दलित अधिकारों के लिए संघर्ष: एक ऐतिहासिक जीवन चरित्र

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भारत में दलित अधिकारों के लिए संघर्ष सदियों पुराना है, जो सामाजिक न्याय, समानता, और मानवीय गरिमा की लड़ाई का प्रतीक है। यह संघर्ष जातिवाद, छुआछूत, और सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ एक सामूहिक आवाज़ बना। यहाँ इसके प्रमुख पड़ाव और नायकों की कहानी है:

प्रारंभिक संघर्ष (19वीं सदी):

  • ज्योतिबा फुले (1827-1890):

    • "सत्यशोधक समाज" (1873) की स्थापना करके दलितों और महिलाओं के शिक्षा के अधिकार की लड़ाई शुरू की।

    • "गुलामगिरी" (1873) किताब लिखकर जातिवाद की आलोचना की।

  • पेरियार ई.वी. रामासामी (1879-1973):

    • तमिलनाडु में "आत्मसम्मान आंदोलन" चलाया, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ था।

  • डॉ. बी.आर. अंबेडकर और आधुनिक आंदोलन (20वीं सदी):

  • महाड़ सत्याग्रह (1927):

    • महाराष्ट्र के महाड़ में चवदार तालाब से दलितों को पानी पीने का अधिकार दिलाया।

    • मनुस्मृति दहन (25 दिसंबर 1927) के ज़रिए जातिवादी ग्रंथों का विरोध किया।

  • पूना पैक्ट (1932):

    • गांधी और अंबेडकर के बीच समझौता, जिसमें दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू हुई।

  • संविधान निर्माण (1947-1950):

    • अंबेडकर ने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 (छुआछूत उन्मूलन), अनुच्छेद 15-16 (समानता) जैसे प्रावधान जोड़े।

  • स्वतंत्रता के बाद के आंदोलन:

  • दलित पैंथर्स (1972):

    • महाराष्ट्र में नामदेव ढसाल और राजा ढाले ने दलित पैंथर्स की स्थापना की, जो साहित्य और आंदोलनों के माध्यम से जागरूकता फैलाई।

  • मंडल आयोग (1990):

    • अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण देने की सिफारिशों के लिए हुए आंदोलनों ने दलित-बहुजन एकता को मजबूत किया।

  • भीमा कोरेगांव विजय स्तंभ (2018):

    • महाराष्ट्र में दलित समुदाय ने ब्रिटिश सेना में लड़े महार योद्धाओं की याद में जुटकर सामाजिक गौरव का प्रदर्शन किया।

  • प्रमुख घटनाएँ और कानूनी लड़ाइयाँ:

  • छुआछूत विरोधी कानून (1955):

    • अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (अब SC/ST एक्ट) लागू हुआ, जो दलितों के खिलाफ भेदभाव को दंडित करता है।

  • रोहित वेमुला की आत्महत्या (2016):

    • हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की मौत ने शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव पर बहस छेड़ी।

  • उना आंदोलन (2016):

    • गुजरात में दलित युवाओं की पिटाई के विरोध में हुए प्रदर्शनों ने देशभर में सामाजिक न्याय की मांग को तेज़ किया।

  • दलित साहित्य और सांस्कृतिक आंदोलन:

  • साहित्यिक विद्रोह:

    • ओमप्रकाश वाल्मीकि ("जूठन"), बामा फ़ातिमा ("करुक्कु"), और मराठी लेखक बाबुराव बागुल ने दलित जीवन की पीड़ा को शब्द दिए।

  • जनजागरण के प्रतीक:

    • भीम जयंती (14 अप्रैल) और महाराष्ट्र का "विजय दशमी" (मनुस्मृति दहन दिवस) दलित गर्व के प्रतीक बने।

  • वर्तमान संघर्ष और चुनौतियाँ:

  • जातिगत हिंसा:

    • खैरलांजी (2006), उत्तर प्रदेश का हाथरस मामला (2020) जैसी घटनाएँ दलित सुरक्षा पर सवाल खड़े करती हैं।

  • शिक्षा और रोज़गार:

    • आरक्षण नीतियों के बावजूद दलितों तक उच्च शिक्षा और नौकरियों में समान पहुँच अभी भी एक लक्ष्य है।

  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व:

    • दलित नेता मायावती, चंद्रशेखर आजाद "रावण", और जिग्नेश मेवाणी आज भी सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं।

  • निष्कर्ष:

    दलित अधिकारों का संघर्ष न सिर्फ़ कानूनी बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति की मांग करता है। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में: "राजनीतिक सत्ता समाज की बुराइयों का इलाज नहीं है। समाज को नैतिक बनाना होगा।" यह संघर्ष आज भी जारी है, क्योंकि "समानता का अधिकार अभी अधूरा है।"




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