ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय

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ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय

ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय एक जटिल और क्रमिक प्रक्रिया थी जो मुख्य रूप से ब्रिटिश सरकार द्वारा अपने वित्तीय बोझ को कम करने और प्रशासन को अधिक कुशल बनाने के प्रयासों का परिणाम थी। यह केंद्र (भारत सरकार) और प्रांतों (प्रेसीडेंसी और बाद में प्रांत) के बीच वित्तीय संबंधों के विकेंद्रीकरण की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था।

पृष्ठभूमि:

  • एकीकृत वित्त प्रणाली: शुरुआत में, ब्रिटिश भारत में एक अत्यधिक केंद्रीकृत वित्त प्रणाली थी। सभी राजस्व केंद्र सरकार द्वारा एकत्र किए जाते थे, और प्रांतों को उनके खर्चों के लिए केंद्र से अनुदान प्राप्त होता था। यह प्रणाली अक्सर अक्षम साबित होती थी क्योंकि प्रांतों को अपने स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार धन का उपयोग करने की स्वतंत्रता नहीं थी।

  • बढ़ता वित्तीय दबाव: 19वीं शताब्दी के मध्य तक, भारत सरकार पर लगातार बढ़ता वित्तीय दबाव था। सैन्य खर्च, प्रशासनिक व्यय और सार्वजनिक कार्यों के लिए धन की आवश्यकता बढ़ रही थी, जबकि राजस्व स्रोत सीमित थे।

प्रांतीय वित्त के अभ्युदय के चरण:

  • मेयो का वित्तीय विकेंद्रीकरण (1870):

    • मुख्य उद्देश्य: लॉर्ड मेयो (Lord Mayo) के शासनकाल में 1870 में वित्तीय विकेंद्रीकरण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया गया। इसका मुख्य उद्देश्य केंद्र सरकार के वित्तीय बोझ को कम करना और प्रांतों को अपने वित्तीय मामलों में अधिक जिम्मेदारी देना था।

    • सिद्धांत: कुछ विभागों, जैसे पुलिस, जेल, शिक्षा और सड़कों के लिए निश्चित अनुदान प्रांतों को हस्तांतरित किए गए। इन विभागों पर होने वाले खर्च की जिम्मेदारी प्रांतों को दी गई।

    • परिणाम: इस कदम से प्रांतों को अपने क्षेत्रों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार खर्च करने की कुछ स्वतंत्रता मिली, और उन्हें अपने राजस्व स्रोतों को विकसित करने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया।

  • लिटन का वित्तीय सुधार (1877):

    • विस्तारित हस्तांतरण: लॉर्ड लिटन (Lord Lytton) ने मेयो के सुधारों का विस्तार किया। उन्होंने कुछ और विभागों को प्रांतीय नियंत्रण में स्थानांतरित कर दिया और प्रांतों को कुछ निश्चित राजस्व स्रोतों जैसे कि उत्पाद शुल्क और स्टांप शुल्क पर अधिक नियंत्रण दिया।

    • निश्चित आवंटन: प्रांतों को केंद्र से निश्चित वार्षिक आवंटन प्राप्त होने लगे, और उन्हें इन आवंटनों के भीतर अपने खर्चों को प्रबंधित करने की आवश्यकता थी।

  • रिपन का सुधार (1882):

    • साझा राजस्व: लॉर्ड रिपन (Lord Ripon) ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जहां कुछ राजस्व स्रोतों को केंद्र और प्रांतों के बीच साझा किया गया। इससे प्रांतों को अपने राजस्व आधार को बढ़ाने का प्रोत्साहन मिला।

    • प्रांतीय वित्त का अधिक स्वायत्तता: इन सुधारों ने प्रांतों को अपने वित्तीय मामलों में और अधिक स्वायत्तता दी।

  • मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (1919) और द्वैध शासन:

    • स्पष्ट विभाजन: 1919 के मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों ने केंद्र और प्रांतीय विषयों के बीच एक स्पष्ट विभाजन किया। वित्त के मामले में, "हस्तांतरित" विषयों (जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन) के लिए राजस्व और खर्च प्रांतों के नियंत्रण में आ गए। "आरक्षित" विषयों (जैसे कानून और व्यवस्था, वित्त) पर केंद्र का नियंत्रण बना रहा।

    • प्रांतीय बजट: प्रांतों को अपने बजट बनाने और प्रशासित करने की अधिक शक्ति मिली। यह द्वैध शासन प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू था।

    • सांप्रदायिक अवार्ड (1932) और भारत सरकार अधिनियम (1935):

      • प्रांतीय स्वायत्तता: 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने प्रांतों को और अधिक स्वायत्तता प्रदान की। इसने प्रांतों को अपने स्वयं के विधायी निकाय और कार्यकारी परिषदों के साथ पूर्ण वित्तीय स्वायत्तता दी। केंद्र और प्रांतों के बीच राजस्व के स्रोतों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया।

      • वित्त आयोग का विचार: डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जैसे विद्वानों ने प्रांतीय वित्त के विकास में सार्वजनिक राजस्व के बंटवारे के लिए वित्त आयोग के विचार का समर्थन किया, जो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सार्वजनिक राजस्व का उचित विभाजन करने में सक्षम रहा है।

  • प्रभाव और महत्व:

    • अधिक कुशल प्रशासन: प्रांतीय वित्त के अभ्युदय से प्रशासन में अधिक दक्षता आई क्योंकि प्रांत अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धन का उपयोग कर सकते थे।

    • स्थानीय आवश्यकताओं पर ध्यान: इसने स्थानीय आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करने में मदद की।

    • प्रशासनिक अनुभव: भारतीय नेताओं को वित्तीय प्रबंधन का अनुभव प्राप्त हुआ, जो स्वतंत्रता के बाद भारत के संघीय वित्त ढांचे के विकास के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ।

    • राजस्व के लिए प्रतिस्पर्धा: हालांकि, इस प्रणाली ने प्रांतों के बीच राजस्व जुटाने की प्रतिस्पर्धा को भी जन्म दिया।

    कुल मिलाकर, ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय एक महत्वपूर्ण विकासात्मक चरण था जिसने भारत के संघीय वित्तीय ढांचे की नींव रखी और बाद में स्वतंत्रता के बाद केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों को आकार देने में मदद की।




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