नहीं चाहिए और न ही बातचीत करना चाहिए. परिक्रमा करते समय दैवीय शक्ति से याचना न करें. परिक्रमा के बाद साष्टांग प्रणाम जरूर करें.
Read Full Blog...MokshSanyasYog~ Bhagwat Geeta Chapter 18 | मोक्षसंन्यासयोग ~ अध्याय अट्ठारह
अथाष्टादशोऽध्यायः- मोक्षसंन्यासयोग
त्याग का विषय
अर्जुन उवाच
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ৷৷18.1৷৷
arjuna uvāca
saṅnyāsasya mahābāhō tattvamicchāmi vēditum.
tyāgasya ca hṛṣīkēśa pṛthakkēśiniṣūdana৷৷18.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्-पृथक् जानना चाहता हूँ ৷৷18.1॥
श्रीभगवानुवाच
काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ৷৷18.1৷৷
śrī bhagavānuvāca
kāmyānāṅ karmaṇāṅ nyāsaṅ saṅnyāsaṅ kavayō viduḥ.
sarvakarmaphalatyāgaṅ prāhustyāgaṅ vicakṣaṇāḥ৷৷18.2৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं ৷৷18.2॥
भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें:
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ৷৷18.2৷৷
tyājyaṅ dōṣavadityēkē karma prāhurmanīṣiṇaḥ.
yajñadānatapaḥkarma na tyājyamiti cāparē৷৷18.3৷৷
भावार्थ : कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ৷৷18.3॥
निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ৷৷18.4৷৷
niścayaṅ śrṛṇu mē tatra tyāgē bharatasattama.
tyāgō hi puruṣavyāghra trividhaḥ saṅprakīrtitaḥ৷৷18.4৷৷
भावार्थ : हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ৷৷18.4॥
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ৷৷18.5৷৷
yajñadānatapaḥkarma na tyājyaṅ kāryamēva tat.
yajñō dānaṅ tapaścaiva pāvanāni manīṣiṇām৷৷18.5৷৷
भावार्थ : यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं ৷৷18.5॥
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ৷৷18.6৷৷
ētānyapi tu karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā phalāni ca.
kartavyānīti mē pārtha niśicataṅ matamuttamam৷৷18.6৷৷
भावार्थ : इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ৷৷18.6॥
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ৷৷18.7৷৷
niyatasya tu saṅnyāsaḥ karmaṇō nōpapadyatē.
mōhāttasya parityāgastāmasaḥ parikīrtitaḥ৷৷18.7৷৷
भावार्थ : (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ৷৷18.7॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ৷৷18.8৷৷
duḥkhamityēva yatkarma kāyaklēśabhayāttyajēt.
sa kṛtvā rājasaṅ tyāgaṅ naiva tyāgaphalaṅ labhēt৷৷18.8৷৷
भावार्थ : जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ৷৷18.8॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ৷৷18.9৷৷
kāryamityēva yatkarma niyataṅ kriyatē.rjuna.
saṅgaṅ tyaktvā phalaṅ caiva sa tyāgaḥ sāttvikō mataḥ৷৷18.9৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ৷৷18.9॥
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ৷৷18.10৷৷
na dvēṣṭyakuśalaṅ karma kuśalē nānuṣajjatē.
tyāgī sattvasamāviṣṭō mēdhāvī chinnasaṅśayaḥ৷৷18.10৷৷
भावार्थ : जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ৷৷18.10॥
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ৷৷18.11৷৷
na hi dēhabhṛtā śakyaṅ tyaktuṅ karmāṇyaśēṣataḥ.
yastu karmaphalatyāgī sa tyāgītyabhidhīyatē৷৷18.11৷৷
भावार्थ : क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ৷৷18.11॥
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित् ৷৷18.12৷৷
aniṣṭamiṣṭaṅ miśraṅ ca trividhaṅ karmaṇaḥ phalam.
bhavatyatyāgināṅ prētya na tu saṅnyāsināṅ kvacit৷৷18.12৷৷
भावार्थ : कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ৷৷18.12॥
कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ৷৷18.13৷৷
pañcaitāni mahābāhō kāraṇāni nibōdha mē.
sāṅkhyē kṛtāntē prōktāni siddhayē sarvakarmaṇām৷৷18.13৷৷
भावार्थ : हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ৷৷18.13॥
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ৷৷18.14৷৷
adhiṣṭhānaṅ tathā kartā karaṇaṅ ca pṛthagvidham.
vividhāśca pṛthakcēṣṭā daivaṅ caivātra pañcamam৷৷18.14৷৷
भावार्थ : इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है ৷৷18.14॥
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः৷৷18.15৷৷
śarīravāṅmanōbhiryatkarma prārabhatē naraḥ.
nyāyyaṅ vā viparītaṅ vā pañcaitē tasya hētavaḥ৷৷18.15৷৷
भावार्थ : मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं ৷৷18.15॥
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ৷৷18.16৷৷
tatraivaṅ sati kartāramātmānaṅ kēvalaṅ tu yaḥ.
paśyatyakṛtabuddhitvānna sa paśyati durmatiḥ৷৷18.16৷৷
भावार्थ : परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ৷৷18.16॥
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ৷৷18.17৷৷
yasya nāhaṅkṛtō bhāvō buddhiryasya na lipyatē.
hatvāpi sa imāōllōkānna hanti na nibadhyatē৷৷18.17৷৷
भावार्थ : जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'।) ৷৷18.17॥
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ৷৷18.18৷৷
jñānaṅ jñēyaṅ parijñātā trividhā karmacōdanā.
karaṇaṅ karma kartēti trividhaḥ karmasaṅgrahaḥ৷৷18.18৷৷
भावार्थ : ज्ञाता (जानने वाले का नाम 'ज्ञाता' है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम 'ज्ञान' है। ) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु का नाम 'ज्ञेय' है।)- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम 'कर्ता' है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा क्रिया (करने का नाम 'क्रिया' है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है ৷৷18.18॥
तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि ৷৷18.19৷৷
jñānaṅ karma ca kartā ca tridhaiva guṇabhēdataḥ.
prōcyatē guṇasaṅkhyānē yathāvacchṛṇu tānyapi৷৷18.19৷৷
भावार्थ : गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन ৷৷18.19॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ৷৷18.20৷৷
sarvabhūtēṣu yēnaikaṅ bhāvamavyayamīkṣatē.
avibhaktaṅ vibhaktēṣu tajjñānaṅ viddhi sāttvikam৷৷18.20৷৷
भावार्थ : जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ৷৷18.20॥
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ৷৷18.21৷৷
pṛthaktvēna tu yajjñānaṅ nānābhāvānpṛthagvidhān.
vētti sarvēṣu bhūtēṣu tajjñānaṅ viddhi rājasam৷৷18.21৷৷
भावार्थ : किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान ৷৷18.21॥
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्৷৷18.22৷৷
yattu kṛtsnavadēkasminkāryē saktamahaitukam.
atattvārthavadalpaṅ ca tattāmasamudāhṛtam৷৷18.22৷৷
भावार्थ : परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है ৷৷18.22॥
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते৷৷18.23৷৷
niyataṅ saṅgarahitamarāgadvēṣataḥ kṛtam.
aphalaprēpsunā karma yattatsāttvikamucyatē৷৷18.23৷৷
भावार्थ : जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ৷৷18.23॥
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्৷৷18.24৷৷
yattu kāmēpsunā karma sāhaṅkārēṇa vā punaḥ.
kriyatē bahulāyāsaṅ tadrājasamudāhṛtam৷৷18.24৷৷
भावार्थ : परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ৷৷18.24॥
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते৷৷18.25৷৷
anubandhaṅ kṣayaṅ hiṅsāmanapēkṣya ca pauruṣam.
mōhādārabhyatē karma yattattāmasamucyatē৷৷18.25৷৷
भावार्थ : जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ৷৷18.25॥
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते৷৷18.26৷৷
muktasaṅgō.nahaṅvādī dhṛtyutsāhasamanvitaḥ.
siddhyasiddhyōrnirvikāraḥ kartā sāttvika ucyatē৷৷18.26৷৷
भावार्थ : जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है ৷৷18.26॥
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः৷৷18.27৷৷
rāgī karmaphalaprēpsurlubdhō hiṅsātmakō.śuciḥ.
harṣaśōkānvitaḥ kartā rājasaḥ parikīrtitaḥ৷৷18.27৷৷
भावार्थ : जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ৷৷18.27॥
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः ।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते৷৷18.28৷৷
ayuktaḥ prākṛtaḥ stabdhaḥ śaṭhō naiṣkṛtikō.lasaḥ.
viṣādī dīrghasūtrī ca kartā tāmasa ucyatē৷৷18.28৷৷
भावार्थ : जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है ৷৷18.28॥
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ৷৷18.29৷৷
buddhērbhēdaṅ dhṛtēścaiva guṇatastrividhaṅ śrṛṇu.
prōcyamānamaśēṣēṇa pṛthaktvēna dhanañjaya৷৷18.29৷৷
भावार्थ : हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ৷৷18.29॥
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷18.30৷৷
pravṛttiṅ ca nivṛttiṅ ca kāryākāryē bhayābhayē.
bandhaṅ mōkṣaṅ ca yā vētti buddhiḥ sā pārtha sāttvikī৷৷18.30৷৷
भावार्थ : हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ৷৷18.30॥
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी৷৷18.31৷৷
yayā dharmamadharmaṅ ca kāryaṅ cākāryamēva ca.
ayathāvatprajānāti buddhiḥ sā pārtha rājasī৷৷18.31৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ৷৷18.31॥
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी৷৷18.32৷৷
adharmaṅ dharmamiti yā manyatē tamasā৷৷vṛtā.
sarvārthānviparītāṅśca buddhiḥ sā pārtha tāmasī৷৷18.32৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ৷৷18.32॥
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ৷৷18.33৷৷
dhṛtyā yayā dhārayatē manaḥprāṇēndriyakriyāḥ.
yōgēnāvyabhicāriṇyā dhṛtiḥ sā pārtha sāttvikī৷৷18.33৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह 'अव्यभिचारिणी धारणा' है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम 'उनकी क्रियाओं को धारण करना' है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ৷৷18.33॥
यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी৷৷18.34৷৷
yayā tu dharmakāmārthān dhṛtyā dhārayatē.rjuna.
prasaṅgēna phalākāṅkṣī dhṛtiḥ sā pārtha rājasī৷৷18.34৷৷
भावार्थ : परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है ৷৷18.34॥
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी৷৷18.35৷৷
yayā svapnaṅ bhayaṅ śōkaṅ viṣādaṅ madamēva ca.
na vimuñcati durmēdhā dhṛtiḥ sā pārtha tāmasī৷৷18.35৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ৷৷18.35॥
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति৷৷18.36৷৷
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्৷৷18.37৷৷
sukhaṅ tvidānīṅ trividhaṅ śrṛṇu mē bharatarṣabha.
abhyāsādramatē yatra duḥkhāntaṅ ca nigacchati৷৷18.36৷৷
yattadagrē viṣamiva pariṇāmē.mṛtōpamam.
tatsukhaṅ sāttvikaṅ prōktamātmabuddhiprasādajam৷৷18.37৷৷
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ৷৷18.36-37॥
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्৷৷18.38৷৷
viṣayēndriyasaṅyōgādyattadagrē.mṛtōpamam.
