किसी भी विषय पर बिना किसी वासना के विचारों को केंद्रित करना
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शुक्लध्यान :-मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है, वह शुक्लध्यान है। यह परिपूर्ण समाधि की स्थिति है। इसी ध्यान से आत्मानुभूति के द्वार खुलते हैं। शुक्ल-ध्यान की चार अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
पृथक्त्व-वितर्क-वीचार- श्रुतज्ञान के आधार पर अनेक द्रव्य, गुण और पर्यायों का योग, व्यंजन एवं ध्येयगत पदार्थ के परिवर्तनपूर्वक चिन्तन पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान है। यहाँ पृथक्त्व का अर्थ विविधता/भेद है। वितर्क का अर्थ द्वादशांगात्मक श्रुतज्ञान तथा वीचार का मतलब-अर्थ व्यञ्जन और योगों की सङ्क्रान्ति है। ध्येयगत परिवर्तन अर्थ सङ्क्रान्ति है।श्रुतज्ञानात्मक शब्दों/श्रुतवाक्यों का परिवर्तन व्यञ्जन सङ्क्रान्ति हैं तथा मन,वचन, काय योगों का परिवर्तन योग सङ्क्रान्ति है। पृथक्त्व,विर्तक और वीचार से युक्त होने के कारण यह पृथक्त्वविर्तकवीचार ध्यान कहलाता है।
यह ध्यान उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी में आरोहण करनेवाले, पूर्वधारी साधक श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक करते हैं। इस ध्यान में ध्याता परमाणु आदि जड़ द्रव्यों तथा आत्मा आदि चेतन द्रव्यों का चिन्तन करता है। यह चिन्तन कभी द्रव्यार्थिक दृष्टि से करता है, तो कभी पर्यायार्थिक दृष्टि से। द्रव्यार्थिक दृष्टि के चिन्तन में पुद्गल आदि विविध द्रव्यो के पारस्परिक साम्य का चिन्तन करता है तथा पयार्यार्थिक दृष्टि में वह उनकी वर्तमानकालीन विविध अवस्थाओं का विचार करता है। द्रव्यार्थिक ओर पर्यायार्थिक रूप चिन्तन की इस विविधता को पृथक्त्व कहते हैं। इसमें अर्थ, व्यञ्जन और योगों में भी परिवर्तन होता रहता है। इस ध्यान में ध्याता द्रव्य को ध्याता हुआ पर्याय को और पर्याय को ध्याता हुआ द्रव्य का ध्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य में बार-बार परिवर्तन होता रहता है।
ध्येयगत इसी परिवर्तन को अर्थ सङ्क्रान्ति कहते हैं। व्यञ्जन का अर्थ है- शब्द/श्रुतवाक्य इस ध्यान में ध्याता शब्द से शब्दान्तर का आलम्बन लेता रहता है अर्थात् कभी वह श्रुत ज्ञान के किसी शब्द के आलम्बन से चिन्तन करता है, तो कभी उसे छोड़कर दूसरे शब्द के आलम्बन से। इसी प्रकार वह कभी मनोयोग, कभी वचनयोग और कभी काययोग का आश्रय लेता है। अर्थात् योग से योगान्तर को प्राप्त होता रहता है। इतना होने पर भी उसका ध्यान नहीं छूटता, क्योकि उसमें चिन्तन सातत्य बना रहता है। तात्पर्य यह है कि इस ध्यान में श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक विविध दृष्टियों से विचार किया जाता है तथा इसमें अर्थ व्यञ्जन और योगों में परिवर्तन होता रहता है। इसलिए यह पृथक्त्वविर्तकवीचार कहलाता है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि ध्येयों का यह परिवर्तन सहज,निष्प्रयास और अबुद्धि पूर्वक होता है।
1.एकत्व-विर्तक-अवीचार- जिस शुक्लध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक ही द्रव्य, गुण या पर्याय का योग और श्रुतवाक्यों के परिवर्तन से रहित चिन्तन होता है, वह एकत्ववितर्कवीचार ध्यान कहलाता है। पृथक्त्व और वीचार से रहित इस ध्यान में ध्याता श्रुतज्ञान के आलम्बनपूर्वक किसी एक द्रव्य या पर्याय का चिन्तन करता है। इसमें द्रव्य, पर्याय, शब्द या योग में परिवर्तन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि ध्याता जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द और योग का आलम्बन लेता है, अन्त तक उसमें परिवर्तन नहीं होता। ध्येयगत विविधता और वीचार से रहित होने के कारण इसे एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान कहते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय के उपरान्त क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त साधक यह ध्यान करते हैं। इसी ध्यान के बलपर आत्मा शेष घातिया कमों के क्षयपूर्वक वीतरागी सर्वज्ञ और सदेह परमात्मा बनता है।
2.सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति- वितर्क और वीचार से रहित इस ध्यान में मन, वचन और कायरूप योगों का निरोध हो जाता है। यहाँ तक कि श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म-क्रिया भी इस ध्यान से निरुद्ध हो जाती है। सूक्ष्म क्रियाओं के भी निरोध से उपलब्ध होने के कारण इसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहते है। यह ध्यान जीवन-मुक्त सयोग केवली के अपनी आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष बचने पर होता है।
3.व्युपरतक्रिया-निवृत्ति- वितर्क और वीचार से रहित यह ध्यान क्रिया से भी रहित हो जाता है। इस ध्यान में आत्मा के समस्त प्रदेश निष्प्रकम्प हो जाते हैं। अत: आत्मा अयोगी बन जाता है। इस ध्यान में किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ नहीं होती। योगरूप क्रियाओं से उपरत हो जाने के कारण इस ध्यान का नाम व्युपरतक्रिया-निवृत्ति है। इस ध्यान के प्रताप से शेष सर्व कर्मों का नाश हो जाता है तथा आत्मा, देहमुक्त होकर अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोक के अग्रभाग तक जाकर शरीरातीत अवस्था के साथ वहाँ स्थिर हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इसी ध्यान के बल से सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है और दुःखो से सदा के लिए मुक्ति मिल जाती है।
शरीर को बेहतर ऊर्जा प्रदान करता एक बार करे चिंगोंन ध्यान
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