रुपये की समस्याः उद्धव और समाधान
꧁ Digital Diary ༒Largest Writing Community༒꧂
रुपये की समस्याः उद्धव और समाधान (The Problem of the Rupee: Its Origin and Its Solution)
यह पुस्तक डॉ. बी.आर. अम्बेडकर द्वारा लिखित एक महत्वपूर्ण आर्थिक शोध प्रबंध है, जो मूल रूप से उनका पीएच.डी. शोध प्रबंध था जिसे उन्होंने 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डिग्री प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत किया था। यह पुस्तक भारतीय मुद्रा प्रणाली और रुपये के विनिमय दर के इतिहास, समस्याओं और समाधानों का एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
पृष्ठभूमि और महत्व:
ऐतिहासिक संदर्भ: यह पुस्तक 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में प्रचलित मुद्रा प्रणाली, विशेष रूप से रुपये के सोने और चांदी के संबंध और इसकी अस्थिर विनिमय दर की समस्याओं के संदर्भ में लिखी गई थी। उस समय भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश था, और ब्रिटिश सरकार की नीतियां भारतीय अर्थव्यवस्था और मुद्रा पर गहरा प्रभाव डाल रही थीं।
मौद्रिक नीति पर प्रभाव: अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक में भारतीय मुद्रा प्रणाली के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया, जिसमें रुपये का स्टर्लिंग के साथ संबंध, सोने के मानक बनाम चांदी के मानक का बहस, और विनिमय दर को स्थिर करने के लिए अपनाई गई नीतियां शामिल थीं।
आरबीआई की स्थापना में भूमिका: यह पुस्तक भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की स्थापना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क और सुझावों को हिल्टन यंग कमीशन (रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस) ने गंभीरता से लिया। इस कमीशन की सिफारिशों के आधार पर ही 1934 में भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम पारित किया गया, और 1935 में आरबीआई की स्थापना हुई। अम्बेडकर ने एक केंद्रीय बैंक की आवश्यकता और उसके कार्यों पर विस्तार से चर्चा की थी, जो बाद में आरबीआई के सिद्धांतों का आधार बना।
पुस्तक के प्रमुख विषय और तर्क:
रुपये का इतिहास: अम्बेडकर ने रुपये के ऐतिहासिक विकास, विशेष रूप से ब्रिटिश शासन के तहत इसके परिवर्तनों का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने सोने और चांदी के मानकों के बीच भारतीय मुद्रा के संघर्ष को उजागर किया।
विनिमय दर की अस्थिरता: उन्होंने रुपये की अस्थिर विनिमय दर से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का विश्लेषण किया, जिसने भारतीय व्यापार और अर्थव्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।
सरकारी नीतियां की आलोचना: अम्बेडकर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा रुपये को स्थिर करने के लिए अपनाई गई नीतियों की आलोचना की। उन्होंने तर्क दिया कि ये नीतियां अक्सर भारतीय अर्थव्यवस्था के हितों के बजाय ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई थीं।
समाधान और सिफारिशें:
स्वर्ण मानक की वकालत: अम्बेडकर ने भारत के लिए स्वर्ण मानक (Gold Standard) को अपनाने की वकालत की, उनका मानना था कि यह रुपये को स्थिरता प्रदान करेगा।
केंद्रीय बैंक की आवश्यकता: उन्होंने एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की जोरदार सिफारिश की, जो देश की मौद्रिक नीति को नियंत्रित कर सके, विनिमय दर को स्थिर रख सके और मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सके। उनका मानना था कि एक स्वतंत्र केंद्रीय बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है।
सार्वजनिक हित में मौद्रिक नीति: उन्होंने तर्क दिया कि मौद्रिक नीति को जनहित में और आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए संचालित किया जाना चाहिए, न कि केवल सरकारी राजस्व बढ़ाने के लिए।
पुस्तक का स्थायी प्रभाव:
'रुपये की समस्या' आज भी भारतीय मौद्रिक इतिहास और अर्थशास्त्र के अध्ययन में एक मौलिक कार्य मानी जाती है। यह न केवल डॉ. अम्बेडकर की गहरी आर्थिक समझ को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे उनके विद्वत्तापूर्ण कार्य ने भारत की संस्थागत संरचनाओं, विशेष रूप से उसके केंद्रीय बैंकिंग प्रणाली के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पुस्तक एक अकादमिक कार्य होने के साथ-साथ एक राजनीतिक और सामाजिक बयान भी था, जो यह दर्शाता है कि कैसे आर्थिक नीतियों का सीधा संबंध सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय संप्रभुता से होता है।
We are accepting Guest Posting on our website for all categories.
Motivation All Students
@DigitalDiaryWefru