pariṇāmē viṣamiva tatsukhaṅ rājasaṅ smṛtam৷৷18.38৷৷
भावार्थ : जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को 'परिणाम में विष के तुल्य' कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ৷৷18.38॥
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्৷৷18.39৷৷
yadagrē cānubandhē ca sukhaṅ mōhanamātmanaḥ.
nidrālasyapramādōtthaṅ tattāmasamudāhṛtam৷৷18.39৷৷
भावार्थ : जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ৷৷18.39॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः৷৷18.40৷৷
na tadasti pṛthivyāṅ vā divi dēvēṣu vā punaḥ.
sattvaṅ prakṛtijairmuktaṅ yadēbhiḥ syātitrabhirguṇaiḥ৷৷18.40৷৷
भावार्थ : पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ৷৷18.40॥
फल सहित वर्ण धर्म का विषय
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः৷৷18.41৷৷
brāhmaṇakṣatriyaviśāṅ śūdrāṇāṅ ca paraṅtapa.
karmāṇi pravibhaktāni svabhāvaprabhavairguṇaiḥ৷৷18.41৷৷
भावार्थ : हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ৷৷18.41॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ৷৷18.42৷৷
śamō damastapaḥ śaucaṅ kṣāntirārjavamēva ca.
jñānaṅ vijñānamāstikyaṅ brahmakarma svabhāvajam৷৷18.42৷৷
भावार्थ : अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.42॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्৷৷18.43৷৷
śauryaṅ tējō dhṛtirdākṣyaṅ yuddhē cāpyapalāyanam.
dānamīśvarabhāvaśca kṣātraṅ karma svabhāvajam৷৷18.43৷৷
भावार्थ : शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ৷৷18.43॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्৷৷18.44৷৷
kṛṣigaurakṣyavāṇijyaṅ vaiśyakarma svabhāvajam.
paricaryātmakaṅ karma śūdrasyāpi svabhāvajam৷৷18.44৷৷
भावार्थ : खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ৷৷18.44॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु৷৷18.45৷৷
svē svē karmaṇyabhirataḥ saṅsiddhiṅ labhatē naraḥ.
svakarmanirataḥ siddhiṅ yathā vindati tacchṛṇu৷৷18.45৷৷
भावार्थ : अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ৷৷18.45॥
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः৷৷18.46৷৷
yataḥ pravṛttirbhūtānāṅ yēna sarvamidaṅ tatam.
svakarmaṇā tamabhyarcya siddhiṅ vindati mānavaḥ৷৷18.46৷৷
भावार्थ : जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना' है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.46॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्৷৷18.47৷৷
śrēyānsvadharmō viguṇaḥ paradharmātsvanuṣṭhitāt.
svabhāvaniyataṅ karma kurvannāpnōti kilbiṣam৷৷18.47৷৷
भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ৷৷18.47॥
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः৷৷18.48৷৷
sahajaṅ karma kauntēya sadōṣamapi na tyajēt.
sarvārambhā hi dōṣēṇa dhūmēnāgnirivāvṛtāḥ৷৷18.48৷৷
भावार्थ : अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ৷৷18.48॥
ज्ञाननिष्ठा का विषय
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति৷৷18.49৷৷
asaktabuddhiḥ sarvatra jitātmā vigataspṛhaḥ.
naiṣkarmyasiddhiṅ paramāṅ saṅnyāsēnādhigacchati৷৷18.49৷৷
भावार्थ : सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ৷৷18.49॥
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा৷৷18.50৷৷
siddhiṅ prāptō yathā brahma tathāpnōti nibōdha mē.
samāsēnaiva kauntēya niṣṭhā jñānasya yā parā৷৷18.50৷৷
भावार्थ : जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ৷৷18.50॥
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च৷৷18.51৷৷
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः৷৷18.52৷৷
अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते৷৷18.53৷৷
buddhyā viśuddhayā yuktō dhṛtyā৷৷tmānaṅ niyamya ca.
śabdādīn viṣayāṅstyaktvā rāgadvēṣau vyudasya ca৷৷18.51৷৷
viviktasēvī laghvāśī yatavākkāyamānasaḥ.
dhyānayōgaparō nityaṅ vairāgyaṅ samupāśritaḥ৷৷18.52৷৷
ahaṅkāraṅ balaṅ darpaṅ kāmaṅ krōdhaṅ parigraham.
vimucya nirmamaḥ śāntō brahmabhūyāya kalpatē৷৷18.53৷৷
भावार्थ : विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है ৷৷18.51-53॥
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्৷৷18.54৷৷
brahmabhūtaḥ prasannātmā na śōcati na kāṅkṣati.
samaḥ sarvēṣu bhūtēṣu madbhaktiṅ labhatē parām৷৷18.54৷৷
भावार्थ : फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है ৷৷18.54॥
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्৷৷18.55৷৷
bhaktyā māmabhijānāti yāvānyaścāsmi tattvataḥ.
tatō māṅ tattvatō jñātvā viśatē tadanantaram৷৷18.55৷৷
भावार्थ : उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ৷৷18.55॥
भक्ति सहित कर्मयोग का विषय
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्৷৷18.56৷৷
sarvakarmāṇyapi sadā kurvāṇō madvyapāśrayaḥ.
matprasādādavāpnōti śāśvataṅ padamavyayam৷৷18.56৷৷
भावार्थ : मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ৷৷18.56॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव৷৷18.57৷৷
cētasā sarvakarmāṇi mayi saṅnyasya matparaḥ.
buddhiyōgamupāśritya maccittaḥ satataṅ bhava৷৷18.57৷৷
भावार्थ : सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो ৷৷18.57॥
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि৷৷18.58৷৷
maccittaḥ sarvadurgāṇi matprasādāttariṣyasi.
atha cēttvamahaṅkārānna śrōṣyasi vinaṅkṣyasi৷৷18.58৷৷
भावार्थ : उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ৷৷18.58॥
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ৷৷18.59৷৷
yadahaṅkāramāśritya na yōtsya iti manyasē.
mithyaiṣa vyavasāyastē prakṛtistvāṅ niyōkṣyati৷৷18.59৷৷
भावार्थ : जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा ৷৷18.59॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ৷৷18.60৷৷
svabhāvajēna kauntēya nibaddhaḥ svēna karmaṇā.
kartuṅ nēcchasi yanmōhātkariṣyasyavaśō.pi tat৷৷18.60৷৷
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा ৷৷18.60॥
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया৷৷18.61৷৷
īśvaraḥ sarvabhūtānāṅ hṛddēśē.rjuna tiṣṭhati.
bhrāmayansarvabhūtāni yantrārūḍhāni māyayā৷৷18.61৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ৷৷18.61॥
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्৷৷18.62৷৷
tamēva śaraṇaṅ gaccha sarvabhāvēna bhārata.
tatprasādātparāṅ śāntiṅ sthānaṅ prāpsyasi śāśvatam৷৷18.62৷৷
भावार्थ : हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा ৷৷18.62॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ৷৷18.63৷৷
iti tē jñānamākhyātaṅ guhyādguhyataraṅ mayā.
vimṛśyaitadaśēṣēṇa yathēcchasi tathā kuru৷৷18.63৷৷
भावार्थ : इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर ৷৷18.63॥
सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ৷৷18.64৷৷
sarvaguhyatamaṅ bhūyaḥ śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ.
iṣṭō.si mē dṛḍhamiti tatō vakṣyāmi tē hitam৷৷18.64৷৷
भावार्थ : संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा ৷৷18.64॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ৷৷18.65৷৷
manmanā bhava madbhaktō madyājī māṅ namaskuru.
māmēvaiṣyasi satyaṅ tē pratijānē priyō.si mē৷৷18.65৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है ৷৷18.65॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ৷৷18.66৷৷
sarvadharmānparityajya māmēkaṅ śaraṇaṅ vraja.
ahaṅ tvā sarvapāpēbhyō mōkṣayiṣyāmi mā śucaḥ৷৷18.66৷৷
भावार्थ : संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण (इसी अध्याय के श्लोक 62 की टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ৷৷18.66॥
श्रीगीताजी का माहात्म्य
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ৷৷18.67৷৷
idaṅ tē nātapaskāya nābhaktāya kadācana.
na cāśuśrūṣavē vācyaṅ na ca māṅ yō.bhyasūyati৷৷18.67৷৷
भावार्थ : तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम 'भक्ति' है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ৷৷18.67॥
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ৷৷18.68৷৷
ya imaṅ paramaṅ guhyaṅ madbhaktēṣvabhidhāsyati.
bhakitaṅ mayi parāṅ kṛtvā māmēvaiṣyatyasaṅśayaḥ৷৷18.68৷৷
भावार्थ : जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ৷৷18.68॥
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ৷৷18.69৷৷
na ca tasmānmanuṣyēṣu kaśicanmē priyakṛttamaḥ.
bhavitā na ca mē tasmādanyaḥ priyatarō bhuvi৷৷18.69৷৷
भावार्थ : उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ৷৷18.69॥
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ৷৷18.70৷৷
adhyēṣyatē ca ya imaṅ dharmyaṅ saṅvādamāvayōḥ.
jñānayajñēna tēnāhamiṣṭaḥ syāmiti mē matiḥ৷৷18.70৷৷
भावार्थ : जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ (गीता अध्याय 4 श्लोक 33 का अर्थ देखना चाहिए।) से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ৷৷18.70॥
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ৷৷18.71৷৷
śraddhāvānanasūyaśca śrṛṇuyādapi yō naraḥ.
sō.pi muktaḥ śubhāōllōkānprāpnuyātpuṇyakarmaṇām৷৷18.71৷৷
भावार्थ : जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा ৷৷18.৷৷71॥
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ৷৷18.72৷৷
kaccidētacchrutaṅ pārtha tvayaikāgrēṇa cētasā.
kaccidajñānasaṅmōhaḥ pranaṣṭastē dhanañjaya৷৷18.72৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?৷৷18.72॥
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ৷৷18.73৷৷
arjuna uvāca
naṣṭō mōhaḥ smṛtirlabdhā tvatprasādānmayācyuta.
sthitō.smi gatasandēhaḥ kariṣyē vacanaṅ tava৷৷18.73৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ৷৷18.73॥
संजय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ৷৷18.74৷৷
sañjaya uvāca
ityahaṅ vāsudēvasya pārthasya ca mahātmanaḥ.
saṅvādamimamaśrauṣamadbhutaṅ rōmaharṣaṇam৷৷18.74৷৷
भावार्थ :संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना ৷৷18.74॥
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्৷৷18.75৷৷
vyāsaprasādācchrutavānētadguhyamahaṅ param.
yōgaṅ yōgēśvarātkṛṣṇātsākṣātkathayataḥ svayam৷৷18.75৷৷
भावार्थ :श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ৷৷18.75॥
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् ।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ৷৷18.76৷৷
rājansaṅsmṛtya saṅsmṛtya saṅvādamimamadbhutam.
kēśavārjunayōḥ puṇyaṅ hṛṣyāmi ca muhurmuhuḥ৷৷18.76৷৷
भावार्थ : हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.76॥
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।
विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ৷৷18.77৷৷
tacca saṅsmṛtya saṅsmṛtya rūpamatyadbhutaṅ harēḥ.
vismayō mē mahān rājan hṛṣyāmi ca punaḥ punaḥ৷৷18.77৷৷
भावार्थ : हे राजन्! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ৷৷18.77॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ৷৷18.78৷৷
yatra yōgēśvaraḥ kṛṣṇō yatra pārthō dhanurdharaḥ.
tatra śrīrvijayō bhūtirdhruvā nītirmatirmama৷৷18.78৷৷
भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ৷৷18.78॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्यायः৷৷18.18॥
Read Full Blog...ShraddhaTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 17|श्रद्धात्रयविभागयोग ~ अध्याय सत्रह
अथ सप्तदशोऽध्यायः- श्रद्धात्रयविभागयोग
श्रद्धा का और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः৷৷17.1৷৷
arjuna uvāca
yē śāstravidhimutsṛjya yajantē śraddhayā.nvitāḥ.
tēṣāṅ niṣṭhā tu kā kṛṣṇa sattvamāhō rajastamaḥ৷৷17.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्यागकर श्रद्धा से युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी किंवा तामसी? ৷৷17.1॥
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Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु৷৷17.2৷৷
śrī bhagavānuvāca
trividhā bhavati śraddhā dēhināṅ sā svabhāvajā.
sāttvikī rājasī caiva tāmasī cēti tāṅ śrṛṇu৷৷17.2৷৷
भावार्थ : श्री भगवान् बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ৷৷17.2॥
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः৷৷17.3৷৷
sattvānurūpā sarvasya śraddhā bhavati bhārata.
