MERI ATMAKATHA BY DR B R AMBEDKAR
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यह कहानी मेरे जीवन के कुछ घटनाचक्रों की है, जो सामान्य परिस्थितियों में नहीं बल्कि अस्पृश्यता के कारण झेले गए कष्टों और अपमानों का चित्रण करती है।
बचपन और प्रारंभिक शिक्षा
मेरा जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महू (अब डॉ. अंबेडकर नगर, मध्य प्रदेश) में हुआ था। मेरे पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। हम महार जाति से थे, जिसे उस समय 'अस्पृश्य' माना जाता था।
मेरी प्रारंभिक शिक्षा सतारा में हुई। एक दिन मेरे पिता और चाचा मुझे कोरेगाँव लेकर गए। वहाँ से हमें सतारा वापस जाना था। हमने एक बैलगाड़ी किराए पर ली, जिसका किराया भी अदा कर दिया गया। लेकिन जैसे ही गाड़ीवान को पता चला कि हम महार हैं, उसने हमें गाड़ी से उतार दिया। कोई और गाड़ीवान हमें लेने को तैयार नहीं हुआ। हमें अपने रिश्तेदार के पास रुकना पड़ा, जिन्होंने भी रात में हमें अपने घर में नहीं, बल्कि बाहर एक झोंपड़ी में ठहराया। अगले दिन हमें पैदल ही सतारा के लिए चल पड़ना पड़ा। उस समय मैं केवल छह साल का था। यह मेरे जीवन का पहला सामूहिक अपमान था।
हाईस्कूल में भेदभाव
मेरा परिवार बंबई (अब मुंबई) आ गया और मेरा दाखिला एलफिंस्टन हाईस्कूल में करा दिया गया। लेकिन यहाँ भी अस्पृश्यता का भेदभाव मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था।
पानी की प्यास: स्कूल में चपरासी ऊँची जाति के बच्चों को ऊपर से पानी डालकर पिलाता था। लेकिन मेरे और अन्य 'अस्पृश्य' बच्चों के लिए, पानी हमारे हाथों पर डाला जाता था ताकि बर्तन 'अपवित्र' न हो। अगर चपरासी अनुपस्थित होता, तो हमें बिना पानी पिए ही रहना पड़ता।
कक्षा में अलग बैठना: मुझे कक्षा में एक बोरी पर अलग बैठाया जाता था। मैं उसे घर ले जाता और अगले दिन फिर वही बोरी लेकर आता। मैं शिक्षकों की मेज से चाक भी नहीं ले सकता था।
शिक्षक की दया: एक बार मेरे शिक्षक, श्री अम्बेदकर (जिनके नाम से मैंने बाद में अपना उपनाम लिया) ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और चुपके से मिठाई खिलाई। एक अस्पृश्य बच्चे के प्रति उनका यह स्नेह मेरे लिए एक दुर्लभ और कीमती पल था।
बड़ौदा राज्य की नौकरी और घोर अपमान
अमेरिका और इंग्लैंड से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद, मैं बड़ौदा (वडोदरा) के महाराजा सेवायजी राव गायकवाड़ III के संरक्षण में वापस भारत आया। मैंने उनकी सेवा में सैन्य सचिव के पद पर काम करना शुरू किया। लेकिन शिक्षा और डिग्रियों ने मेरी जाति नहीं बदली।
मुझे एक पारसी सराय (धर्मशाला) में ठहराया गया। जब सराय के मालिक और अन्य लोगों को पता चला कि मैं एक महार हूँ, तो उन्होंने मुझे और मेरे सामान को सराय से बाहर फेंक दिया। मैं एक शिक्षित व्यक्ति, विदेश से पढ़कर आया हूँ, बड़ौदा राज्य का एक अधिकारी हूँ, लेकिन फिर भी मेरे लिए एक छत का टुकड़ा नसीब नहीं था।
मैंने एक पारसी मित्र से मदद माँगी और उसके घर में शरण ली। लेकिन दिन में वह मुझे अपने कमरे में छिपाकर रखता ताकि उसके परिवार वाले मुझे न देखें। रात में मैं गुपचुप तरीके से अंदर आता-जाता। यह मेरे जीवन का सबसे दुखद और अपमानजनक दौर था। अंततः मैं इस नौकरी को छोड़कर बंबई वापस आ गया।
वकील के रूप में अनुभव
बंबई में, मैंने कानून का अभ्यास शुरू किया और सिद्धांत रूप में बंबई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगा। लेकिन यहाँ भी स्थिति भिन्न नहीं थी।
अदालत में चपरासी मेरा नाम लेकर नहीं बुलाते थे। वे मुझे इशारे से बुलाते थे ताकि उनके मुँह से एक 'अस्पृश्य' का नाम न निकले। जब मैं अदालत में बैठता, तो कोई भी मेरे बगल में बैठना नहीं चाहता था। वकीलों का एक समूह मेरे पास से उठकर दूर चला जाता, मानो मैं कोई संक्रामक रोग हूँ।
निष्कर्ष
ये घटनाएँ मेरे जीवन के असंख्य दुखद अनुभवों में से केवल कुछ हैं। इन्होंने ही मुझे यह अहसास कराया कि जाति और अस्पृश्यता का प्रश्न केवल सामाजिक नहीं, बल्कि एक गहरा राजनीतिक और मानवीय प्रश्न है। इन्हीं अनुभवों ने मुझे समानता और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
मेरा मानना है कि एक समाज जो अपने ही लोगों के साथ इतना भेदभाव और अत्याचार करता है, वह कभी भी प्रगति नहीं कर सकता। मेरा संघर्ष केवल अपने लिए नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों के लिए है जिन्हें सदियों से उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा गया है।
महत्वपूर्ण नोट:
यह आत्मकथा मूल रूप से अंग्रेजी में "Waiting for a Visa" के रूप में लिखी गई थी।
यह डॉ. अंबेडकर के व्यक्तिगत अनुभवों का एक शक्तिशाली और मार्मिक दस्तावेज है, जो बताता है कि उनके संवैधानिक और सामाजिक सुधारों के पीछे उनकी निजी पीड़ा और संघर्ष का कितना बड़ा योगदान था।
इस पाठ को पढ़ना भारत में छुआछूत की बुराई की वास्तविक समझ पाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
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