सामाजिक न्याय और स्वाभिमान की लड़ाई

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दलित एकजुटता: सामाजिक न्याय और स्वाभिमान की लड़ाई

दलित एकजुटता भारत में सदियों से चले आ रहे जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक सामूहिक संघर्ष है। यह आंदोलन दलित समुदाय को शिक्षा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, और सामाजिक गरिमा के लिए संगठित करने का प्रयास है। यहाँ इसके प्रमुख पड़ाव और नायकों की कहानी है:

प्रारंभिक प्रयास (19वीं-20वीं सदी):

  • ज्योतिबा फुले (1827-1890):

    • "सत्यशोधक समाज" (1873) के माध्यम से दलितों और महिलाओं को शिक्षा और समान अधिकारों के लिए जागरूक किया।

    • "गुलामगिरी" किताब में जातिवाद की कटु आलोचना की।

  • पेरियार ई.वी. रामासामी (1879-1973):

    • तमिलनाडु में आत्मसम्मान आंदोलन चलाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी।

  • डॉ. बी.आर. अंबेडकर (1891-1956):

    • बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924) और इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (1936) बनाई।

    • महाड़ सत्याग्रह (1927) और मनुस्मृति दहन के ज़रिए जातिवादी नियमों का विरोध किया।

    • संविधान में अनुच्छेद 17 (छुआछूत उन्मूलन) और आरक्षण की व्यवस्था लागू करवाई।

  • स्वतंत्रता के बाद का दौर (1950-1990):

  • दलित पैंथर्स (1972):

    • महाराष्ट्र में नामदेव ढसालराजा ढाले, और जे.वी. पवार ने इस आंदोलन की शुरुआत की।

    • नारा दिया: "जो तुम्हारा शोषण करे, उसका सिर फोड़ दो!"

    • साहित्य, कविता, और स्ट्रीट प्ले के ज़रिए दलित युवाओं को जगाया।

  • कांशी राम (1934-2006) और बहुजन समाज पार्टी (BSP):

    • "बहुजन" (दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक) को एकजुट करने का आह्वान किया।

    • नारा: "जिसकी जितनी संख्या-भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी!"

    • मायावती के नेतृत्व में BSP ने उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल की और दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाया।

  • समकालीन आंदोलन (2000-वर्तमान):

  • रोहित वेमुला आंदोलन (2016):

    • हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव को उजागर किया।

    • "जय भीम" और "डॉ. अंबेडकर छात्र संघ" जैसे संगठनों ने देशव्यापी प्रदर्शन किए।

  • उना आंदोलन (2016):

    • गुजरात के उना में दलित युवाओं की सार्वजनिक पिटाई के विरोध में लाखों लोग सड़कों पर उतरे।

    • "चलो, उना!" नारे के साथ दलित समुदाय ने मैनुअल स्कैवेंजिंग के खिलाफ आवाज़ उठाई।

  • भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ समारोह:

    • हर साल 1 जनवरी को महाराष्ट्र के कोरेगांव में लाखों दलित एकत्र होकर 1818 की जीत का जश्न मनाते हैं।

    • यह आयोजन दलित गौरव और एकजुटता का प्रतीक बन गया है।

  • सांस्कृतिक और बौद्धिक एकजुटता:

  • दलित साहित्य:

    • ओमप्रकाश वाल्मीकि ("जूठन"), बामा फ़ातिमा ("करुक्कु"), और सुशीला टाकभौरे जैसे लेखकों ने दलित जीवन की पीड़ा को शब्द दिए।

    • मराठी दलित पैंथर साहित्य ने क्रांतिकारी विचारों को बढ़ावा दिया।

  • कला और संगीत:

    • कबीर कला मंच और दलित रैप संगीत (जैसे डॉ. बोले और सम्पत सरदार) ने युवाओं को जागरूक किया।

  • डिजिटल एक्टिविज़्म:

    • सोशल मीडिया पर #DalitLivesMatter#JusticeForRohith, और #StopCasteBasedViolence जैसे हैशटैग ने वैश्विक स्तर पर चर्चा शुरू की।

  • चुनौतियाँ और आलोचनाएँ:

  • आंतरिक विभाजन:

    • दलित समुदाय में उप-जातियों (जैसे महार, चमार, धनुक) के बीच एकता का अभाव।

  • राजनीतिक सीमाएँ:

    • दलित नेताओं पर "टोकनिज़्म" (प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व) और जातिवादी दलों से समझौते की आलोचना।

  • सामाजिक प्रतिरोध:

    • खैरलांजी (2006), हाथरस (2020), और सहारनपुर (2017) जैसी हिंसक घटनाएँ दलित सुरक्षा पर सवाल खड़े करती हैं।

  • भविष्य की राह:

  • शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण:

    • डॉ. अंबेडकर के सिद्धांत: "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो!"

  • अंतर-जातीय गठजोड़:

    • बहुजन एकता (दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक) को मजबूत करना।

  • वैश्विक समर्थन:

    • संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के साथ जातिवाद के खिलाफ मुहिम।

  • निष्कर्ष:

    दलित एकजुटता न सिर्फ़ एक सामाजिक आंदोलन है, बल्कि मानवीय गरिमा और समानता की लड़ाई है। यह संघर्ष डॉ. अंबेडकर के शब्दों में आगे बढ़ रहा है: "हमें अपना इतिहास खुद लिखना होगा, और वह इतिहास स्वतंत्रता, समानता, और भाईचारे का होगा।" आज भी यह आंदोलन याद दिलाता है कि **"जाति तोड़ो, एकजुट बनो!"




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