śraddhāmayō.yaṅ puruṣō yō yacchraddhaḥ sa ēva saḥ৷৷17.3৷৷
भावार्थ : हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ৷৷17.3॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः৷৷17.4৷৷
yajantē sāttvikā dēvānyakṣarakṣāṅsi rājasāḥ.
prētānbhūtagaṇāṅścānyē yajantē tāmasā janāḥ৷৷17.4৷৷
भावार्थ : सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ৷৷17.4॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः৷৷17.5৷৷
aśāstravihitaṅ ghōraṅ tapyantē yē tapō janāḥ.
dambhāhaṅkārasaṅyuktāḥ kāmarāgabalānvitāḥ৷৷17.5৷৷
भावार्थ : जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं ৷৷17.5॥
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्৷৷17.6৷৷
karṣayantaḥ śarīrasthaṅ bhūtagrāmamacētasaḥ.
māṅ caivāntaḥśarīrasthaṅ tānviddhyāsuraniścayān৷৷17.6৷৷
भावार्थ : जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ৷৷17.6॥
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु৷৷17.7॥
āhārastvapi sarvasya trividhō bhavati priyaḥ.
yajñastapastathā dānaṅ tēṣāṅ bhēdamimaṅ śrṛṇu৷৷17.7৷৷
भावार्थ : भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन ৷৷17.7॥
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः৷৷17.8৷৷
āyuḥsattvabalārōgyasukhaprītivivardhanāḥ.
rasyāḥ snigdhāḥ sthirā hṛdyā āhārāḥ sāttvikapriyāḥ৷৷17.8৷৷
भावार्थ : आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.8॥
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः৷৷17.9৷৷
kaṭvamlalavaṇātyuṣṇatīkṣṇarūkṣavidāhinaḥ.
āhārā rājasasyēṣṭā duḥkhaśōkāmayapradāḥ৷৷17.9৷৷
भावार्थ : कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ৷৷17.9॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्৷৷17.10৷৷
yātayāmaṅ gatarasaṅ pūti paryuṣitaṅ ca yat.
ucchiṣṭamapi cāmēdhyaṅ bhōjanaṅ tāmasapriyam৷৷17.10৷৷
भावार्थ : जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ৷৷17.10॥
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः৷৷17.11৷৷
aphalākāṅkṣibhiryajñō vidhidṛṣṭō ya ijyatē.
yaṣṭavyamēvēti manaḥ samādhāya sa sāttvikaḥ৷৷17.11৷৷
भावार्थ : जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है ৷৷17.11॥
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्৷৷17.12৷৷
abhisaṅdhāya tu phalaṅ dambhārthamapi caiva yat.
ijyatē bharataśrēṣṭha taṅ yajñaṅ viddhi rājasam৷৷17.12৷৷
भावार्थ : परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ৷৷17.12॥
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते৷৷17.13৷৷
vidhihīnamasṛṣṭānnaṅ mantrahīnamadakṣiṇam.
śraddhāvirahitaṅ yajñaṅ tāmasaṅ paricakṣatē৷৷17.13৷৷
भावार्थ : शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ৷৷17.13॥
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷
dēvadvijaguruprājñapūjanaṅ śaucamārjavam.
brahmacaryamahiṅsā ca śārīraṅ tapa ucyatē৷৷17.14৷৷
भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते৷৷17.15৷৷
anudvēgakaraṅ vākyaṅ satyaṅ priyahitaṅ ca yat.
svādhyāyābhyasanaṅ caiva vāṅmayaṅ tapa ucyatē৷৷17.15৷৷
भावार्थ : जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम 'यथार्थ भाषण' है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.15॥
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते৷৷17.16৷৷
manaḥprasādaḥ saumyatvaṅ maunamātmavinigrahaḥ.
bhāvasaṅśuddhirityētattapō mānasamucyatē৷৷17.16৷৷
भावार्थ : मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.16॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷
śraddhayā parayā taptaṅ tapastatitravidhaṅ naraiḥ.
aphalākāṅkṣibhiryuktaiḥ sāttvikaṅ paricakṣatē৷৷17.17৷৷
भावार्थ : फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्৷৷17.18৷৷
satkāramānapūjārthaṅ tapō dambhēna caiva yat.
kriyatē tadiha prōktaṅ rājasaṅ calamadhruvam৷৷17.18৷৷
भावार्थ : जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित ('अनिश्चित फलवाला' उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ৷৷17.18॥
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्৷৷17.19৷৷
mūḍhagrāhēṇātmanō yatpīḍayā kriyatē tapaḥ.
parasyōtsādanārthaṅ vā tattāmasamudāhṛtam৷৷17.19৷৷
भावार्थ : जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ৷৷17.19॥
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्৷৷17.20৷৷
dātavyamiti yaddānaṅ dīyatē.nupakāriṇē.
dēśē kālē ca pātrē ca taddānaṅ sāttvikaṅ smṛtam৷৷17.20৷৷
भावार्थ : दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान् ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ৷৷17.20॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्৷৷17.21৷৷
yattu pratyupakārārthaṅ phalamuddiśya vā punaḥ.
dīyatē ca parikliṣṭaṅ taddānaṅ rājasaṅ smṛtam৷৷17.21৷৷
भावार्थ : किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात् मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ৷৷17.21॥
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्৷৷17.22৷৷
adēśakālē yaddānamapātrēbhyaśca dīyatē.
asatkṛtamavajñātaṅ tattāmasamudāhṛtam৷৷17.22৷৷
भावार्थ : जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ৷৷17.22॥
ॐ तत्सत् के प्रयोग की व्याख्या
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा৷৷17.23৷৷
tatsaditi nirdēśō brahmaṇastrividhaḥ smṛtaḥ.
brāhmaṇāstēna vēdāśca yajñāśca vihitāḥ purā৷৷17.23৷৷
भावार्थ : ॐ, तत्, सत्-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए ৷৷17.23॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्৷৷17.24৷৷
tasmādōmityudāhṛtya yajñadānatapaḥkriyāḥ.
pravartantē vidhānōktāḥ satataṅ brahmavādinām৷৷17.24৷৷
भावार्थ : इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ৷৷17.24॥
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः৷৷17.25৷৷
tadityanabhisandhāya phalaṅ yajñatapaḥkriyāḥ.
dānakriyāśca vividhāḥ kriyantē mōkṣakāṅkṣi৷৷17.25৷৷
भावार्थ : तत् अर्थात् 'तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ৷৷17.25॥
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते৷৷17.26৷৷
sadbhāvē sādhubhāvē ca sadityētatprayujyatē.
praśastē karmaṇi tathā sacchabdaḥ pārtha yujyatē৷৷17.26৷৷
भावार्थ : 'सत्'- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी 'सत्' शब्द का प्रयोग किया जाता है ৷৷17.26॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते৷৷17.27৷৷
yajñē tapasi dānē ca sthitiḥ saditi cōcyatē.
karma caiva tadarthīyaṅ sadityēvābhidhīyatē৷৷17.27৷৷
भावार्थ : तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्-ऐसे कहा जाता है ৷৷17.27॥
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह৷৷17.28৷৷
aśraddhayā hutaṅ dattaṅ tapastaptaṅ kṛtaṅ ca yat.
asadityucyatē pārtha na ca tatprētya nō iha৷৷17.28৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ৷৷17.28॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय : ৷৷17॥
Read Full Blog...DaiwaSurSampdwiBhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 16 | दैवासुरसम्पद्विभागयोग ~ अध्याय सोलह
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥16.1॥
śrī bhagavānuvāca
abhayaṅ sattvasaṅśuddhiḥ jñānayōgavyavasthitiḥ.
dānaṅ damaśca yajñaśca svādhyāyastapa ārjavam৷৷16.1৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में निरन्तर दृढ़ स्थिति (परमात्मा के स्वरूप को तत्त्व से जानने के लिए सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से ध्यान की निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिए) और सात्त्विक दान (गीता अध्याय 17 श्लोक 20 में जिसका विस्तार किया है), इन्द्रियों का दमन, भगवान, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिए कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता॥16.1॥
भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें:
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥16.2॥
ahiṅsā satyamakrōdhastyāgaḥ śāntirapaiśunam.
dayā bhūtēṣvalōluptvaṅ mārdavaṅ hrīracāpalam৷৷16.2৷৷
भावार्थ : मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण (अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम 'सत्यभाषण' है), अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव॥16.2॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥16.3॥
tējaḥ kṣamā dhṛtiḥ śaucamadrōhō nātimānitā.
bhavanti sampadaṅ daivīmabhijātasya bhārata৷৷16.3৷৷
भावार्थ : तेज (श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम 'तेज' है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं), क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी देखनी चाहिए) एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ॥16.3॥
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥16.4॥
dambhō darpō.bhimānaśca krōdhaḥ pāruṣyamēva ca.
ajñānaṅ cābhijātasya pārtha sampadamāsurīm৷৷16.4৷৷
भावार्थ : हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं॥16.4॥
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥16.5॥
daivī sampadvimōkṣāya nibandhāyāsurī matā.
mā śucaḥ sampadaṅ daivīmabhijātō.si pāṇḍava৷৷16.5৷৷
भावार्थ : दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ॥16.5॥
आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥16.6॥
dvau bhūtasargau lōkē.smin daiva āsura ēva ca.
daivō vistaraśaḥ prōkta āsuraṅ pārtha mē śrṛṇu৷৷16.6৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन ॥16.6॥
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥16.7॥
pravṛttiṅ ca nivṛttiṅ ca janā na vidurāsurāḥ.
na śaucaṅ nāpi cācārō na satyaṅ tēṣu vidyatē৷৷16.7৷৷
भावार्थ : आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है ॥16.7॥
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥16.8॥
asatyamapratiṣṭhaṅ tē jagadāhuranīśvaram.
aparasparasambhūtaṅ kimanyatkāmahaitukam৷৷16.8৷৷
भावार्थ : वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है? ॥16.8॥
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥16.9॥
ētāṅ dṛṣṭimavaṣṭabhya naṣṭātmānō.lpabuddhayaḥ.
prabhavantyugrakarmāṇaḥ kṣayāya jagatō.hitāḥ৷৷16.9৷৷
भावार्थ : इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रुरकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं ॥16.9॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥16.10॥
kāmamāśritya duṣpūraṅ dambhamānamadānvitāḥ.
mōhādgṛhītvāsadgrāhānpravartantē.śucivratāḥ৷৷16.10৷৷
भावार्थ : वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं ॥16.10॥
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥16.11॥
cintāmaparimēyāṅ ca pralayāntāmupāśritāḥ.
kāmōpabhōgaparamā ētāvaditi niśicatāḥ৷৷16.11৷৷
भावार्थ : तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं ॥16.11॥
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥16.12॥
āśāpāśaśatairbaddhāḥ kāmakrōdhaparāyaṇāḥ.
