प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति (डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर)

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प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति (डॉ  भीमराव रामजी अंबेडकर)

पुस्तक का मुख्य विचार और थीसिस

इस पुस्तक का केंद्रीय तर्क यह है कि प्राचीन भारत के इतिहास को वैदिक ब्राह्मणवाद (सनातन हिंदू धर्म) और बौद्ध धर्म के बीच हुए संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। अंबेडकर के अनुसार, बौद्ध धर्म एक क्रांति (Revolution) था जिसने वैदिक समाज की कुरीतियों का विरोध किया, जबकि बाद में ब्राह्मणवादी विचारधारा ने एक प्रतिक्रांति (Counter-Revolution) के माध्यम से अपना वर्चस्व फिर से स्थापित किया।

मुख्य अध्यायों/विषयों का सारांश

1. वैदिक समाज की सामाजिक व्यवस्था: मनुस्मृति का शासन अंबेडकर बताते हैं कि प्रारंभिक वैदिक समाज चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की अत्यंत कठोर और असमान व्यवस्था पर आधारित था। इस व्यवस्था को मनुस्मृति जैसे धर्मग्रंथों का समर्थन प्राप्त था, जिसने शूद्रों और महिलाओं को निम्नतम दर्जा देकर ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्थापित किया। यह व्यवस्था शोषण, छुआछूत और जन्म के आधार पर भेदभाव पर टिकी हुई थी।

2. बौद्ध धर्म: क्रांति (The Revolution) डॉ. अंबेडकर के अनुसार, भगवान बुद्ध और उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म ने इस वर्ण-आधारित व्यवस्था के खिलाफ एक मौलिक क्रांति का सूत्रपात किया।

  • समानता का सिद्धांत: बौद्ध धर्म ने जाति, वर्ण या लिंग के आधार पर भेदभाव को खारिज किया। संघ में सभी को समान अधिकार थे।

  • तर्क और बुद्धिवाद: इसने अंधविश्वास, कर्मकांड और पुरोहितवाद के विरुद्ध तर्क, नैतिकता और आत्म-साक्षात्कार पर जोर दिया।

  • सामाजिक न्याय: बौद्ध धर्म का उदय एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन था जिसका उद्देश्य एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज की स्थापना करना था।

  • मौर्य साम्राज्य का योगदान: सम्राट अशोक जैसे शासकों ने बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण दिया, जिससे यह क्रांति पूरे भारत और एशिया में फैल गई।

3. ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रांति (The Counter-Revolution) अंबेडकर का तर्क है कि बौद्ध धर्म के उदय से ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गहरा झटका लगा। अपना वर्चस्व खोने के बाद, ब्राह्मणवादी thinkers ने एक सुनियोजित प्रतिक्रांति शुरू की।

  • बौद्ध धर्म का खात्मा: इस प्रतिक्रांति में बौद्ध विहारों को नष्ट करना, बौद्ध भिक्षुओं का संहार करना और बौद्ध धर्म को भारत से लगभग समाप्त करना शामिल था।

  • हिंदू धर्म का पुनर्गठन: बौद्ध धर्म के आकर्षण को कम करने के लिए, ब्राह्मणवादियों ने अपनी विचारधारा में बदलाव किए। उन्होंने:

    • पुराणों की रचना की, जो जनसामान्य के लिए आकर्षक और सुलभ थे।

    • बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया, ताकि बौद्धों को हिंदू धर्म में समाहित किया जा सके।

    • मूर्ति पूजा और भक्ति मार्ग को बढ़ावा दिया (जो बौद्ध धर्म की लोकप्रिय प्रथाओं के समान था)।

  • जाति व्यवस्था का कठोरीकरण: प्रतिक्रांति की सबसे भयावह परिणति थी जाति व्यवस्था का और कठोर होना। शूद्रों और 'अस्पृश्य' माने जाने वाले लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई। समाज को दबाकर रखने के लिए सामाजिक नियमों को और सख्त बना दिया गया।

4. परिणाम: शूद्र और अछूत अंबेडकर का मानना है कि इस प्रतिक्रांति के ही परिणामस्वरूप:

  • शूद्र (जो मूल रूप से क्षत्रिय थे) एक निम्न वर्ण में तब्दील कर दिए गए।

  • 'अछूत' वर्ग का निर्माण हुआ, जो those people थे जो बौद्ध धर्म का पालन करते रहे और ब्राह्मणवादी व्यवस्था में आने से इनकार कर दिया। उन्हें समाज से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया गया।

निष्कर्ष और महत्व

डॉ. अंबेडकर की यह रचना भारतीय इतिहास को देखने का एक वैकल्पिक और दलित-केंद्रित दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यह इतिहास को केवल राजाओं और युद्धों के बजाय सामाजिक संघर्षों और विचारधाराओं के टकराव के रूप में पेश करती है।

  • यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि भारत में सामाजिक बुराइयाँ जैसे छुआछूत और जातिवाद कोई 'सनातन' प्रथा नहीं हैं, बल्कि एक ऐतिहासिक और राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम हैं।

  • यह डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने के निर्णय का बौद्धिक आधार भी प्रस्तुत करती है। उन्होंने बौद्ध धर्म को भारत की मूल समतावादी और तार्किक परंपरा के रूप में देखा।

अंतिम शब्द:
"प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति" डॉ. अंबेडकर के सबसे गहन और विद्वतापूर्ण कार्यों में से एक है। यह उन लोगों के लिए एक आवश्यक पाठ है जो भारत की सामाजिक संरचना, जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक कारणों और एक महान विचारक के दृष्टिकोण को समझना चाहते हैं।




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