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श्रीमद्भगवद्गीता अक्षरब्रह्मयोग आठवाँ अध्याय


अक्षरब्रह्मयोग-  आठवाँ अध्याय

AksharBrahmaYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 8 | अक्षरब्रह्मयोग~ अध्याय आठ

 

अथाष्टमोऽध्यायः- अक्षरब्रह्मयोग

ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर

 

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं पुरुषोत्तम ।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते৷৷8.1৷৷

 

arjuna uvāca

kiṅ tadbrahma kimadhyātmaṅ kiṅ karma puruṣōttama.

adhibhūtaṅ ca kiṅ prōktamadhidaivaṅ kimucyatē৷৷8.1৷৷

भावार्थ : अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं॥8.1॥

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥8.2৷৷

 

adhiyajñaḥ kathaṅ kō.tra dēhē.sminmadhusūdana.

prayāṇakālē ca kathaṅ jñēyō.si niyatātmabhiḥ৷৷8.2৷৷

भावार्थ : हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं॥8.2॥

भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें: 

Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ৷৷8.3৷৷

 

śrī bhagavānuvāca

akṣaraṅ brahma paramaṅ svabhāvō.dhyātmamucyatē.

bhūtabhāvōdbhavakarō visargaḥ karmasaṅjñitaḥ৷৷8.3৷৷

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म' है, अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा 'अध्यात्म' नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह 'कर्म' नाम से कहा गया है॥8.3॥

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥8.4৷৷

 

adhibhūtaṅ kṣarō bhāvaḥ puruṣaścādhidaivatam.

adhiyajñō.hamēvātra dēhē dēhabhṛtāṅ vara৷৷8.4৷৷

भावार्थ : उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ॥8.4॥

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ৷৷8.5৷৷

 

antakālē ca māmēva smaranmuktvā kalēvaram.

yaḥ prayāti sa madbhāvaṅ yāti nāstyatra saṅśayaḥ৷৷8.5৷৷

 

भावार्थ : जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8.5॥

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ৷৷8.6৷৷

 

yaṅ yaṅ vāpi smaranbhāvaṅ tyajatyantē kalēvaram.

taṅ tamēvaiti kauntēya sadā tadbhāvabhāvitaḥ৷৷8.6৷৷

 

भावार्थ : हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है॥8.6॥

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ৷৷8.7৷৷

 

tasmātsarvēṣu kālēṣu māmanusmara yudhya ca.

mayyarpitamanōbuddhirmāmēvaiṣyasyasaṅśayam৷৷8.7৷৷

 

भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा॥8.7॥

भगवान का परम धाम और भक्ति के सोलह प्रकार

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥8.8৷৷

 

abhyāsayōgayuktēna cētasā nānyagāminā.

paramaṅ puruṣaṅ divyaṅ yāti pārthānucintayan৷৷8.8৷৷

 

भावार्थ : हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है॥8.8॥

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ৷৷8.9৷৷

 

kaviṅ purāṇamanuśāsitāra-

maṇōraṇīyāṅsamanusmarēdyaḥ.

sarvasya dhātāramacintyarūpa-

mādityavarṇaṅ tamasaḥ parastāt৷৷8.9৷৷

 

भावार्थ : जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियंता (अंतर्यामी रूप से सब प्राणियों के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार शासन करने वाला) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्य के सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप और अविद्या से अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमेश्वर का स्मरण करता है॥8.9॥

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ৷৷8.10৷৷

 

prayāṇakālē manasā.calēna

bhaktyā yuktō yōgabalēna caiva.

bhruvōrmadhyē prāṇamāvēśya samyak 

sa taṅ paraṅ puruṣamupaiti divyam৷৷8.10৷৷

 

भावार्थ : वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है॥8.10॥

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ৷৷8.11৷৷

 

yadakṣaraṅ vēdavidō vadanti

viśanti yadyatayō vītarāgāḥ.

yadicchantō brahmacaryaṅ caranti

tattē padaṅ saṅgrahēṇa pravakṣyē৷৷8.11৷৷

 

भावार्थ : वेद के जानने वाले विद्वान जिस सच्चिदानन्दघनरूप परम पद को अविनाश कहते हैं, आसक्ति रहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन, जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परम पद को चाहने वाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तेरे लिए संक्षेप में कहूँगा॥8.11॥

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ॥8.12৷৷

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ৷৷8.13৷৷

 

sarvadvārāṇi saṅyamya manō hṛdi nirudhya ca.

mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇamāsthitō yōgadhāraṇām৷৷8.12৷৷

ōmityēkākṣaraṅ brahma vyāharanmāmanusmaran.

yaḥ prayāti tyajandēhaṅ sa yāti paramāṅ gatim৷৷8.13৷৷

 

भावार्थ : सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥8.12-8.13॥

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ৷৷8.14৷৷

 

ananyacētāḥ satataṅ yō māṅ smarati nityaśaḥ.

tasyāhaṅ sulabhaḥ pārtha nityayuktasya yōginaḥ৷৷8.14৷৷

 

भावार्थ : हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ, अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥8.14॥

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ৷৷8.15৷৷

 

māmupētya punarjanma duḥkhālayamaśāśvatam.

nāpnuvanti mahātmānaḥ saṅsiddhiṅ paramāṅ gatāḥ৷৷8.15৷৷

 