īhantē kāmabhōgārthamanyāyēnārthasañcayān৷৷16.12৷৷
भावार्थ : वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं ॥16.12॥
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥16.13॥
idamadya mayā labdhamimaṅ prāpsyē manōratham.
idamastīdamapi mē bhaviṣyati punardhanam৷৷16.13৷৷
भावार्थ : वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा ॥13॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥16.14॥
asau mayā hataḥ śatrurhaniṣyē cāparānapi.
īśvarō.hamahaṅ bhōgī siddhō.haṅ balavānsukhī৷৷16.14৷৷
भावार्थ : वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हूँ ॥16.14॥
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥16.15॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥16.16॥
āḍhyō.bhijanavānasmi kō.nyō.sti sadṛśō mayā.
yakṣyē dāsyāmi mōdiṣya ityajñānavimōhitāḥ৷৷16.15৷৷
anēkacittavibhrāntā mōhajālasamāvṛtāḥ.
prasaktāḥ kāmabhōgēṣu patanti narakē.śucau৷৷16.16৷৷
भावार्थ : मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं ॥16.15-16.16॥
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥16.17॥
ātmasambhāvitāḥ stabdhā dhanamānamadānvitāḥ.
yajantē nāmayajñaistē dambhēnāvidhipūrvakam৷৷16.17৷৷
भावार्थ : वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं ॥16.17॥
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥16.18॥
ahaṅkāraṅ balaṅ darpaṅ kāmaṅ krōdhaṅ ca saṅśritāḥ.
māmātmaparadēhēṣu pradviṣantō.bhyasūyakāḥ৷৷16.18৷৷
भावार्थ : वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ॥16.18॥
तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥16.19॥
tānahaṅ dviṣataḥ krūrānsaṅsārēṣu narādhamān.
kṣipāmyajasramaśubhānāsurīṣvēva yōniṣu৷৷16.19৷৷
भावार्थ : उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ ॥16.19॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥16.20॥
asurīṅ yōnimāpannā mūḍhā janmani janmani.
māmaprāpyaiva kauntēya tatō yāntyadhamāṅ gatim৷৷16.20৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं ॥16.20॥
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥16.21॥
trividhaṅ narakasyēdaṅ dvāraṅ nāśanamātmanaḥ.
kāmaḥ krōdhastathā lōbhastasmādētattrayaṅ tyajēt৷৷16.21৷৷
भावार्थ : काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को 'नरक के द्वार' कहा है) आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए ॥16.21॥
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥16.22॥
ētairvimuktaḥ kauntēya tamōdvāraistribhirnaraḥ.
ācaratyātmanaḥ śrēyastatō yāti parāṅ gatim৷৷16.22৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही 'अपने कल्याण का आचरण करना' है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ॥16.22॥
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥16.23॥
yaḥ śāstravidhimutsṛjya vartatē kāmakārataḥ.
na sa siddhimavāpnōti na sukhaṅ na parāṅ gatim৷৷16.23৷৷
भावार्थ : जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ॥16.23॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥16.24॥
tasmācchāstraṅ pramāṇaṅ tē kāryākāryavyavasthitau.
jñātvā śāstravidhānōktaṅ karma kartumihārhasi৷৷16.24৷৷
भावार्थ : इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ॥16.24॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥16॥
भावार्थ : इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Read Full Blog...PurushottamYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 15 | पुरुषोत्तमयोग ~ अध्याय चौदह पंद्रह
अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ৷৷15.1৷৷
śrī bhagavānuvāca
ūrdhvamūlamadhaḥśākhamaśvatthaṅ prāhuravyayam.
chandāṅsi yasya parṇāni yastaṅ vēda sa vēdavit৷৷15.1৷৷
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। ৷৷15.1৷৷
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷
adhaścōrdhvaṅ prasṛtāstasya śākhā
guṇapravṛddhā viṣayapravālāḥ.
adhaśca mūlānyanusantatāni
karmānubandhīni manuṣyalōkē৷৷15.2৷৷
भावार्थ : इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं৷৷15.2৷৷
भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें:
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा৷৷15.3৷৷
na rūpamasyēha tathōpalabhyatē
nāntō na cādirna ca saṅpratiṣṭhā.
aśvatthamēnaṅ suvirūḍhamūla-
masaṅgaśastrēṇa dṛḍhēna chittvā৷৷15.3৷৷
भावार्थ : इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृड़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है৷৷15.3৷৷
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी৷৷15.4৷৷
tataḥ padaṅ tatparimārgitavya
yasmingatā na nivartanti bhūyaḥ.
tamēva cādyaṅ puruṣaṅ prapadyē
yataḥ pravṛttiḥ prasṛtā purāṇī৷৷15.4৷৷
भावार्थ : वैराग्य रूपी हथियार से काटने के बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर पहुँचा हुआ मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नही लौटता है, फिर मनुष्य को उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस आदि-रहित संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है৷৷15.4৷৷
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्৷৷15.5৷৷
nirmānamōhā jitasaṅgadōṣā
adhyātmanityā vinivṛttakāmāḥ.
dvandvairvimuktāḥ sukhaduḥkhasaṅjñai-
rgacchantyamūḍhāḥ padamavyayaṅ tat৷৷15.5৷৷
भावार्थ : जो मनुष्य मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त है तथा जिसने सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है, जो निरन्तर परमात्म स्वरूप में स्थित रहता है, जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है और जिसका सुख-दुःख नाम का भेद समाप्त हो गया है ऎसा मोह से मुक्त हुआ मनुष्य उस अविनाशी परम-पद (परम-धाम) को प्राप्त करता हैं৷৷15.5৷৷
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम৷৷15.6৷৷
na tadbhāsayatē sūryō na śaśāṅkō na pāvakaḥ.
yadgatvā na nivartantē taddhāma paramaṅ mama৷৷15.6৷৷
भावार्थ : उस परम-धाम को न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है৷৷15.6৷৷
इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति৷৷15.7৷৷
mamaivāṅśō jīvalōkē jīvabhūtaḥ sanātanaḥ.
manaḥṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛtisthāni karṣati৷৷15.7৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है। (७)
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्৷৷15.8৷৷
śarīraṅ yadavāpnōti yaccāpyutkrāmatīśvaraḥ.
gṛhītvaitāni saṅyāti vāyurgandhānivāśayāt৷৷15.8৷৷
भावार्थ : शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है৷৷15.8৷৷
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते৷৷15.9৷৷
śrōtraṅ cakṣuḥ sparśanaṅ ca rasanaṅ ghrāṇamēva ca.
adhiṣṭhāya manaścāyaṅ viṣayānupasēvatē৷৷15.9৷৷
भावार्थ : इस प्रकार दूसरे शरीर में स्थित होकर जीवात्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ, नाक और मन की सहायता से ही विषयों का भोग करता है৷৷15.9৷৷
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः৷৷15.10৷৷
utkrāmantaṅ sthitaṅ vāpi bhuñjānaṅ vā guṇānvitam.
vimūḍhā nānupaśyanti paśyanti jñānacakṣuṣaḥ৷৷15.10৷৷
भावार्थ : जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं৷৷15.10৷৷
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः৷৷15.11৷৷
yatantō yōginaścainaṅ paśyantyātmanyavasthitam.
yatantō.pyakṛtātmānō nainaṅ paśyantyacētasaḥ৷৷15.11৷৷
भावार्थ : योग के अभ्यास में प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योग के अभ्यास में नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं देख पाते हैं৷৷15.11৷৷
प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्৷৷15.12৷৷
yadādityagataṅ tējō jagadbhāsayatē.khilam.
yaccandramasi yaccāgnau tattējō viddhi māmakam৷৷15.12৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ৷৷15.12৷৷
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः৷৷15.13৷৷
gāmāviśya ca bhūtāni dhārayāmyahamōjasā.
puṣṇāmi cauṣadhīḥ sarvāḥ sōmō bhūtvā rasātmakaḥ৷৷15.13৷৷
भावार्थ : मैं ही प्रत्येक लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सभी प्राणीयों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणीयों का पोषण करता हूँ৷৷15.13৷৷
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्৷৷15.14৷৷
ahaṅ vaiśvānarō bhūtvā prāṇināṅ dēhamāśritaḥ.
prāṇāpānasamāyuktaḥ pacāmyannaṅ caturvidham৷৷15.14৷৷
भावार्थ : मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ৷৷15.14৷৷
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ৷৷15.15৷৷
sarvasya cāhaṅ hṛdi sanniviṣṭō
mattaḥ smṛtirjñānamapōhanaṅ ca.
vēdaiśca sarvairahamēva vēdyō
vēdāntakṛdvēdavidēva cāham৷৷15.15৷৷
भावार्थ : मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ৷৷15.15৷৷
क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷15.16৷৷
dvāvimau puruṣau lōkē kṣaraścākṣara ēva ca.
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni kūṭasthō.kṣara ucyatē৷৷15.16৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है৷৷15.16৷৷
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः৷৷15.17৷৷
uttamaḥ puruṣastvanyaḥ paramātmētyudāhṛtaḥ.
yō lōkatrayamāviśya bibhartyavyaya īśvaraḥ৷৷15.17৷৷
भावार्थ : परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणीयों का भरण-पोषण करता है৷৷15.17৷৷
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः৷৷15.18৷৷
yasmātkṣaramatītō.hamakṣarādapi cōttamaḥ.
atō.smi lōkē vēdē ca prathitaḥ puruṣōttamaḥ৷৷15.18৷৷
भावार्थ : क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ৷৷15.18৷৷
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ৷৷15.19৷৷
yō māmēvamasammūḍhō jānāti puruṣōttamam.
sa sarvavidbhajati māṅ sarvabhāvēna bhārata৷৷15.19৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है৷৷15.19৷৷
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ৷৷15.20৷৷
iti guhyatamaṅ śāstramidamuktaṅ mayā.nagha.
