आत्मनिर्भरता

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( प्रस्तुत निबंध में लेखक ने युवकों को स्वयं पर निर्भर रहने की प्रेरणा दी)

विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतंत्रता की दरिया माता है इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्म संस्कार के लिए थोड़ी बहुत मानसिक स्वतंत्रता परम आवश्यक है चाहे उसे स्वतंत्रता में अभियान और नर्मदा दोनों का मेल हो और चाहे वह निर्माता ही से उत्पन्न हो यह बात तो निश्चित है कि जो बहुत ज्यादा पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है उसके लिए वह गुण अनिवार्य है जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिसे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएं उसकी योग्यता से कई बड़ी हुई है उसे इस बात ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करें चोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करेंगे बातें आत्म मर्यादा के लिए आवश्यक है यह सारा संसार जो कुछ हम है और जो कुछ हमारा है हमारा शरीर हमारी आत्मा हमारे कर्म हमारे भोग हमारे घर की ओर बाहर की दशा हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े से गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नाम रखना चाहिए नर्मदा से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुंह ताकता है जिससे उसका संकल्प सेन और उसकी प्रज्ञा बंद हो जाती है जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी वह पीछे रहता है अवसर पढ़ने पर चटपट किसी बात का निर्णायक नहीं कर सकता मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है उसे वह चाहे जितना लगे सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में प्रत्येक स्थिति के अपनी रहा आप निकलती है

 अब तुम्हें क्या करना चाहिए इसका ठीक-ठाक उत्तर तू ही को देना होगा दूसरा कोई नहीं दे सकता कैसा भी विश्वास पात्र मित्र हो तुम्हारे इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता हम अनुभवी लोगों की बातों को आधार के साथ सुन बुद्धिमानों की सलाह को मृत ज्ञात पूर्वक माने पर इस बात को निश्चित समझ कर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा में हमारा पतन होगा हमें अपने विचारों और निर्णय की स्वतंत्रता को दानदाता पूर्वक बनाए रखना चाहिए जिस पुरुष की दृष्टि सदा नीचे रहती है उसका सर कभी ऊपर नहीं होगा नीचे दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहां ले जाता है चित्र की स्वतंत्रता को मतलब चेष्टा की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है अपने व्यवहारों में कोमल रहो और अपने देश को उच्च रखो इस प्रकार नम और उच्च से दोनों बानो अपने मन को कभी मरा हुआ ना रखो जितना ही जो मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है उतना ही उसका

 संसार में ऐसे ऐसे दंड चित्र मनुष्य हो गए हैं जिन्हें मरते दम तक सत्य की टेक नहीं छोड़ी अपनी आत्मा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया राजा हरिश्चंद्र के ऊपर इतनी इतनी विपत्तियां आई पर उन्होंने अपना सत्य नहीं छोड़ा उसकी प्रतिज्ञा यही रही 

 




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