भावार्थ : परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते॥8.15॥

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ৷৷8.16৷৷

 

ābrahmabhuvanāllōkāḥ punarāvartinō.rjuna.

māmupētya tu kauntēya punarjanma na vidyatē৷৷8.16৷৷

 

भावार्थ : हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं॥8.16॥

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ৷৷8.17৷৷

 

sahasrayugaparyantamaharyadbrahmaṇō viduḥ.

rātriṅ yugasahasrāntāṅ tē.hōrātravidō janāḥ৷৷8.17৷৷

 

भावार्थ : ब्रह्मा का जो एक दिन है, उसको एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार चतुर्युगी तक की अवधि वाला जो पुरुष तत्व से जानते हैं, वे योगीजन काल के तत्व को जानने वाले हैं॥8.17॥

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ৷৷8.18৷৷

 

avyaktādvyaktayaḥ sarvāḥ prabhavantyaharāgamē.

rātryāgamē pralīyantē tatraivāvyaktasaṅjñakē৷৷8.18৷৷

 

भावार्थ : संपूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं॥8.18॥

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ৷৷8.19৷৷

 

bhūtagrāmaḥ sa ēvāyaṅ bhūtvā bhūtvā pralīyatē.

rātryāgamē.vaśaḥ pārtha prabhavatyaharāgamē৷৷8.19৷৷

 

भावार्थ : हे पार्थ! वही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति वश में हुआ रात्रि के प्रवेश काल में लीन होता है और दिन के प्रवेश काल में फिर उत्पन्न होता है॥8.19॥

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ৷৷8.20৷৷

 

parastasmāttu bhāvō.nyō.vyaktō.vyaktātsanātanaḥ.

yaḥ sa sarvēṣu bhūtēṣu naśyatsu na vinaśyati৷৷8.20৷৷

 

भावार्थ : उस अव्यक्त से भी अति परे दूसरा अर्थात विलक्षण जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता॥8.20॥

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ৷৷8.21৷৷

 

avyaktō.kṣara ityuktastamāhuḥ paramāṅ gatim.

yaṅ prāpya na nivartantē taddhāma paramaṅ mama ৷৷8.21৷৷

 

भावार्थ : जो अव्यक्त 'अक्षर' इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है॥8.21॥

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।

यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ৷৷8.22৷৷

 

puruṣaḥ sa paraḥ pārtha bhaktyā labhyastvananyayā.

yasyāntaḥsthāni bhūtāni yēna sarvamidaṅ tatam৷৷8.22৷৷

 

भावार्थ : हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है (गीता अध्याय 9 श्लोक 4 में देखना चाहिए), वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य (गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में इसका विस्तार देखना चाहिए) भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है ॥8.22॥

शुक्ल और कृष्ण मार्ग का वर्णन

 

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ৷৷8.23৷৷

 

yatra kālē tvanāvṛttimāvṛttiṅ caiva yōginaḥ.

prayātā yānti taṅ kālaṅ vakṣyāmi bharatarṣabha৷৷8.23৷৷

 

भावार्थ : हे अर्जुन! जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिए, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान ने इसका नाम 'सृति', 'गति' ऐसा कहा है।) शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गए हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को कहूँगा॥8.23॥

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ৷৷8.24৷৷

 

agnirjyōtirahaḥ śuklaḥ ṣaṇmāsā uttarāyaṇam.

tatra prayātā gacchanti brahma brahmavidō janāḥ৷৷8.24৷৷

 

भावार्थ : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। ॥8.24॥

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ৷৷8.25৷৷

 

dhūmō rātristathā kṛṣṇaḥ ṣaṇmāsā dakṣiṇāyanam.

tatra cāndramasaṅ jyōtiryōgī prāpya nivartatē৷৷8.25৷৷

 

भावार्थ : जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्ण पक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है॥8.25॥

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ৷৷8.26৷৷

 

śuklakṛṣṇē gatī hyētē jagataḥ śāśvatē matē.

ēkayā yātyanāvṛttimanyayā৷৷vartatē punaḥ ৷৷8.26৷৷

 

भावार्थ : क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग से गया हुआ योगी।)-- जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 25 के अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।) फिर वापस आता है अर्थात्‌ जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥8.26॥

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ৷৷8.27৷৷

 

naitē sṛtī pārtha jānanyōgī muhyati kaścana.

tasmātsarvēṣu kālēṣu yōgayuktō bhavārjuna৷৷ 8.27৷৷

भावार्थ : हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्त्व से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इस कारण हे अर्जुन! तू सब काल में समबुद्धि रूप से योग से युक्त हो अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो॥8.27॥

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ ।

अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ৷৷8.28৷৷

 

vēdēṣu yajñēṣu tapaḥsu caiva

dānēṣu yatpuṇyaphalaṅ pradiṣṭam.

atyēti tatsarvamidaṅ viditvā

yōgī paraṅ sthānamupaiti cādyam৷৷8.28৷৷

 

भावार्थ : योगी पुरुष इस रहस्य को तत्त्व से जानकर वेदों के पढ़ने में तथा यज्ञ, तप और दानादि के करने में जो पुण्यफल कहा है, उन सबको निःसंदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परम पद को प्राप्त होता है॥8.28॥

ॐ तत्सदिति श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 

श्री कृष्णार्जुनसंवादे अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ॥8॥




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