ētadbuddhvā buddhimānsyātkṛtakṛtyaśca bhārata৷৷15.20৷৷
भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं৷৷15.20৷৷
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥
भावार्थ : इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Read Full Blog...GunTrayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 14 | गुणत्रयविभागयोग ~ अध्याय चौदह
अथ चतुर्दशोऽध्यायः- गुणत्रयविभागयोग
ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१)
śrī bhagavānuvāca
paraṅ bhūyaḥ pravakṣyāmi jñānānāṅ jñānamuttamam.
yajjñātvā munayaḥ sarvē parāṅ siddhimitō gatāḥ৷৷14.1৷৷
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! समस्त ज्ञानों में भी सर्वश्रेष्ठ इस परम-ज्ञान को मैं तेरे लिये फिर से कहता हूँ, जिसे जानकर सभी संत-मुनियों ने इस संसार से मुक्त होकर परम-सिद्धि को प्राप्त किया हैं। (१)
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (२)
idaṅ jñānamupāśritya mama sādharmyamāgatāḥ.
sargē.pi nōpajāyantē pralayē na vyathanti ca৷৷14.2৷৷
भावार्थ : इस ज्ञान में स्थिर होकर वह मनुष्य मेरे जैसे स्वभाव को ही प्राप्त होता है, वह जीव न तो सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उत्पन्न ही होता हैं और न ही प्रलय के समय कभी व्याकुल होता हैं। (२)
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Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (३)
mama yōnirmahadbrahma tasmin garbhaṅ dadhāmyaham.
saṅbhavaḥ sarvabhūtānāṅ tatō bhavati bhārata৷৷14.3৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशी! मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली योनि (माता) है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है। (३)
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (४)
sarvayōniṣu kauntēya mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ.
tāsāṅ brahma mahadyōnirahaṅ bījapradaḥ pitā৷৷14.4৷৷
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करने वाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभी को धारण करने वाली ही जड़ प्रकृति ही माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ। (४)
सत्, रज, तम- तीनों गुणों का विषय
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ (५)
sattvaṅ rajastama iti guṇāḥ prakṛtisaṅbhavāḥ.
nibadhnanti mahābāhō dēhē dēhinamavyayam৷৷14.5৷৷
भावार्थ : हे महाबाहु अर्जुन! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण भौतिक प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६)
tatra sattvaṅ nirmalatvātprakāśakamanāmayam.
sukhasaṅgēna badhnāti jñānasaṅgēna cānagha৷৷14.6৷৷
भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक शुद्ध होने के कारण पाप-कर्मों से जीव को मुक्त करके आत्मा को प्रकाशित करने वाला होता है, जिससे जीव सुख और ज्ञान के अहंकार में बँध जाता है। (६)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ (७)
rajō rāgātmakaṅ viddhi tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam.
tannibadhnāti kauntēya karmasaṅgēna dēhinam৷৷14.7৷৷
भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण को कामनाओं और लोभ के कारण उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण शरीरधारी जीव सकाम-कर्मों (फल की आसक्ति) में बँध जाता है। (७)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)
tamastvajñānajaṅ viddhi mōhanaṅ sarvadēhinām.
pramādālasyanidrābhistannibadhnāti bhārata৷৷14.8৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशी! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य (आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ (९)
sattvaṅ sukhē sañjayati rajaḥ karmaṇi bhārata.
jñānamāvṛtya tu tamaḥ pramādē sañjayatyuta৷৷14.9৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! सतोगुण मनुष्य को सुख में बाँधता है, रजोगुण मनुष्य को सकाम कर्म में बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढँक कर प्रमाद में बाँधता है। (९)
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ (१०)
rajastamaścābhibhūya sattvaṅ bhavati bhārata.
rajaḥ sattvaṅ tamaścaiva tamaḥ sattvaṅ rajastathā৷৷14.10৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण के घटने पर सतोगुण बढ़ता है, सतोगुण और रजोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है, इसी प्रकार तमोगुण और सतोगुण के घटने पर तमोगुण बढ़ता है। (१०)
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ (११)
sarvadvārēṣu dēhē.sminprakāśa upajāyatē.
jñānaṅ yadā tadā vidyādvivṛddhaṅ sattvamityuta৷৷14.11৷৷
भावार्थ : जिस समय इस के शरीर सभी नौ द्वारों (दो आँखे, दो कान, दो नथुने, मुख, गुदा और उपस्थ) में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है, उस समय सतोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है। (११)
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ (१२)
lōbhaḥ pravṛttirārambhaḥ karmaṇāmaśamaḥ spṛhā.
rajasyētāni jāyantē vivṛddhē bharatarṣabha৷৷14.12৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशीयों में श्रेष्ठ! जब रजोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब लोभ के उत्पन्न होने कारण फल की इच्छा से कार्यों को करने की प्रवृत्ति और मन की चंचलता के कारण विषय-भोगों को भोगने की अनियन्त्रित इच्छा बढ़ने लगती है। (१२)
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ (१३)
aprakāśō.pravṛttiśca pramādō mōha ēva ca.
tamasyētāni jāyantē vivṛddhē kurunandana৷৷14.13৷৷
भावार्थ : हे कुरुवंशी अर्जुन! जब तमोगुण विशेष बृद्धि को प्राप्त होता है तब अज्ञान रूपी अन्धकार, कर्तव्य-कर्मों को न करने की प्रवृत्ति, पागलपन की अवस्था और मोह के कारण न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति बढने लगती हैं। (१३)
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ (१४)
yadā sattvē pravṛddhē tu pralayaṅ yāti dēhabhṛt.
tadōttamavidāṅ lōkānamalānpratipadyatē৷৷14.14৷৷
भावार्थ : जब कोई मनुष्य सतोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है, तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल स्वर्ग लोकों को प्राप्त होता है। (१४)
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ (१५)
rajasi pralayaṅ gatvā karmasaṅgiṣu jāyatē.
tathā pralīnastamasi mūḍhayōniṣu jāyatē৷৷14.15৷৷
भावार्थ : जब कोई मनुष्य रजोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह सकाम कर्म करने वाले मनुष्यों में जन्म लेता है और उसी प्रकार तमोगुण की बृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त मनुष्य पशु-पक्षियों आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है। (१५)
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ (१६)
karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ sāttvikaṅ nirmalaṅ phalam.
rajasastu phalaṅ duḥkhamajñānaṅ tamasaḥ phalam৷৷14.16৷৷
भावार्थ : सतोगुण में किये गये कर्म का फल सुख और ज्ञान युक्त निर्मल फल कहा गया है, रजोगुण में किये गये कर्म का फल दुःख कहा गया है और तमोगुण में किये गये कर्म का फल अज्ञान कहा गया है। (१६)
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ (१७)
sattvātsañjāyatē jñānaṅ rajasō lōbha ēva ca.
pramādamōhau tamasō bhavatō.jñānamēva ca৷৷14.17৷৷
भावार्थ : सतोगुण से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से निश्चित रूप से लोभ ही उत्पन्न होता है और तमोगुण से निश्चित रूप से प्रमाद, मोह, अज्ञान ही उत्पन्न होता हैं। (१७)
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ (१८)
ūrdhvaṅ gacchanti sattvasthā madhyē tiṣṭhanti rājasāḥ.
jaghanyaguṇavṛttisthā adhō gacchanti tāmasāḥ৷৷14.18৷৷
भावार्थ : सतोगुण में स्थित जीव स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी-लोक में ही रह जाते हैं और तमोगुण में स्थित जीव पशु आदि नीच योनियों में नरक को जाते हैं। (१८)
भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (१९)
nānyaṅ guṇēbhyaḥ kartāraṅ yadā draṣṭānupaśyati.
guṇēbhyaśca paraṅ vētti madbhāvaṅ sō.dhigacchati৷৷14.19৷৷
भावार्थ : जब कोई मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है और स्वयं को दृष्टा रूप से देखता है तब वह प्रकृति के तीनों गुणों से परे स्थित होकर मुझ परमात्मा को जानकर मेरे दिव्य स्वभाव को ही प्राप्त होता है। (१९)
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ (२०)
guṇānētānatītya trīndēhī dēhasamudbhavān.
janmamṛtyujarāduḥkhairvimuktō.mṛtamaśnutē৷৷14.20৷৷
भावार्थ : जब शरीरधारी जीव प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है तब वह जन्म, मृत्यु, बुढापा तथा सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होकर इसी जीवन में परम-आनन्द स्वरूप अमृत का भोग करता है। (२०)
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ (२१)
arjuna uvāca
kairliṅgaistrīnguṇānētānatītō bhavati prabhō.
kimācāraḥ kathaṅ caitāṅstrīnguṇānativartatē৷৷14.21৷৷
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे प्रभु! प्रकृति के तीनों गुणों को पार किया हुआ मनुष्य किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है और उसका आचरण कैसा होता है तथा वह मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों को किस प्रकार से पार कर पाता है?। (२१)
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ (२२)
śrī bhagavānuvāca
prakāśaṅ ca pravṛttiṅ ca mōhamēva ca pāṇḍava.
na dvēṣṭi sampravṛttāni na nivṛttāni kāṅkṣati৷৷14.22৷৷
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान रूपी प्रकाश (सतोगुण) तथा कर्म करने में आसक्ति (रजोगुण) तथा मोह रूपी अज्ञान (तमोगुण) के बढने पर कभी भी उनसे घृणा नहीं करता है तथा समान भाव में स्थित होकर न तो उनमें प्रवृत ही होता है और न ही उनसे निवृत होने की इच्छा ही करता है। (२२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ (२३)
udāsīnavadāsīnō guṇairyō na vicālyatē.
guṇā vartanta ityēva yō.vatiṣṭhati nēṅgatē৷৷14.23৷৷
भावार्थ : जो उदासीन भाव में स्थित रहकर किसी भी गुण के आने-जाने से विचलित नही होता है और गुणों को ही कार्य करते हुए जानकर एक ही भाव में स्थिर रहता है। (२३)
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ (२४)
samaduḥkhasukhaḥ svasthaḥ samalōṣṭāśmakāñcanaḥ.
tulyapriyāpriyō dhīrastulyanindātmasaṅstutiḥ৷৷14.24৷৷
भावार्थ : जो सुख और दुख में समान भाव में स्थित रहता है, जो अपने आत्म-भाव में स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है। (२४)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ (२५)
mānāpamānayōstulyastulyō mitrāripakṣayōḥ.
sarvārambhaparityāgī guṇātītaḥ sa ucyatē৷৷14.25৷৷
भावार्थ : जो मान और अपमान को एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव में रहता है तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऎसे मनुष्य को प्रकृति के गुणों से अतीत कहा जाता है। (२५)
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (२६)
māṅ ca yō.vyabhicārēṇa bhakitayōgēna sēvatē.
sa guṇānsamatītyaitān brahmabhūyāya kalpatē৷৷14.26৷৷
भावार्थ : जो मनुष्य हर परिस्थिति में बिना विचलित हुए अनन्य-भाव से मेरी भक्ति में स्थिर रहता है, वह भक्त प्रकृति के तीनों गुणों को अति-शीघ्र पार करके ब्रह्म-पद पर स्थित हो जाता है। (२६)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ (२७)
brahmaṇō hi pratiṣṭhā.hamamṛtasyāvyayasya ca.
śāśvatasya ca dharmasya sukhasyaikāntikasya ca৷৷14.27৷৷
भावार्थ : उस अविनाशी ब्रह्म-पद का मैं ही अमृत स्वरूप, शाश्वत स्वरूप, धर्म स्वरूप और परम-आनन्द स्वरूप एक-मात्र आश्रय हूँ। (२७)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे प्राकृतिकगुणविभागयोगो नामचतुर्दशोऽध्यायः॥
भावार्थ : इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में प्राकृतिक गुण विभाग-योग नाम का चौदहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥
Read Full Blog...Ksetra-KsetrajnayVibhagYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 13 | क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग ~ अध्याय तेरह
अथ त्रयोदशोsध्याय: श्रीभगवानुवाच
ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ৷৷13.1৷৷
arjuna uvāca
prakṛtiṅ puruṣaṅ caiva kṣētraṅ kṣētrajñamēva ca.
ētadvēditumicchāmi jñānaṅ jñēyaṅ ca kēśava৷৷13.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे केशव! मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ॥13.1॥
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥
śrī bhagavānuvāca
idaṅ śarīraṅ kauntēya kṣētramityabhidhīyatē.
