दिव्य ज्योति दर्शन की ध्यान धारणा
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गायत्री माता को "सूर्य मण्डल मध्यस्था" सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान कहा गया है। इस महामन्त्र के विनियोग में गायत्री छंद- विश्वामित्र ऋषि एवं सविता देवता का उल्लेख है। प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता कहा गया है। वस्तुतः यह ज्ञान स्वरूप परमात्मा का नाम है। अग्नि पिण्ड सूर्य तो उसकी स्थूल प्रतिमा भर है। ईश्वर की स्वयंभू प्रतिमा सूर्य को कहा गया है। ॐ उसका स्वोच्चारित नाम है।
सूर्य को प्रकाश और तेज का प्रतीक माना गया है। चेतना क्षेत्र में इस ज्ञान को प्रकाश कहा गया है। लेटेन्ट लाइट, डिवाइन लाइट, ब्रह्मज्योति आदि शब्दों में मानवी सत्ता में दैवी अवतरण के प्रकाश के उदय की संज्ञा दी गई है। सूर्य का ध्यान करते समय साधक की भावना रहती है कि सविता देव से निस्सृत दिव्य किरणें मेरे कायकलेवर में प्रवेश करती हैं। फलस्वरूप स्थूल शरीर में बल, सूक्ष्म शरीर में ज्ञान और कारण शरीर में श्रद्धा का संचार करती हैं। तीनों शरीर इन अनुदानों सहित अवतरित होने वाले प्रकाश से परिपूर्ण होते चले जाते हैं। यह संकल्प जितना गहरा होता है, उसी अनुपात से चेतना में उपरोक्त विविध विशेषताएं विभूतियाँ उभरती चली जाती हैं। इस प्रकार यह ध्यान आत्म-सत्ता के बहिरंग एवं अन्तरंग पक्ष को विकसित करने में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है।
प्रकाश ध्यान का आरम्भ सूर्य को पूर्व दिशा में उदय होते हुए परिकल्पित करने की भावना से होता है। उसकी किरणें अपने काय-कलेवर में प्रवेश करती हैं और तीनों शरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बनाती हैं। स्थूल शरीर को अग्निपुंज, अग्निपिण्ड-सूक्ष्म शरीर को प्रकाशमय, ज्योतिर्मय, कारण शरीर को दीप्तिमय, कान्तिमय, आभामय बनाती हैं। समूची जीवन सत्ता ज्योतिर्मय हो उठती है। इस स्थिति में स्थूल शरीर को ओजस्, सूक्ष्म को तेजस् और कारण शरीर को वर्चस् के अनुदान उपलब्ध होते हैं। इस ध्यान धारणा का चमत्कारी प्रतिफल साधक को शीघ्र ही दृष्टिगोचर होने लगता है। स्थूल शरीर में उत्साह एवं स्फूर्ति, सूक्ष्म शरीर में संतुलन एवं विवेक, कारण शरीर में श्रद्धा एवं भक्ति का दिव्य संचार इस प्रकाश ध्यान के सहारे उठता, उभरता दीखता है। मोटी दृष्टि से यह लाभ सामान्य प्रतीत हो सकते हैं। किन्तु जब इस अन्तःविकास की प्रतिक्रिया सामने प्रस्तुत होगी तो प्रतीत होगा कि यह सामान्य साधना कितना असामान्य प्रभाव परिणाम उपलब्ध कराती है।
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