ētadyō vētti taṅ prāhuḥ kṣētrajña iti tadvidaḥ৷৷13.2৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र' (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम 'क्षेत्र' ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥13.2॥
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Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
kṣētrajñaṅ cāpi māṅ viddhi sarvakṣētrēṣu bhārata.
kṣētrakṣētrajñayōrjñānaṅ yattajjñānaṅ mataṅ mama৷৷13.3৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान (गीता अध्याय 15 श्लोक 7 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है (गीता अध्याय 13 श्लोक 23 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है৷৷13.3৷৷
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥
tatkṣētraṅ yacca yādṛk ca yadvikāri yataśca yat.
sa ca yō yatprabhāvaśca tatsamāsēna mē śrṛṇu৷৷13.4৷৷
भावार्थ : वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन৷৷13.4৷৷
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥
ṛṣibhirbahudhā gītaṅ chandōbhirvividhaiḥ pṛthak.
brahmasūtrapadaiścaiva hētumadbhirviniśicataiḥ৷৷13.5৷৷
भावार्थ : यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है৷৷13.5৷৷
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥
mahābhūtānyahaṅkārō buddhiravyaktamēva ca.
indriyāṇi daśaikaṅ ca pañca cēndriyagōcarāḥ৷৷13.6৷৷
भावार्थ : पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध৷৷13.6৷৷
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥
icchā dvēṣaḥ sukhaṅ duḥkhaṅ saṅghātaścētanādhṛtiḥ.
ētatkṣētraṅ samāsēna savikāramudāhṛtam৷৷13.7৷৷
भावार्थ : तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखना चाहिए।)-- इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया৷৷13.7৷৷
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
amānitvamadambhitvamahiṅsā kṣāntirārjavam.
ācāryōpāsanaṅ śaucaṅ sthairyamātmavinigrahaḥ৷৷13.8৷৷
भावार्थ : श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।) अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह৷৷13.8৷৷
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
indriyārthēṣu vairāgyamanahaṅkāra ēva ca.
janmamṛtyujarāvyādhiduḥkhadōṣānudarśanam৷৷13.9৷৷
भावार्थ : इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना৷৷13.9৷৷
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
asakitaranabhiṣvaṅgaḥ putradāragṛhādiṣu.
nityaṅ ca samacittatvamiṣṭāniṣṭōpapattiṣu৷৷13.10৷৷
भावार्थ : पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥13.10॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥
mayi cānanyayōgēna bhakitaravyabhicāriṇī.
viviktadēśasēvitvamaratirjanasaṅsadi৷৷13.11৷৷
भावार्थ : मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना 'अव्यभिचारिणी' भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥13.11॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥
adhyātmajñānanityatvaṅ tattvajñānārthadarśanam.
ētajjñānamiti prōktamajñānaṅ yadatōnyathā৷৷13.12৷৷
भावार्थ : अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम 'अध्यात्म ज्ञान' है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से 'ज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से 'अज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है- ऐसा कहा है॥13.12॥
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥
jñēyaṅ yattatpravakṣyāmi yajjñātvā.mṛtamaśnutē.
anādimatparaṅ brahma na sattannāsaducyatē৷৷13.13৷৷
भावार्थ : जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है, न असत् ही৷৷13.13৷৷
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥
sarvataḥ pāṇipādaṅ tatsarvatō.kṣiśirōmukham.
sarvataḥ śrutimallōkē sarvamāvṛtya tiṣṭhati৷৷13.14৷৷
भावार्थ : वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13.14॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
sarvēndriyaguṇābhāsaṅ sarvēndriyavivarjitam.
asaktaṅ sarvabhṛccaiva nirguṇaṅ guṇabhōktṛ ca৷৷13.15৷৷
भावार्थ : वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥13.15॥
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥
bahirantaśca bhūtānāmacaraṅ caramēva ca.
sūkṣmatvāttadavijñēyaṅ dūrasthaṅ cāntikē ca tat৷৷13.16৷৷
भावार्थ : वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥13.16॥
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
avibhaktaṅ ca bhūtēṣu vibhaktamiva ca sthitam.
bhūtabhartṛ ca tajjñēyaṅ grasiṣṇu prabhaviṣṇu ca৷৷13.17৷৷
भावार्थ : वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥13.17॥
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
jyōtiṣāmapi tajjyōtistamasaḥ paramucyatē.
jñānaṅ jñēyaṅ jñānagamyaṅ hṛdi sarvasya viṣṭhitam৷৷13.18৷৷
भावार्थ : वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति (गीता अध्याय 15 श्लोक 12 में देखना चाहिए) एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥13.18॥
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥
iti kṣētraṅ tathā jñānaṅ jñēyaṅ cōktaṅ samāsataḥ.
madbhakta ētadvijñāya madbhāvāyōpapadyatē৷৷13.19৷৷
भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र (श्लोक 5-6 में विकार सहित क्षेत्र का स्वरूप कहा है) तथा ज्ञान (श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 12 से 17 तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है) संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥13.19॥
ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥
prakṛtiṅ puruṣaṅ caiva viddhyanādī ubhāvapi.
vikārāṅśca guṇāṅścaiva viddhi prakṛtisaṅbhavān৷৷13.20৷৷
भावार्थ : प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥13.20॥
श्रीभगवानुवाच
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
kāryakāraṇakartṛtvē hētuḥ prakṛtirucyatē.
puruṣaḥ sukhaduḥkhānāṅ bhōktṛtvē hēturucyatē৷৷13.21৷৷
भावार्थ : कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम 'कार्य' है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम 'करण' है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥13.21॥
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
puruṣaḥ prakṛtisthō hi bhuṅktē prakṛtijānguṇān.
kāraṇaṅ guṇasaṅgō.sya sadasadyōnijanmasu৷৷13.22৷৷
भावार्थ : प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥13.22॥
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
upadraṣṭā.numantā ca bhartā bhōktā mahēśvaraḥ.
paramātmēti cāpyuktō dēhē.sminpuruṣaḥ paraḥ৷৷13.23৷৷
भावार्थ : इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥13.23॥
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥
ya ēvaṅ vētti puruṣaṅ prakṛtiṅ ca guṇaiḥsaha.
sarvathā vartamānō.pi na sa bhūyō.bhijāyatē৷৷13.24৷৷
भावार्थ : इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको 'तत्व से जानना' है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥13.24॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥
dhyānēnātmani paśyanti kēcidātmānamātmanā.
anyē sāṅkhyēna yōgēna karmayōgēna cāparē৷৷13.25৷৷
भावार्थ : उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान (जिसका वर्णन गीता अध्याय 6 में श्लोक 11 से 32 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 11 से 30 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 40 से अध्याय समाप्तिपर्यन्त विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥13.25॥
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
anyē tvēvamajānantaḥ śrutvā.nyēbhya upāsatē.
tē.pi cātitarantyēva mṛtyuṅ śrutiparāyaṇāḥ৷৷13.26৷৷
भावार्थ : परन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं॥13.26॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥
yāvatsañjāyatē kiñcitsattvaṅ sthāvarajaṅgamam.
kṣētrakṣētrajñasaṅyōgāttadviddhi bharatarṣabha৷৷13.27৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान॥13.27॥
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
samaṅ sarvēṣu bhūtēṣu tiṣṭhantaṅ paramēśvaram.
vinaśyatsvavinaśyantaṅ yaḥ paśyati sa paśyati৷৷13.28৷৷
भावार्थ : जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है॥13.28॥
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥
samaṅ paśyanhi sarvatra samavasthitamīśvaram.
na hinastyātmanā৷৷tmānaṅ tatō yāti parāṅ gatim৷৷13.29৷৷
भावार्थ : क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है॥13.29॥
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
prakṛtyaiva ca karmāṇi kriyamāṇāni sarvaśaḥ.
yaḥ paśyati tathā৷৷tmānamakartāraṅ sa paśyati৷৷13.30৷৷
भावार्थ : और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥13.30॥
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥
yadā bhūtapṛthagbhāvamēkasthamanupaśyati.
tata ēva ca vistāraṅ brahma sampadyatē tadā৷৷13.31৷৷
भावार्थ : जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥13.31॥
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥
anāditvānnirguṇatvātparamātmāyamavyayaḥ.
śarīrasthō.pi kauntēya na karōti na lipyatē৷৷13.32৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है॥13.32॥
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
yathā sarvagataṅ saukṣmyādākāśaṅ nōpalipyatē.
sarvatrāvasthitō dēhē tathā৷৷tmā nōpalipyatē৷৷13.33৷৷
भावार्थ : जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥13.33॥
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥
yathā prakāśayatyēkaḥ kṛtsnaṅ lōkamimaṅ raviḥ.
kṣētraṅ kṣētrī tathā kṛtsnaṅ prakāśayati bhārata৷৷13.34৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥13.34॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥
kṣētrakṣētrajñayōrēvamantaraṅ jñānacakṣuṣā.
bhūtaprakṛtimōkṣaṅ ca yē viduryānti tē param৷৷13.35৷৷
भावार्थ : इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही 'उनके भेद को जानना' है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥13.35॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥13॥
Read Full Blog...BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
arjuna uvāca
ēvaṅ satatayuktā yē bhaktāstvāṅ paryupāsatē.
yēcāpyakṣaramavyaktaṅ tēṣāṅ kē yōgavittamāḥ৷৷12.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
śrī bhagavānuvāca
mayyāvēśya manō yē māṅ nityayuktā upāsatē.
śraddhayā parayōpētāstē mē yuktatamā matāḥ৷৷12.2৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए (अर्थात गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में लिखे हुए प्रकार से निरन्तर मेरे में लगे हुए) जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥
भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें:
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
yē tvakṣaramanirdēśyamavyaktaṅ paryupāsatē.
sarvatragamacintyaṅ ca kūṭasthamacalaṅ dhruvam৷৷12.3৷৷
saṅniyamyēndriyagrāmaṅ sarvatra samabuddhayaḥ.
tē prāpnuvanti māmēva sarvabhūtahitē ratāḥ৷৷12.4৷৷
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
klēśō.dhikatarastēṣāmavyaktāsaktacētasām.
avyaktā hi gatirduḥkhaṅ dēhavadbhiravāpyatē৷৷12.5৷৷
भावार्थ : उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥5॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
yē tu sarvāṇi karmāṇi mayi saṅnyasya matparāḥ.
ananyēnaiva yōgēna māṅ dhyāyanta upāsatē৷৷12.6৷৷
भावार्थ : परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं। (इस श्लोक का विशेष भाव जानने के लिए गीता अध्याय 11 श्लोक 55 देखना चाहिए)॥6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥
tēṣāmahaṅ samuddhartā mṛtyusaṅsārasāgarāt.
bhavāmi nacirātpārtha mayyāvēśitacētasām৷৷12.7৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
mayyēva mana ādhatsva mayi buddhiṅ nivēśaya.
nivasiṣyasi mayyēva ata ūrdhvaṅ na saṅśayaḥ৷৷12.8৷৷
भावार्थ : मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
atha cittaṅ samādhātuṅ na śaknōṣi mayi sthiram.
abhyāsayōgēna tatō māmicchāptuṅ dhanañjaya৷৷12.9৷৷
भावार्थ : यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥9॥
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
abhyāsē.pyasamarthō.si matkarmaparamō bhava.
madarthamapi karmāṇi kurvan siddhimavāpsyasi৷৷12.10৷৷
भावार्थ : यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥10॥
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥
athaitadapyaśaktō.si kartuṅ madyōgamāśritaḥ.
sarvakarmaphalatyāgaṅ tataḥ kuru yatātmavān৷৷12.11৷৷
भावार्थ : यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में विस्तार देखना चाहिए) कर॥11॥
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
śrēyō hi jñānamabhyāsājjñānāddhyānaṅ viśiṣyatē.
dhyānātkarmaphalatyāgastyāgācchāntiranantaram৷৷12.12৷৷
भावार्थ : मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग (केवल भगवदर्थ कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान से 'कर्मफल का त्याग' श्रेष्ठ कहा है) श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥
भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण
अर्जुन उवाच
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
advēṣṭā sarvabhūtānāṅ maitraḥ karuṇa ēva ca.
nirmamō nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī৷৷12.13৷৷
santuṣṭaḥ satataṅ yōgī yatātmā dṛḍhaniścayaḥ.
mayyarpitamanōbuddhiryō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.14৷৷
भावार्थ : जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥13-14॥
श्रीभगवानुवाच
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
yasmānnōdvijatē lōkō lōkānnōdvijatē ca yaḥ.
harṣāmarṣabhayōdvēgairmuktō yaḥ sa ca mē priyaḥ৷৷12.15৷৷
भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है॥15॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
anapēkṣaḥ śucirdakṣa udāsīnō gatavyathaḥ.
sarvārambhaparityāgī yō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.16৷৷
भावार्थ : जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए) चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥16॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
yō na hṛṣyati na dvēṣṭi na śōcati na kāṅkṣati.
śubhāśubhaparityāgī bhakitamānyaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.17৷৷
भावार्थ : जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥17॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥
samaḥ śatrau ca mitrē ca tathā mānāpamānayōḥ.
śītōṣṇasukhaduḥkhēṣu samaḥ saṅgavivarjitaḥ৷৷12.18৷৷
भावार्थ : जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
tulyanindāstutirmaunī santuṣṭō yēnakēnacit.
anikētaḥ sthiramatirbhakitamānmē priyō naraḥ৷৷12.19৷৷
भावार्थ : जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥19॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
yē tu dharmyāmṛtamidaṅ yathōktaṅ paryupāsatē.
śraddadhānā matparamā bhaktāstē.tīva mē priyāḥ৷৷12.20৷৷
भावार्थ : परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥20॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥
Read Full Blog...VishwaRoopDarshanYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 11 | विश्वरूपदर्शनयोग ~ अध्याय ग्यारह
अथैकादशोऽध्यायः- विश्वरूपदर्शनयोग
विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥
arjuna uvāca
madanugrahāya paramaṅ guhyamadhyātmasaṅjñitam.
yattvayōktaṅ vacastēna mōhō.yaṅ vigatō mama৷৷11.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है॥1॥
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥
bhavāpyayau hi bhūtānāṅ śrutau vistaraśō mayā.
tvattaḥ kamalapatrākṣa māhātmyamapi cāvyayam৷৷11.2৷৷
भावार्थ : क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतों की उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है॥2॥
भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें:
Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥
ēvamētadyathāttha tvamātmānaṅ paramēśvara.
draṣṭumicchāmi tē rūpamaiśvaraṅ puruṣōttama৷৷11.3৷৷
भावार्थ : हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, परन्तु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ॥3॥
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥
manyasē yadi tacchakyaṅ mayā draṣṭumiti prabhō.
yōgēśvara tatō mē tvaṅ darśayā.tmānamavyayam৷৷11.4৷৷
भावार्थ : हे प्रभो! (उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय तथा अन्तर्यामी रूप से शासन करने वाला होने से भगवान का नाम 'प्रभु' है) यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है- ऐसा आप मानते हैं, तो हे योगेश्वर! उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइए॥4॥
भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥
śrī bhagavānuvāca
paśya mē pārtha rūpāṇi śataśō.tha sahasraśaḥ.
nānāvidhāni divyāni nānāvarṇākṛtīni ca৷৷11.5৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृतिवाले अलौकिक रूपों को देख॥5॥
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥
paśyādityānvasūnrudrānaśivanau marutastathā.
bahūnyadṛṣṭapūrvāṇi paśyā.ścaryāṇi bhārata৷৷11.6৷৷
भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! तू मुझमें आदित्यों को अर्थात अदिति के द्वादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनीकुमारों को और उनचास मरुद्गणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्यमय रूपों को देख॥6॥
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥
ihaikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ paśyādya sacarācaram.
mama dēhē guḍākēśa yaccānyaddraṣṭumicchasi৷৷11.7৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख॥7॥ (गुडाकेश- निद्रा को जीतने वाला होने से अर्जुन का नाम 'गुडाकेश' हुआ था)
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥
na tu māṅ śakyasē draṣṭumanēnaiva svacakṣuṣā.
divyaṅ dadāmi tē cakṣuḥ paśya mē yōgamaiśvaram৷৷11.8৷৷
भावार्थ : परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूँ, इससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख॥8॥
संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥
sañjaya uvāca
ēvamuktvā tatō rājanmahāyōgēśvarō hariḥ.
darśayāmāsa pārthāya paramaṅ rūpamaiśvaram৷৷11.9৷৷
भावार्थ : संजय बोले- हे राजन्! महायोगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात अर्जुन को परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्यस्वरूप दिखलाया॥9॥
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥
anēkavaktranayanamanēkādbhutadarśanam.
anēkadivyābharaṇaṅ divyānēkōdyatāyudham৷৷11.10৷৷
divyamālyāmbaradharaṅ divyagandhānulēpanam.
sarvāścaryamayaṅ dēvamanantaṅ viśvatōmukham৷৷11.11৷৷
भावार्थ : अनेक मुख और नेत्रों से युक्त, अनेक अद्भुत दर्शनों वाले, बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए और दिव्य गंध का सारे शरीर में लेप किए हुए, सब प्रकार के आश्चर्यों से युक्त, सीमारहित और सब ओर मुख किए हुए विराट्स्वरूप परमदेव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा॥10-11॥
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥
divi sūryasahasrasya bhavēdyugapadutthitā.
yadi bhāḥ sadṛśī sā syādbhāsastasya mahātmanaḥ৷৷11.12৷৷
भावार्थ : आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्व रूप परमात्मा के प्रकाश के सदृश कदाचित् ही हो॥12॥
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥
tatraikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ pravibhaktamanēkadhā.
apaśyaddēvadēvasya śarīrē pāṇḍavastadā৷৷11.13৷৷
भावार्थ : पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त अर्थात पृथक-पृथक सम्पूर्ण जगत को देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा॥13॥
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥
tataḥ sa vismayāviṣṭō hṛṣṭarōmā dhanañjayaḥ.
praṇamya śirasā dēvaṅ kṛtāñjalirabhāṣata৷৷11.14৷৷
भावार्थ : उसके अनंतर आश्चर्य से चकित और पुलकित शरीर अर्जुन प्रकाशमय विश्वरूप परमात्मा को श्रद्धा-भक्ति सहित सिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले॥14॥
अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥
arjuna uvāca
paśyāmi dēvāṅstava dēva dēhē
sarvāṅstathā bhūtaviśēṣasaṅghān.
brahmāṇamīśaṅ kamalāsanastha-
mṛṣīṅśca sarvānuragāṅśca divyān৷৷11.15৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों को तथा अनेक भूतों के समुदायों को, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को देखता हूँ॥15॥
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥
anēkabāhūdaravaktranētraṅ
paśyāmi tvāṅ sarvatō.nantarūpam.
nāntaṅ na madhyaṅ na punastavādiṅ
paśyāmi viśvēśvara viśvarūpa৷৷11.16৷৷
भावार्थ : हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन्! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ, न मध्य को और न आदि को ही॥16॥
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakriṇaṅ ca
tējōrāśiṅ sarvatōdīptimantam.
paśyāmi tvāṅ durnirīkṣyaṅ samantā-
ddīptānalārkadyutimapramēyam৷৷11.17৷৷
भावार्थ : आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ॥17॥
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥
tvamakṣaraṅ paramaṅ vēditavyaṅ
tvamasya viśvasya paraṅ nidhānam.
tvamavyayaḥ śāśvatadharmagōptā
sanātanastvaṅ puruṣō matō mē৷৷11.18৷৷
भावार्थ : आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात परब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस जगत के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। ऐसा मेरा मत है॥18॥
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥
anādimadhyāntamanantavīrya-
manantabāhuṅ śaśisūryanētram.
paśyāmi tvāṅ dīptahutāśavaktram
svatējasā viśvamidaṅ tapantam৷৷11.19৷৷
भावार्थ : आपको आदि, अंत और मध्य से रहित, अनन्त सामर्थ्य से युक्त, अनन्त भुजावाले, चन्द्र-सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संतृप्त करते हुए देखता हूँ॥19॥
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥
dyāvāpṛthivyōridamantaraṅ hi
vyāptaṅ tvayaikēna diśaśca sarvāḥ.
dṛṣṭvā.dbhutaṅ rūpamugraṅ tavēdaṅ
lōkatrayaṅ pravyathitaṅ mahātman৷৷11.20৷৷
भावार्थ : हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सब दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं तथा आपके इस अलौकिक और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा को प्राप्त हो रहे हैं॥20॥
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥
amī hi tvāṅ surasaṅghāḥ viśanti
kēcidbhītāḥ prāñjalayō gṛṇanti.
svastītyuktvā maharṣisiddhasaṅghāḥ
stuvanti tvāṅ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ৷৷11.21৷৷
भावार्थ : वे ही देवताओं के समूह आप में प्रवेश करते हैं और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते हैं तथा महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण हो' ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥21॥
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥
rudrādityā vasavō yē ca sādhyā
viśvē.śivanau marutaścōṣmapāśca.
gandharvayakṣāsurasiddhasaṅghā
vīkṣantē tvāṅ vismitāścaiva sarvē৷৷11.22৷৷
भावार्थ : जो ग्यारह रुद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गण और पितरों का समुदाय तथा गंधर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय हैं- वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते हैं॥22॥
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥
rūpaṅ mahattē bahuvaktranētraṅ
mahābāhō bahubāhūrupādam.
bahūdaraṅ bahudaṅṣṭrākarālaṅ
dṛṣṭvā lōkāḥ pravyathitāstathā.ham৷৷11.23৷৷
भावार्थ : हे महाबाहो! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले, बहुत हाथ, जंघा और पैरों वाले, बहुत उदरों वाले और बहुत-सी दाढ़ों के कारण अत्यन्त विकराल महान रूप को देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ॥23॥
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥
nabhaḥspṛśaṅ dīptamanēkavarṇaṅ
vyāttānanaṅ dīptaviśālanētram.
dṛṣṭvā hi tvāṅ pravyathitāntarātmā
dhṛtiṅ na vindāmi śamaṅ ca viṣṇō৷৷11.24৷৷
भावार्थ : क्योंकि हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करने वाले, दैदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त तथा फैलाए हुए मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत अन्तःकरण वाला मैं धीरज और शान्ति नहीं पाता हूँ॥24॥
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
daṅṣṭrākarālāni ca tē mukhāni
dṛṣṭvaiva kālānalasannibhāni.
diśō na jānē na labhē ca śarma
prasīda dēvēśa jagannivāsa৷৷11.25৷৷
भावार्थ : दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हों॥25॥
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ॥
amī ca tvāṅ dhṛtarāṣṭrasya putrāḥ
sarvē sahaivāvanipālasaṅghaiḥ.
bhīṣmō drōṇaḥ sūtaputrastathā.sau
sahāsmadīyairapi yōdhamukhyaiḥ৷৷11.26৷৷
vaktrāṇi tē tvaramāṇā viśanti
daṅṣṭrākarālāni bhayānakāni.
kēcidvilagnā daśanāntarēṣu
saṅdṛśyantē cūrṇitairuttamāṅgaiḥ৷৷11.27৷৷
भावार्थ : वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं॥26-27॥
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥
yathā nadīnāṅ bahavō.mbuvēgāḥ
samudramēvābhimukhāḥ dravanti.
tathā tavāmī naralōkavīrā
viśanti vaktrāṇyabhivijvalanti৷৷11.28৷৷
भावार्थ : जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं॥28॥
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥
yathā pradīptaṅ jvalanaṅ pataṅgā
viśanti nāśāya samṛddhavēgāḥ.
tathaiva nāśāya viśanti lōkā-
stavāpi vaktrāṇi samṛddhavēgāḥ৷৷11.29৷৷
भावार्थ : जैसे पतंग मोहवश नष्ट होने के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं॥29॥
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥
lēlihyasē grasamānaḥ samantā-
llōkānsamagrānvadanairjvaladbhiḥ.
tējōbhirāpūrya jagatsamagraṅ
bhāsastavōgrāḥ pratapanti viṣṇō৷৷11.30৷৷
भावार्थ : आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार-बार चाट रहे हैं। हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत को तेज द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है॥30॥
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥
ākhyāhi mē kō bhavānugrarūpō
namō.stu tē dēvavara prasīda.
vijñātumicchāmi bhavantamādyaṅ
na hi prajānāmi tava pravṛttim৷৷11.31৷৷
भावार्थ : मुझे बतलाइए कि आप उग्ररूप वाले कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइए। आदि पुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता॥31॥
भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥
śrī bhagavānuvāca
kālō.smi lōkakṣayakṛtpravṛddhō
lōkānsamāhartumiha pravṛttaḥ.
ṛtē.pi tvāṅ na bhaviṣyanti sarvē
yē.vasthitāḥ pratyanīkēṣu yōdhāḥ৷৷11.32৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिए जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जाएगा॥32॥
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
tasmāttvamuttiṣṭha yaśō labhasva
jitvā śatrūn bhuṅkṣva rājyaṅ samṛddham.
mayaivaitē nihatāḥ pūrvamēva
nimittamātraṅ bhava savyasācin৷৷11.33৷৷
भावार्थ : अतएव तू उठ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से सम्पन्न राज्य को भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही द्वारा मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन! (बाएँ हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होने से अर्जुन का नाम 'सव्यसाची' हुआ था) तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा॥33॥
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
drōṇaṅ ca bhīṣmaṅ ca jayadrathaṅ ca
karṇaṅ tathā.nyānapi yōdhavīrān.
mayā hatāṅstvaṅ jahi mā vyathiṣṭhā
yudhyasva jētāsi raṇē sapatnān৷৷11.34৷৷
भावार्थ : द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीर योद्धाओं को तू मार। भय मत कर। निःसंदेह तू युद्ध में वैरियों को जीतेगा। इसलिए युद्ध कर॥34॥
भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥
sañjaya uvāca
ētacchrutvā vacanaṅ kēśavasya
kṛtāñjalirvēpamānaḥ kirīṭī.
namaskṛtvā bhūya ēvāha kṛṣṇaṅ
sagadgadaṅ bhītabhītaḥ praṇamya৷৷11.35৷৷
भावार्थ : संजय बोले- केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर काँपते हुए नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद् वाणी से बोले॥35॥
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ॥
arjuna uvāca
sthānē hṛṣīkēśa tava prakīrtyā
jagat prahṛṣyatyanurajyatē ca.
rakṣāṅsi bhītāni diśō dravanti
sarvē namasyanti ca siddhasaṅghāḥ৷৷11.36৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे अन्तर्यामिन्! यह योग्य ही है कि आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे हैं और सब सिद्धगणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं॥36॥
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥
kasmācca tē na namēranmahātman
garīyasē brahmaṇō.pyādikartrē.
ananta dēvēśa jagannivāsa
tvamakṣaraṅ sadasattatparaṅ yat৷৷11.37৷৷
भावार्थ : हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आपके लिए वे कैसे नमस्कार न करें क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है, वह आप ही हैं॥37॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप । ।
tvamādidēvaḥ puruṣaḥ purāṇa-
stvamasya viśvasya paraṅ nidhānam.
vēttāsi vēdyaṅ ca paraṅ ca dhāma
tvayā tataṅ viśvamanantarūpa৷৷11.38৷৷
भावार्थ : आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, आप इन जगत के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण हैं॥38॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
vāyuryamō.gnirvaruṇaḥ śaśāṅkaḥ
prajāpatistvaṅ prapitāmahaśca.
namō namastē.stu sahasrakṛtvaḥ
punaśca bhūyō.pi namō namastē৷৷11.39৷৷
भावार्थ : आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं। आपके लिए हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! आपके लिए फिर भी बार-बार नमस्कार! नमस्कार!!॥39॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
namaḥ purastādatha pṛṣṭhatastē
namō.stu tē sarvata ēva sarva.
anantavīryāmitavikramastvaṅ
sarvaṅ samāpnōṣi tatō.si sarvaḥ৷৷11.40৷৷
भावार्थ : हे अनन्त सामर्थ्यवाले! आपके लिए आगे से और पीछे से भी नमस्कार! हे सर्वात्मन्! आपके लिए सब ओर से ही नमस्कार हो, क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं, इससे आप ही सर्वरूप हैं॥40॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥
sakhēti matvā prasabhaṅ yaduktaṅ
hē kṛṣṇa hē yādava hē sakhēti.
ajānatā mahimānaṅ tavēdaṅ
mayā pramādātpraṇayēna vāpi৷৷11.41৷৷
yaccāvahāsārthamasatkṛtō.si
vihāraśayyāsanabhōjanēṣu.
ēkō.thavāpyacyuta tatsamakṣaṅ
tatkṣāmayē tvāmahamapramēyam৷৷11.42৷৷
भावार्थ : आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने 'हे कृष्ण!', 'हे यादव !' 'हे सखे!' इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात् कहा है और हे अच्युत! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिए विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किए गए हैं- वह सब अपराध अप्रमेयस्वरूप अर्थात अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ॥41-42॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
pitāsi lōkasya carācarasya
tvamasya pūjyaśca gururgarīyān.
na tvatsamō.styabhyadhikaḥ kutō.nyō
lōkatrayē.pyapratimaprabhāva৷৷11.43৷৷
भावार्थ : आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं। हे अनुपम प्रभाववाले! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं हैं, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है॥43॥
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥
tasmātpraṇamya praṇidhāya kāyaṅ
prasādayē tvāmahamīśamīḍyam.
pitēva putrasya sakhēva sakhyuḥ
priyaḥ priyāyārhasi dēva sōḍhum৷৷11.44৷৷
भावार्थ : अतएव हे प्रभो! मैं शरीर को भलीभाँति चरणों में निवेदित कर, प्रणाम करके, स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ। हे देव! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं। ॥44॥
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥
adṛṣṭapūrvaṅ hṛṣitō.smi dṛṣṭvā
bhayēna ca pravyathitaṅ manō mē.
tadēva mē darśaya dēva rūpaṅ
prasīda dēvēśa jagannivāsa৷৷11.45৷৷
भावार्थ : मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिए आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइए। हे देवेश! हे जगन्निवास! प्रसन्न होइए॥45॥
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakrahasta-
micchāmi tvāṅ draṣṭumahaṅ tathaiva.
tēnaiva rūpēṇa caturbhujēna
sahasrabāhō bhava viśvamūrtē৷৷11.46৷৷
भावार्थ : मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। इसलिए हे विश्वस्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइए॥46॥
भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥
śrī bhagavānuvāca
mayā prasannēna tavārjunēdaṅ
rūpaṅ paraṅ darśitamātmayōgāt.
tējōmayaṅ viśvamanantamādyaṅ
yanmē tvadanyēna na dṛṣṭapūrvam৷৷11.47৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! अनुग्रहपूर्वक मैंने अपनी योगशक्ति के प्रभाव से यह मेरे परम तेजोमय, सबका आदि और सीमारहित विराट् रूप तुझको दिखाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था॥47॥
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥
na vēdayajñādhyayanairna dānai-
rna ca kriyābhirna tapōbhirugraiḥ.
ēvaṅrūpaḥ śakya ahaṅ nṛlōkē
draṣṭuṅ tvadanyēna kurupravīra৷৷11.48৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्व रूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे द्वारा देखा जा सकता हूँ।48॥
मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥
mā tē vyathā mā ca vimūḍhabhāvō
dṛṣṭvā rūpaṅ ghōramīdṛṅmamēdam.
vyapētabhīḥ prītamanāḥ punastvaṅ
tadēva mē rūpamidaṅ prapaśya৷৷11.49৷৷
भावार्थ : मेरे इस प्रकार के इस विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुलता नहीं होनी चाहिए और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिए। तू भयरहित और प्रीतियुक्त मनवाला होकर उसी मेरे इस शंख-चक्र-गदा-पद्मयुक्त चतुर्भुज रूप को फिर देख॥49॥
संजय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥
sañjaya uvāca
ityarjunaṅ vāsudēvastathōktvā
svakaṅ rūpaṅ darśayāmāsa bhūyaḥ.
āśvāsayāmāsa ca bhītamēnaṅ
bhūtvā punaḥ saumyavapurmahātmā৷৷11.50৷৷
भावार्थ : संजय बोले- वासुदेव भगवान ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्यमूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया॥50॥
बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः॥
arjuna uvāca
dṛṣṭvēdaṅ mānuṣaṅ rūpaṅ tavasaumyaṅ janārdana.
idānīmasmi saṅvṛttaḥ sacētāḥ prakṛtiṅ gataḥ৷৷11.51৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे जनार्दन! आपके इस अतिशांत मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ॥51॥
अर्जुन उवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः॥
śrī bhagavānuvāca
sudurdarśamidaṅ rūpaṅ dṛṣṭavānasi yanmama.
dēvā apyasya rūpasya nityaṅ darśanakāṅkṣiṇaḥ৷৷11.52৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, वह सुदुर्दर्श है अर्थात् इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं॥52॥
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥
nāhaṅ vēdairna tapasā na dānēna na cējyayā.
śakya ēvaṅvidhō draṣṭuṅ dṛṣṭavānasi māṅ yathā৷৷11.53৷৷
भावार्थ : जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है- इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ॥53॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥
bhaktyā tvananyayā śakyamahamēvaṅvidhō.rjuna.
jñātuṅ dṛṣṭuṅ ca tattvēna pravēṣṭuṅ ca paraṅtapa৷৷11.54৷৷
भावार्थ : परन्तु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्ति (अनन्यभक्ति का भाव अगले श्लोक में विस्तारपूर्वक कहा है।) के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए, तत्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ॥54॥
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥
matkarmakṛnmatparamō madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ.
nirvairaḥ sarvabhūtēṣu yaḥ sa māmēti pāṇḍava৷৷11.55৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है (सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाने से उस पुरुष का अति अपराध करने वाले में भी वैरभाव नहीं होता है, फिर औरों में तो कहना ही क्या है), वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है॥55॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥11॥
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